Sunday 20 July 2014

हमारा नेता कैसा हो...(भाग-3)


(एक संस्मरण)

कुछ पुरानी यादें ताज़ा हो आई हैं- बारहवीं कक्षा में पहली बार मुझे किसी वाद-विवाद प्रतियोगिता में भाग लेने का अवसर मिला था । मंच बड़ा था- लख़नऊ का औद्योगिक विषविज्ञान अनुसंधान केन्द्र (ITRC- Formerly known as CDRI)  जहां लख़नऊ के मंहगे और नामी विद्यालयों को निमंत्रण मिला था और सौभाग्यवश हमारे विद्यालय को भी । शहर के उन बड़े विद्यालयों के सामने ना तो हम कभी खड़े हुए थे, न ही अवसर मिला था । प्रतियोगिता में विषय-वस्तु की समयावधि भी कम न थी – पूरे 10 मिनट और विषय था – वैज्ञानिक शोध में जन्तुओं का प्रयोग उचित अथवा अनुचित और तो और निमंत्रण इतनी देरी से मिला कि तैयारी के लिए हमारे पास दो दिन का समय था । 
                 
                हमारी एक शिक्षिका महोदया थीं जो बारहवीं में अंग्रेज़ी पढ़ाती थीं...बहुत ही गुणी और ज्ञानवान थीं, कॉन्वेंट एजुकेटे थीं, हाई क्लास भी थीं और व्यवहार से काफी सह्रय भी थीं । उन्हें अपने विद्यालय में देखकर यही महसूस होता था कि हम किसी बहुत मंहगे स्कूल में तो हैं नहीं तो ये मैडम ग़लती से यहां आ गई होंगी । बहरहाल जब उन्हें इस प्रतियोगिता के विषय में पता चला तो उन्होंने यही कहा कि तुम लोग बैक आउट कर लो, बड़े-बड़े स्कूल वहां आयेंगे और तुम लोगों की कोई तैयारी नहीं है तो मैंने उनसे कहा – कोई बात नहीं मैम, बिना सामना किये मैं हार नहीं मानना चाहती, पहली बार मौक़ा मिला है , कुछ नहीं तो तजुर्बा ही होगा कि आख़िर उसमें होता क्या है । ये कहकर हम अपनी तैयारियों में लग गए । 


हमें इतिहास और संस्कृत पढ़ाने वाली हमारी शिक्षिका महोदया ने कुछ आधारभूत जानकारियों से अवगत कराया कि एक साथी को पक्ष और दूसरे को विपक्ष में अपने मत रखने होंगे । फिर क्या था,  विषय का विपक्ष जो अधिक कठिन प्रतीत हो रहा था वो मैंने लिया और अपनी साथी मित्र को पक्ष में बोलने का प्रस्ताव देकर हम अपनी  तैयारियों में जुट गये....अगले दिन रविवार था जब मैं सुबह 10 बजे से शाम 5 बजे तक पेपर छांटती रही, विषय-वस्तु तलाशती रही। ऊकरू बैठे-बैठे पैर झिनझिना चुके थे लेकिन इतना वक्त हो जाने के बाद भी पक्ष में तो विषय-वस्तु और सामग्री मिली किन्तु विपक्ष के लिए काफी कम । ऐसे में मन का डगमगाना स्वाभाविक था कि मैं अपना पाला बदल दूँ पर मन ये स्वीकृति नहीं दे रहा था । अगले ही दिन जब अपनी शिक्षिका महोदया को ये बात बताई – मैम पक्ष में तो इतना सारा कंटेट मिला है मुझे पर विपक्ष में उससे काफी कम है । तब उन संस्कृत और इतिहास पढ़ाने वाली शिक्षिका महोदया ने मुझे वो विषय-सामग्री मेरी दूसरी साथी को देने को कहा जो मुझे विषय के पक्ष में मिली थी और तब तो और भी बुरा लगा कि मेहनत मेरी और फल किसी और को लेकिन मैं ऋणी हूँ उन शिक्षिका महोदया की क्योंकि उन्होंने मेरे कम विषय-वस्तु और सामग्री को अपनी भाषा से इतनी अच्छी तरह संवारा,सजाया कि मन में फिर से एक विश्वास भर गया ।

                     शायद उन्हें पता था कि उनके किस बच्चे में कम विषय-वस्तु होते हुये भी प्रस्तुति के साथ खेलने का गुण था और किसे ज़्यादा विषय-वस्तु की ज़रूरत थी । उन्होंने ये भी कहा – बेटा क्या पता तुम दोनों हीं पुरस्कार जीत जाओ और विद्यालय का नाम हो, बेटा टीम की तरह जाओ उनकी वो बात दिल को छू गई और पता नहीं था कि उनके शब्द सत्य सिद्ध हो जायेंगे । मैं और मेरी मित्र दोनों ने ही पुरस्कार जीता । द्वितीय पुरस्कार मुझे विपक्ष के लिए और तृतीय पुरस्कार मेरी मित्र को पक्ष के लिए । भले ही हमने प्रथम पुरस्कार नहीं जीता था लेकिन अधिक पुरस्कार जीत कर विद्यालय को ज़रूर उस दिन आगे खड़ा कर दिया था । यहां तक कि जूरी के एक सदस्य ने मुझसे आकर ये भी कहा – बहुत अच्छा बोला , अगर सिर्फ मेरे हाथ में होता तो तुम्हें प्रथम पुरस्कार मिलता, टक्कर कांटे की थी

