(एक संस्मरण)
कुछ पुरानी यादें ताज़ा हो आई हैं- बारहवीं कक्षा में पहली बार मुझे
किसी वाद-विवाद प्रतियोगिता में भाग लेने का अवसर मिला था । मंच बड़ा था- लख़नऊ का
औद्योगिक विषविज्ञान अनुसंधान केन्द्र (ITRC- Formerly known as CDRI) जहां लख़नऊ के मंहगे और नामी विद्यालयों को
निमंत्रण मिला था और सौभाग्यवश हमारे विद्यालय को भी । शहर के उन बड़े
विद्यालयों के सामने ना तो हम कभी खड़े हुए थे, न ही अवसर मिला था । प्रतियोगिता
में विषय-वस्तु की समयावधि भी कम न थी – पूरे 10 मिनट और विषय था – “वैज्ञानिक शोध में
जन्तुओं का प्रयोग उचित अथवा अनुचित” और तो और निमंत्रण इतनी देरी से मिला कि तैयारी
के लिए हमारे पास दो दिन का समय था ।
हमारी एक शिक्षिका महोदया थीं जो बारहवीं में
अंग्रेज़ी पढ़ाती थीं...बहुत ही गुणी और ज्ञानवान थीं, कॉन्वेंट एजुकेटे थीं, हाई
क्लास भी थीं और व्यवहार से काफी सह्रय भी थीं । उन्हें अपने विद्यालय में देखकर
यही महसूस होता था कि हम किसी बहुत मंहगे स्कूल में तो हैं नहीं तो ये मैडम ग़लती
से यहां आ गई होंगी । बहरहाल जब उन्हें इस प्रतियोगिता के विषय में पता चला तो
उन्होंने यही कहा कि तुम लोग बैक आउट कर लो, बड़े-बड़े स्कूल वहां आयेंगे और तुम
लोगों की कोई तैयारी नहीं है तो मैंने उनसे कहा – कोई बात नहीं मैम, बिना सामना
किये मैं हार नहीं मानना चाहती, पहली बार मौक़ा मिला है , कुछ नहीं तो तजुर्बा ही
होगा कि आख़िर उसमें होता क्या है । ये कहकर हम अपनी तैयारियों में लग गए ।
हमें
इतिहास और संस्कृत पढ़ाने वाली हमारी शिक्षिका महोदया ने कुछ आधारभूत जानकारियों
से अवगत कराया कि एक साथी को पक्ष और दूसरे को विपक्ष में अपने मत रखने होंगे ।
फिर क्या था, विषय का विपक्ष जो अधिक कठिन
प्रतीत हो रहा था वो मैंने लिया और अपनी साथी मित्र को पक्ष में बोलने का प्रस्ताव
देकर हम अपनी तैयारियों में जुट
गये....अगले दिन रविवार था जब मैं सुबह 10 बजे से शाम 5 बजे तक पेपर छांटती रही, विषय-वस्तु
तलाशती रही। ऊकरू बैठे-बैठे पैर झिनझिना चुके थे लेकिन इतना वक्त हो जाने के बाद
भी पक्ष में तो विषय-वस्तु और सामग्री मिली किन्तु विपक्ष के लिए काफी कम । ऐसे
में मन का डगमगाना स्वाभाविक था कि मैं अपना पाला बदल दूँ पर मन ये स्वीकृति नहीं
दे रहा था । अगले ही दिन जब अपनी शिक्षिका महोदया को ये बात बताई – मैम पक्ष में
तो इतना सारा कंटेट मिला है मुझे पर विपक्ष में उससे काफी कम है । तब उन संस्कृत
और इतिहास पढ़ाने वाली शिक्षिका महोदया ने मुझे वो विषय-सामग्री मेरी दूसरी साथी
को देने को कहा जो मुझे विषय के पक्ष में मिली थी और तब तो और भी बुरा लगा कि
मेहनत मेरी और फल किसी और को लेकिन मैं ऋणी हूँ उन शिक्षिका महोदया की क्योंकि
उन्होंने मेरे कम विषय-वस्तु और सामग्री को अपनी भाषा से इतनी अच्छी तरह संवारा,सजाया
कि मन में फिर से एक विश्वास भर गया ।
शायद उन्हें पता था कि उनके किस बच्चे में
कम विषय-वस्तु होते हुये भी प्रस्तुति के साथ खेलने का गुण था और किसे ज़्यादा
विषय-वस्तु की ज़रूरत थी । उन्होंने ये भी कहा – “बेटा क्या पता तुम
दोनों हीं पुरस्कार जीत जाओ और विद्यालय का नाम हो, बेटा टीम की तरह जाओ ।” उनकी वो बात दिल को
छू गई और पता नहीं था कि उनके शब्द सत्य सिद्ध हो जायेंगे । मैं और मेरी मित्र
दोनों ने ही पुरस्कार जीता । द्वितीय पुरस्कार मुझे विपक्ष के लिए और तृतीय
पुरस्कार मेरी मित्र को पक्ष के लिए । भले ही हमने प्रथम पुरस्कार नहीं जीता था
लेकिन अधिक पुरस्कार जीत कर विद्यालय को ज़रूर उस दिन आगे खड़ा कर दिया था । यहां
तक कि जूरी के एक सदस्य ने मुझसे आकर ये भी कहा – “बहुत अच्छा बोला ,
अगर सिर्फ मेरे हाथ में होता तो तुम्हें प्रथम पुरस्कार मिलता, टक्कर कांटे की थी ।”
इस
कहानी से सिर्फ यही बताना चाहती हूँ कि दो शिक्षिकाओं का अलग नज़रिया – एक ने पहले
ही हारने को कह दिया था वो उन नेताओं का प्रतीक हैं जिन्हें स्वयं में विश्वास
नहीं है और वो कोशिश ही नहीं करना चाहते कि आख़िर ये पड़ी लकड़ी कौन उठाये लेकिन
वो दूसरी शिक्षिका जिन्होंने न केवल हमें टीम भावना से प्रोत्साहित किया बल्कि
ख़ुद बैठकर हमारी जुटाई चीजों को अपने प्रयासों से सजाया-संवारा,उसे व्यवस्थित किया
और ज़िन्दगी भर के लिए ये सीख दे दी कि जब कई लोग साथ हों तो टीम के बारे में किस
तरह सोचा जा सकता है । किस तरह ख़ुद आगे आकर अपने सदस्यों का हाथ बंटाया जा सकता
है , सिर्फ आदेश नहीं दिया जाता । इसलिए अच्छे नेता का कर्मठ होना असंभव को भी
संभव बना सकता है ।
(और अनुभवों की कहानी.........अगले भाग में....)