Tuesday 7 June 2011

" न्यूटन,मार्क्स ,फेसबुक और पत्रकारिता का स्तर "

अधिकांशतः समाज-विज्ञानियों को बारम्बार कला को विज्ञान सिद्ध करने के प्रयास में रत देखा गया है.महान दार्शनिकों और समाज-विज्ञानियों को न जाने विज्ञान से किस प्रकार की प्रतिस्पर्धा रहती है कि समाजशास्त्र हो या दर्शनशास्त्र , इतिहास हो या नागरिकशास्त्र ,भूगोल हो या मानवशास्त्र,कानून हो या नीतिशास्त्र इन सभी सामाजिक शास्त्रों कि तुलना भौतिकी,रसायनशास्त्र,जीव-विज्ञान एवं गणित से करने कि आदत रही है.न जाने क्यों ये समाजशास्त्री कला कि तुलना विज्ञान से कर कर के उसे विज्ञान अर्थात विशेष ज्ञान सिद्ध करने में लगे रहते हैं जो कि सिद्ध करने कि आवश्यकता है ही नहीं क्योंकि कला का भी अपना महत्व है.
                                                                   यदि वैज्ञानिकों की बात करें तो उन्होंने कभी ये सिद्ध करने का प्रयास नहीं किया कि विज्ञान एक कला है जबकि वास्तविकता में विज्ञान और गणित दोनों ही व्यवहारिक रूप से कला हैं.चाहे गणित की ज्यामिति की बात करें या फिर उदहारण के तौर पर महान वैज्ञानिक न्यूटन का गति विषयक तृतीय नियम (Newton's Third Law Of Motion) जिसे हम "क्रिया-प्रतिक्रिया"(action - reaction) के नाम से जानते हैं यह वास्तव में जीवन के गतिशीलता चक्र का एक अहम् हिस्सा है और जीवन केवल विज्ञान नहीं अपितु कला भी है...जीने की कला और न्यूटन का यह नियम सार्वत्रिक है क्योकि यदि क्रिया होगी तो प्रतिक्रिया अवश्य होगी और यदि प्रतिक्रिया होगी तो पुनः "प्रत्युत्तर क्रिया" होगी और इस प्रकार"जीवन प्रक्रिया" प्रगतिशील होगी.(EVERY ACTION HAS AN EQUAL AND OPPOSITE REACTION.) अतः संतुलन हेतु यह आवश्यक है.
                                                                   अब यदि बात करते हैं समाज-विज्ञानी मार्क्स की, तो उनके द्वारा प्रतिपादित "इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या" पर विचार करें तो देखते हैं की वहां भी "वाद-प्रतिवाद  और अंततः संवाद" की स्थितियों का वर्णन मिलता है . अब यदि न्यूटन बनाम मार्क्स का युद्ध छेड़ दिया जाये की दोनों में बेहतर कौन है तो यह कह पाना कठिन होगा की श्रेष्ठ कौन है ,क्योंकि दोनों का अपना एक महत्व है और इस युद्ध में हानि समाज की ही होगी क्योंकि यदि दो श्रेष्ठतम और महानतम लोग यदि "स्वस्थ वाद-विवाद"   नहीं करते तो परिणाम वही होता है जो भारतीय  राजनीति में "पक्ष -विपक्ष" होते हुए भी आज तक होता रहा है क्योंकि श्रेष्ठ लोगों ने कभी "स्वस्थ तर्क-वितर्क" में भाग ही नहीं लिया. 
                                                                        देशहित पर राजनीतिक चर्चा करने की बजाय नृत्य की "सुषमा"  पर "स्वराज" का अपमान करने के आरोप की "दिग्विजय " पताका आज पक्ष द्वारा फहराई जा रही है,परन्तु तिरंगा न जाने कहाँ लहरा रहा है या सिमटा जा रहा है.