       इस कहानी से सिर्फ यही बताना चाहती हूँ कि दो शिक्षिकाओं का अलग नज़रिया – एक ने पहले ही हारने को कह दिया था वो उन नेताओं का प्रतीक हैं जिन्हें स्वयं में विश्वास नहीं है और वो कोशिश ही नहीं करना चाहते कि आख़िर ये पड़ी लकड़ी कौन उठाये लेकिन वो दूसरी शिक्षिका जिन्होंने न केवल हमें टीम भावना से प्रोत्साहित किया बल्कि ख़ुद बैठकर हमारी जुटाई चीजों को अपने प्रयासों से सजाया-संवारा,उसे व्यवस्थित किया और ज़िन्दगी भर के लिए ये सीख दे दी कि जब कई लोग साथ हों तो टीम के बारे में किस तरह सोचा जा सकता है । किस तरह ख़ुद आगे आकर अपने सदस्यों का हाथ बंटाया जा सकता है , सिर्फ आदेश नहीं दिया जाता । इसलिए अच्छे नेता का कर्मठ होना असंभव को भी संभव बना सकता है ।


(और अनुभवों की कहानी.........अगले भाग में....)

हमारा नेता कैसा हो .. .(भाग-2)


हमारी फौजों में नेता के लिए एक शब्द प्रयुक्त होता है – ऑफिसर लाइक क्वालिटीज़” (OLQ) यानि इन गुणों का एक खांचा तैयार किया गया है और जिसके तहत ऐसा माना जाता है कि ऑफिसर अपने आदेशों के ज़रिए काम कराए और अपने आदेशों को विभाजित करे और सिपाहियों के पास यस सर कह कर उन आदेशों का पालन करने के सिवाय और कोई चारा नहीं होता किन्तु ये पूरा का पूरा खांचा तब से अपनाया और पालित किया जा रहा है जब ब्रिटिश आर्मी हमारे देश में हुआ करती थी । फौज़ के मामलों में ये सही भी है क्योंकि सीमा पर युद्ध के समय ये आवश्यक हो जाता है कि सभी सिपाही और पूरा दल सिर्फ़ अपने अगुआ के आदेश का पालन करें क्योंकि उनका नेता उसी कठिन परीक्षा और ट्रेनिंग से गुज़र कर वहाँ तक पहुँचता है जिससे उसके दल के सिपाही गुज़रे होते हैं । सभी ने शारीरिक रूप से उतनी ही मेहनत की होती है बस फ़र्क उनके मानसिक स्तर में होता है जो उनकी शिक्षा के स्तर के कारण होता है किन्तु समय पड़ने पर ये नेता अपनी जान की बाज़ी लगाने से भी नहीं चूकते ।

 कहने का आशय ये है कि फ़ौजी दुनिया में तो आदेश देने की बात समझ आती है क्योंकि वहां कोई आलसी व्यक्ति शायद ही पहुँच पाये किन्तु बात अगर आम नागरिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों की हो तो नेता को अपने दल से मिलने वाली विभिन्न सलाहों के लिये खुला होना भी आवश्यक है, साथ ही उसका स्वयं मेहनती होना भी आवश्यक है । यदि कोई नेता अपने दल के उन्हीं दो- चार सदस्यों से काम कराता रहे जो बिना उसके कहे भी अपना काम ख़ुशी से कर देते हैं तो ये कोई नेतृत्व क्षमता का परिचय नहीं है । यदि ऐसा नेता अपने इन सदस्यों के मुँह पर इनकी तारीफ़ करे और पीठ पीछे इन्हें गधा समझे तो ये उसकी मूर्खता होगी क्योंकि उस नेता को ये भान नहीं होता कि ये उसके दल के वो सच्चे लोग हैं जिन्हें वास्तव में अपनी ज़िम्मेदारियों का एहसास है । नेताओं को चाहिए कि वो अपनी टीम के आलसी से आलसी व्यक्ति से भी प्यार से काम करवा सके लेकिन ऐसा तभी होगा जब वो स्वयं मेहनती और उत्तरदायी होगा । एक ऊर्जावान और मेहनती नेता की लोग इज़्जत भी करते हैं और उसका अनुसरण भी करते हैं ।
 
मशहूर शायर और लेखक शहऱयार जी कहते थे- किसी बेतरतीब चीज़ को देखकर अग़र आपके दिल में ख़लल पैदा न हो, उसे ठीक करने की बेचैनी ना हो, तो आप कलाकार नहीं हो सकते

