आदरणीय सम्पादक जन,
भारतीय समाचार पत्र
भारत
महोदयों,
एक भारतीय नागरिक का आप सभी विद्वजनों से निवेदन है
कि कृपया भारतीय संविधान की प्रस्तावना के विषय में स्मरण करने का प्रयास करें । जो
कहता है – “हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण
प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को : सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की
स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा
और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की
एकता और अखण्डता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढाने के लिए दृढ संकल्प होकर अपनी इस
संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 ई0 (मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी, सम्वत् दो हजार छह विक्रमी) को एतद द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित
करते हैं।"
अब ज़रा एक नज़र आज के लगभग सभी
बड़े अख़बारों की मुख्य-पृष्ठ की सुर्खियों पर-
· हिन्दू घटे, मुस्लिम
बढ़े
· हिन्दुओं की धीमी, मुस्लिमों
की तेज़ (आबादी की रफ़्तार) ....{देश-विदेश वाले पेज तक जारी }
· यूपी में हिंदू-सिख घटे, मुस्लिम-ईसाई
बढ़े... ..
· Hindu Proportion of India’s Population
less than 80%
अब यदि भारतीय संविधान की प्रस्तावना के आधार पर देखा जाये तो उपर्युक्त शीर्षकों में क्या है भारत के लोगों की परिभाषा ? कौन हैं "हम भारत के लोग" ? कहां हैंं सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न राज्य की झलक ? कहाँ है समाजवादी सोच जहां सबको मिले समान अधिकार ? यहांं तो गणना ही इस आधार पर जारी की जा रही है ताकि वोट बैंक बांटे जा सकें और हमारे लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ आज स्तम्भ के स्थान पर सत्ता का शस्त्र बना दिख रहा है । आज धार्मिक आंकड़े जारी हुए हैं, तो वहीं जातिगत आंकड़ों को जारी करने की मांग बढ़ गई है । दरअसल हर कोई अपने-अपने वोट बैंक को पहचानना जो चाहता है । ये जनगणना नहीं, ये धार्मिक और जातिगत मतगणना है । अब काहे की पंथ निरपेक्षता और कैसा लोकतंत्र ? जब एक धर्म- निरपेक्ष राष्ट्र के समाचार पत्र ऐसी छवि प्रस्तुत कर रहे हों ।
यह सत्य है कि न्याय अब भी कहीं न कहीं जीवित है, विचारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी है किन्तु धर्म और उपासना की स्वतंत्रता के नाम पर स्वतंत्रता केवल नाम मात्र की है क्या ? जब आप और हम ये मानते हैं कि भारत का धर्म सहिष्णुता मेंं निहित है तो कैसे कर सकते हैं हम ये अनुदार व्यवहार ? अब क्या वर्तमान सरकार इन आंकड़ों के अनुसार मंदिर, मस्ज़िद, गिरिजाघर बनवायेगी ?
क्या विकास के बाकी सारे मुद्दों पर कार्य पूर्ण हो चुका है ?
यदि आय के आधार पर एकत्रित आंकड़ों को सार्वजनिक किया गया होता और आप जैसे भद्र जनों ने आर्थिक आधार पर मेधावियों को आरक्षण देने का मुद्दा उठाया होता तो अधिक प्रसन्नता होती । यदि ये आंकड़े देश के विभिन्न हिस्सों की साक्षरता वृद्धि या लिंगानुपात समानता को दर्शाते तो भी बहुत संतोष मिलता । चलिए ये आंकड़े जारी हुए भी तो क्या , एक ज़िम्मेदार जनमत निर्माता होने के नाते आपको क्या करना चाहिए था ?
अब यदि भारतीय संविधान की प्रस्तावना के आधार पर देखा जाये तो उपर्युक्त शीर्षकों में क्या है भारत के लोगों की परिभाषा ? कौन हैं "हम भारत के लोग" ? कहां हैंं सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न राज्य की झलक ? कहाँ है समाजवादी सोच जहां सबको मिले समान अधिकार ? यहांं तो गणना ही इस आधार पर जारी की जा रही है ताकि वोट बैंक बांटे जा सकें और हमारे लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ आज स्तम्भ के स्थान पर सत्ता का शस्त्र बना दिख रहा है । आज धार्मिक आंकड़े जारी हुए हैं, तो वहीं जातिगत आंकड़ों को जारी करने की मांग बढ़ गई है । दरअसल हर कोई अपने-अपने वोट बैंक को पहचानना जो चाहता है । ये जनगणना नहीं, ये धार्मिक और जातिगत मतगणना है । अब काहे की पंथ निरपेक्षता और कैसा लोकतंत्र ? जब एक धर्म- निरपेक्ष राष्ट्र के समाचार पत्र ऐसी छवि प्रस्तुत कर रहे हों ।
यह सत्य है कि न्याय अब भी कहीं न कहीं जीवित है, विचारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी है किन्तु धर्म और उपासना की स्वतंत्रता के नाम पर स्वतंत्रता केवल नाम मात्र की है क्या ? जब आप और हम ये मानते हैं कि भारत का धर्म सहिष्णुता मेंं निहित है तो कैसे कर सकते हैं हम ये अनुदार व्यवहार ? अब क्या वर्तमान सरकार इन आंकड़ों के अनुसार मंदिर, मस्ज़िद, गिरिजाघर बनवायेगी ?
क्या विकास के बाकी सारे मुद्दों पर कार्य पूर्ण हो चुका है ?