                                                                        "वाद-विवाद" और "क्रिया -प्रतिक्रिया" का सिलसिला जंतर-मंतर,रामलीला मैदान,प्रेस-कांफ्रेंसों  में जूता  चलने से लेकर फेसबुक से होता हुआ रेडियो,टी.वी. अखबारों से गुजरता हुआ ,संसद की खाक छानता  हुआ अंततः विश्व  की सुरक्षा- परिषद्  तक जारी है जो की बन चुकी अब एक कैंसर ग्रसित बीमारी है क्योंकि यह "वाद-विवाद"(DEBATE) अब स्वस्थ नहीं रहा.
                                                                          आज सत्य को सिद्ध करने के लिए भी साक्ष्य की आवश्यकता है और "आवश्यकता अविष्कार की जननी है" और "व्यर्थ की आवश्यकतायें भ्रष्टाचार की जननी हैं" .कल राम ने सीता की पवित्रता की "अग्नि-परीक्षा" ली थी परन्तु आज बदनाम "पारखी सावंत" का स्वयंवर रचाने  स्वयं "राम" कपूर बन कर जलने आते हैं और वरों  की खोज में परीक्षा रचाते हैं.,,तो वहीँ दूसरी तरफ अग्नि वेश जी अग्नि जलाते नज़र आते हैं.
                                                                           एक मुद्दे पर दो प्रकार की प्रतिक्रियाएं भी इसी  "क्रिया -प्रतिक्रिया" और वाद-विवाद" का कारन  हैं.इतिहास के  पन्नों पर नरम एवं गरम दल के नाम अंकित हैं परन्तु आज समय "उग्र तथा  शांत के एक हो जाने का है और आवश्यकता भी यही है क्योंकि "व्यक्तिगत-हित" से कहीं सर्वोपरि "राष्ट्र-हित" है.आज जब स्वयं दो श्रेष्ठ व्यक्ति "योग" की साधना तथा "समाज सेवा की भावना " को एक कर करीब आते दिख रहे हैं तो हमें भी "गुट -निरपेक्ष" होते हुए एक हो जाने की आवश्यकता है.
                                                                            अंत में बात करते हैं पत्रकारिता के गिरते हुए स्तर की ,तो ये हम सब ने पढ़ा है कि "साहित्य समाज का दर्पण होता है " और दर्पण कभी झूठ  नहीं बोलता. यदि पत्रकारिता पर यह आरोप लगता है की इसका स्तर  गिरा है तो इसके लिए हम,आप और ये समाज बराबर का उत्तरदायी है क्योंकि हमने चाटुकारिता  के स्तर को बढ़ा   कर पत्रकारिता के स्तर को गिराने में सहयोग किया है और ये वही बोलता है जिससे इसकी रोटी सिक जाए और दलील ये देता है की"जो दीखता  है वो बिकता है" अन्यथा पत्रकारिता का स्तर तो इतना उच्च है की इसके समक्ष सब कुछ तुच्छ हो सकता है.अतः आज न्यूटन  और मार्क्स ,बाबा और हजारे,कला और विज्ञानं और अंततः हमारे और आपके संगम की आवश्यकता है.साथ मिल कर एक हो जाने की आवश्यकता है. अतः मेरा आप सभी से विनम्र निवेदन है की "बीती ताहि बिसार दे आगे की सुध ले ",स्वस्थ वाद-विवाद","क्रिया -प्रतिक्रिया" तथा   "वाद- प्रतिवाद"  में सब मिल जुल कर भाग लीजिये तथा अपने देश,अपने समाज और गिरती पत्रकारिता के  स्तर को ऊंचा उठाने में सहयोग कीजिये. धन्यवाद.

Monday 6 June 2011

RJ "हार-जीत" उर्फ़ कमलेशदास ओमप्रकाश मेहरा के नाम सुन्दरम का लव-लैटर "

सेवा में,
उदघोषक महोदय,
लखनऊ.