और मैं नेता के लिए भी यही बात कहूंगी कि उसे दिल और आत्मा से कलाकार होने की ज़रूरत है, रचनात्मक होने की ज़रूरत है क्योंकि उस पर एक कलाकार से भी बड़ी ज़िम्मेदारी होती है । विभिन्न कलाओं को समेट कर चलने की,सबका सम्मान करने की,सबको ऊर्जा देने की, सही और ग़लत की पहचान करने की । इसलिए एक नेता में विश्नास का होना बेहद आवश्यक है ।   


हमारा नेता कैसा हो.......(भाग-1)

अजीब सवाल है....हमारा नेता कैसा हो ? सबसे पहली बात ये कि आख़िर नेता होता कौन है ? मुझे तो इस शब्द का यही अर्थ पता है कि नेता वो होता है जो नीति का पालन करे, जो नीति से चले वही नेता है । पर क्या हमारे नेता इस शब्द के अर्थ में स्वयं को समाहित कर रहे हैं ? मैं राजनैतिक नेताओं की नहीं वरन् जीवन के हर एक क्षेत्र में नेतृत्व करने वाले व्यक्तियों की बात कर रही हूँ , फिर चाहे वो किसी स्कूल के प्रधानाध्यापक हों , किसी विश्वविद्यालय के कुलपति हों, किसी छात्र संगठन का प्रणेता हो ,किसी सरकारी अथवा ग़ैर-सरकारी महक़मे के अध्यक्ष हों या फिर किसी निजी संस्थान के किसी भी विभाग के उच्च पद पर आसीन लोग.....ये सभी इस नेता शब्द में समाहित होते हैं । जीवन के कुछ क्षेत्रों में तो सर्वसम्मति और लोगों का प्रेम ऐसे लोगों को निर्विरोध अपना अगुआ चुन लेता है जो इस पद के वास्तव में लायक होते हैं किन्तु आज के समय में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो या तो जुगाड़ से या सो कॉल्ड सेटिंग से इस पद को पा लेते हैं और नतीजा ये होता है कि ऐसे नेता किसी भी बात की ज़िम्मेदारी स्वयं नहीं लेते, दूसरों के कंधे पर बंदूक रख कर निशाना साधते हैं । उनके पद और रूतबे के कारण लोग उनका विरोध नहीं कर पाते और अपना गुस्सा अपने सहकर्मियों पर निकाल देते हैं ।

    नेता वो नहीं होता जो अपनी टीम के सदस्यों से ये अपेक्षा करता रहे कि वो उनके समक्ष कोई सुझाव या प्रस्ताव रखें और नेता उन्हें स्वीकार अथवा अस्वीकार करने मात्र के लिए बैठा रहे । एक सही और अच्छा नेता वो है जो ख़ुद इनिशियेटिवले और अपनी टीम से एक क़दम आगे बढ़कर नये विचारों को साझा करे, यदि वो आगे बढ़ कर सामने नहीं आ सकता और पीछे बैठ कर खेल का मज़ा लेना चाहता है तो वो इस पद के बिल्कुल भी लायक नहीं है । नेता वो होता है जो पड़ी लकड़ी उठाता है , नेता वो होता है जिसे अपनी टीम के किसी भी सदस्य के दुख पर दुख होता है, नेता वो होता है जो संज्ञान लेकर क़दम उठाता है और बात को आगे पहुँचाता है, नेता वो होता है जो दूरदर्शी होता है । नेता वो नहीं होता जो ये सोचता हो कि कैसे भी कर के काम होने से मतलब है बल्कि सही नेता ये सोचता है कि काम सही तरीके से, नीति से , नियमों से और स्वच्छ वातावरण में हो जहाँ कोई किसी के लिए द्वेष ना रखे । नेता वो होता है जो अपनी संस्था के कामों में उतनी ही रूचि दिखाये जितनी कि उसके दल में काम करने वाले लोग दिखाते हैं ताकि उसके दल को ये महसूस हो कि उनका नेता काम को लेकर कितना गंभीर है अन्यथा उसका आलसी रवैया पूरे दल को हतोत्साहित और निरूत्साहित कर सकता है । एक अच्छा नेता ख़राब से ख़राब टीम के साथ भी जुझारू प्रदर्शन करने की क़ाबिलियत रखता है और एक आलसी और ग़ैर-ज़िम्मेदार नेता अच्छी से अच्छी टीम को ले डूबता है । 

नेता भी अपनी टीम के सामने आंसू बहा सकता है क्योंकि यदि वो अपने दल के किसी भी सदस्य की किसी परेशानी के लिए ख़ुद को दोषी पाता है तो इसका तात्पर्य यही है कि उसे दूसरों की ख़ुशियों का भी ख़्याल है और वो दिल से दुखी होता है । ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि एक भावनात्मक व्यक्ति में नेतृत्व क्षमता नहीं हो सकती । यदि वो नीयत से नेक है तो हाथ में शक्ति होने पर भी अपने दल की प्रगति के विषय में ही सोचता है ।

         
जारी है...........(भाग-2)....