यदि आय के आधार पर एकत्रित आंकड़ों को सार्वजनिक किया गया होता और आप जैसे भद्र जनों ने आर्थिक आधार पर मेधावियों को आरक्षण देने का मुद्दा उठाया होता तो अधिक प्रसन्नता होती । यदि ये आंकड़े देश के विभिन्न हिस्सों की साक्षरता वृद्धि या लिंगानुपात समानता को दर्शाते तो भी बहुत संतोष मिलता । चलिए ये आंकड़े जारी हुए भी तो क्या , एक ज़िम्मेदार जनमत निर्माता होने के नाते आपको क्या करना चाहिए था ?
आदरणीय वरिष्ठ जनों आपको
स्मरण हो कि हम बचपन
से आज तक पढ़ते आये – "हिन्दू- मुस्लिम, सिख-ईसाई, आपस में सब भाई-भाई ", तो आज भाईयों की संख्या कैसे गिनने लगे ? कोई
और नज़रिया नहीं था क्या हमारे पास ? क्या
आवश्यक था धर्म के आधार पर जनगणना को इतने बड़े स्तर की ख़बर बनाना ? अंदर से आत्मा ने धिक्कारा
नहीं ? ईद पर बड़े चाव से
सिवईयां खाते हैं, क्रिसमस और न्यू ईयर की पार्टी करते हैं
और फिर इस तरह का जनमत निर्माण करते हुए अपनी ज़िम्मेदारी का एहसास नहीं हुआ हमें ? किसी ने इस ख़बर को छापने का कोई दूसरा तरीका नहीं पाया ? संवेदनाओं के इस देश में हमारी संवेदनायें ऐसी कब हो गईं ? हो सकता
है कि आप सभी विद्व जनों का तात्पर्य वो न
हो जो हम जैसे मूर्ख समझ रहे हों, किन्तु
क्या करें , सभी आप जैसे बुद्धिजीवी तो नहीं । उन्हें तो क्रोध आया ही होगा जो
तथाकथित भक्त हैं और वे आपकी मंशा को पूरा भी कर देंगे । 68 वर्ष पहले तक जो
अंग्रेज़ करते थे, वो अब हम स्वयं अपने साथ कर रहे हैं । अख़बार की ये हेडलाइन्स
तय करने के बाद भी क्या आप सब अपने आस-पास या फिर अपने ही कार्यालय में काम करने वाले किसी सरफ़राज के साथ वैसे ही चाय की चुस्कियों का
मज़ा ले पायेंगे जैसे अब तक लेते आये हैं ? क्या किसी आफ़ताब
की आंखों में अपने लिए वही प्यार देख पायेंगे जो अब तक देख रहे थे या फ़िर आप सबको
इससे कोई असर ही नहीं पड़ता ?
राखी क़रीब है, रानी कर्मवती
की आत्मा भी जब सोचती होगी कि जो हुमाँयू उसका संदेश मिलते ही भागा चला आया था,
उसकी आने वाली पीढ़ियों को इस तरह गिना जायेगा । अग़र ख़बर थी भी तो इसे गौण बनाना
तो आपके हाथ में रहा होगा ना ? क्या ये भी तय करने का अधिकार हमने
इंसानों के चोले वाले भगवानों को सौंप रखा है ?
माना कि पत्रकारिता अब मिशन
नहीं रही, पर क्यों इस पेशे की बची खुची इज़्जत की नीलामी इस क़दर कर रहे हैं हम ! पता नहीं, ये सब हम जैसे नागरिकों की समझ से बाहर है । हम स्वयं को
किंकर्त्व्यविमूढ़ पा रहे हैं । हमारे पास पत्रकारिता का कोई अनुभव नहीं है लेकिन
अग़र अनुभवी और वरिष्ठ पत्रकारों की समझ ऐसी होती है तो हम मूर्ख ही बेहतर हैं ।
हो सकता है कि हमें इस पेशे की बारीकियों की जानकारी न हो इसलिए हम ऐसा कह रहे हों किन्तु क्या करें मन की अकुलाहट और छटपटाहट ने कोई चारा भी नहीं छोड़ा था । यदि
अल्पज्ञता के कारण कुछ भी ग़लत कहा हो तो मैं भारत का एक आम नागरिक क्षमाप्रार्थी हूं । अन्त में ये
पंक्तियां जो बचपन में किसी कक्षा में पढ़ी थीं-
तुम
राम कहो, वो रहीम कहें, दोनों
की ग़रज़ अल्लाह से है।
तुम
दीन कहो, वो धर्म कहें, मंशा
तो उसी की राह से है।
क्यों
लड़ता है मूरख बंदे, यह
तेरी ख़ाम ख़याली है।
है पेड़ की जड़ तो एक वही, हर मज़हब एक-एक डाली है।
है पेड़ की जड़ तो एक वही, हर मज़हब एक-एक डाली है।
मन को यदि सुकुन मिला तो ये देखकर कि देश में चन्द फीसदी लोग ऐसे भी हैं जिनका कोई धर्म नहीं । काश ! पूरा देश ऐसा धर्महीन हो जाता और अपने कर्तव्यों को अपना धर्म बना पाता और आप सब अपना पत्रकारिता धर्म उचित रूप से निभा पाते । इस काश ! की कल्पना कब पूर्ण होगी पता नहीं किन्तु आशा है कि आप भी कभी आत्मावलोकन करेंगे
और अपने उत्तरदायित्व को समझेंगे । भावी पीढ़ियों के लिए रास्ता बनाईये , रास्तों
में संकीर्ण मानसिकता के अवरोध नहीं ।
धन्यवाद ।
प्रार्थी
एक
भारतीय नागरिक
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