                 महोदय आपसे सविनय निवेदन है कि "ये मेरा प्रेम-पत्र पढ़ कर कि तुम नाराज़ न होना कि तुम मेरी जिंदगी हो...कि तुम मेरी बंदगी हो...." सर्वप्रथम ये गीत आपको समर्पित.आगे सब कुशल मंगल से है क्योंकि कल तीसरा बड़ा मंगल है,अतः सब बजरंगबली की कृपा है. आगे आपको सूचित किया जाता है की हमारे देश भारत में हर व्यक्ति के लिए अपना कार्य निर्धारित है और उसे उस कार्य के  अतिरिक्त अन्य कार्य नहीं  करने  चाहिए.
उदहारण के  तौर पर यदि  योगगुरु को केवल योगासन से ही मतलब रखने की सलाह दी जा रही है और कहा जा रहा है कि उन्हें  राजनैतिक आसन नहीं  कराने चाहिए  तो इस प्रकार से तो एक मनोरंजनकर्ता (entertainer) को भी केवल मनोरंजन आसन करना चाहिए,उदघोषणा आसन करना चाहिए,उसे स्वयं से जुडी  जनता का "राजनीतिक मनोरंजक ज्ञानवर्धन" करने की क्या आवश्यकता? "जो हो रहा है वो ग़लत है और जो शनिवार की रात हुआ वो और भी ग़लत  था" , तो फिर सही क्या है? और कौन करेगा?
                                                            जब अन्ना महोदय ने जंतर पे मंतर चलाया तब भी लोग अपनी झाड़ -फूँक कराने "डेल्ही-बेल्ही" पहुंचे थे अब अग़र लोग रामलीला मैदान में अपनी "सीता"(India की white money) को रावण(corrupt - people )  और उसकी लंका (swiss - Bank ) के  चंगुल से बचाने पहुँच गए तो क्या ग़लत किया? हम तो कुछ करते नहीं पर जो कर रहे हैं उन्हें भला हम दोषी क्यों ठहरा  रहे हैं? यदि ये सत्य है की "अनशन" से राजनीति का कोई "junction " नहीं बदलने वाला तो ये भी सच  है की चुप बैठे रहने से भी कुछ नहीं बदलने वाला. आज  इस बात का एहसास हुआ की "यू.पी.  बोर्ड" सबसे कठिन बोर्ड है,आज "Greenathon" की अच्छाई  दिखी तो "CCL(सेलेब्रिटी क्रिकेट लीग)" की  समाज-सेवा की भावना याद आई,,,आज बहुत सारी अच्छी  बातें हुईं ,उन सब बातों पर चर्चा हुई जो इस बवाल में खो गई सी लगती थी पर सच तो ये है की जिनका आज रिजल्ट आना था उन्हें उसका इंतज़ार था...जिन्ही सेलेब्रिटी मैच देखना था उन्होंने कल भी देखा और जिन्हें समाज- सेवा की भावना "Greenathon " में देखनी थी उन्होंने वो भी देखा...तो ये कहना ग़लत है कि  ये बातें  खो गईं.इन सब बातों से याद आया की जब अन्ना जी अनशन पर बैठे थे तो हमे सिवाय "India Against Corruption" के कुछ भी याद नही था .हम दिन भर एक दिए गए नम्बर  पर miscall  देकर अन्ना जी के सत्याग्रह का साथ देने की अपील  करते और सुनते पाए गए. उस दिन हमे और बातें क्यों छोटी लगीं उस अनशन के सामने?"अन्ना जी ने भी तो यही रास्ता अपनाया था,फर्क सिर्फ इतना है कि  उनका मुद्दा लोकपाल तक सीमित था और बाबा जी का मुद्दा  थोडा बड़ा रहा...जो बातें उसमे सही नही थी उन पर भी एक बार विचार कर बदलाव के बारे में सोचा जा सकता था..पर पर उनके तरीके का इतना विरोध क्यों?
                                      न ही हमें योग का शौक है न ही योग करने का समय और न ही कल तक रामदेव जी से खासा फर्क पड़ता था पर उनसे जुड़े इतने सारे देशवासियों से फर्क पड़ता है..हमें भी और आपको भी...हम सबको. मुद्दा ये है की हम अन्ना जी और रामदेव जी के  मामले में दोहरा रवैया   क्यों अपना रहे हैं जबकि दोनों के तरीके लगभग एक ही हैं..अग़र ग़लत ही ठहराना  था तो उस समय अन्ना जी को भी ग़लत ठहरा देते तब भी समझ आता की  चलो हमें परिवर्तन ही  नहीं चाहिए.
                                      चलिए  हम  ये भी  मान लेतें  हैं की रामदेव जी जो कर रहे हैं या कह रहें हैं वो बिलकुल भी व्यवहारिक  (practical) नही है शायद इसीलिए इतनी मुश्किलें आ रही हैं और आती रहेंगी क्योंकि "आदर्श-राज्य"(Ideal -state) तो केवल "Utopiya "  जैसी किताबों में ही संभव है..वास्तव में नहीं.१००% खरा सोना वो भी बिना मिलावट उपलब्ध नही हो सकता पर ९४ कैरेट गोल्ड पाने की कोशिश तो की जा सकती है."हम हर उस भारतीय का साथ हर उस बात के लिए देंगे जो हमारे देश के हित में है.हम ये नहीं कहते कि   बाबा जी को सत्ता थमा दो पर जिन्हें थमाई है उन्हें थमा कर भी कोई गर्व करने वाला काम नही किया हमने.लोग विवादास्पद (controversial ) मुद्दों पर बोलने से बचते हैं, सबकी जुबां  पे ताले pad जाते हैं पर चाहते हैं कि  देश सुधर जाये.
                         मैं कमलेश जी को ये प्रेम-पत्र कभी नही लिखती क्योंकि वो खुद को रोमांस में पांचवी अनुत्तीर्ण (fail ) जो कहते हैं..पर आज अच्छी -अच्छी  बातों के गुलाब के गुलदस्ते के साथ जो वो एक बड़ा सा काँटा ("जो हो रहा है वो ग़लत है........ग़लत था.") उन्होंने बार-बार चुभोया उससे दर्द हुआ. क्या दिल्ली-पुलिस अपनी मर्ज़ी से वो सब करने पहुंची थी बिना किसी आदेश जो आप उन्हें प्रेम-पत्र लिख कर सत्याग्रह कर रहे थे.इसके पीछे का सच और असली ज़िम्मेदार को तो आप भी जानते हैं फिर बेचारी दिल्ली -पुलिस को अकेले दोषी ठहराने   का क्या फायदा? 
            वर्ल्ड-कप के बाद आज ये सोच कर रेडियो खोला था की कुछ नया मिलेगा पर कमलेश जी से ये उम्मीद नहीं थी की वो ऐसा गुलाब देंगे.श्रीमान हम आपसे प्रेम करते हैं परन्तु इस प्रेम की ऐसी परीक्षा तो मत लीजिये.ऐसा गुलाबों का गुलदस्ता देने से तो अच्छा होता की आप चमेली  का फूल थमा देते या फिर अपने इश्क का इज़हार-ए -बयान ही न करते . आपका एक उत्तरदायित्व  है जो हमसे कहीं ज्यादा है क्योंकि आपके पास एक माध्यम (मीडियम) है लोगों तक पहुँचने का तो बेहतर तो ये होगा की आप सरकारी रेडियो चैनल्स     की तरह केवल सकारात्मक बातें करें और उन्ही मुद्दों को अपने कार्यक्रम में शामिल करें,उसके अतिरिक्त कुछ भी नही पर तब आपको टी.आर.पी. की चिंता भी घेर सकती है.अग़र आपने आज बार-बार अपनी बात दोहराई न होती तो शायद मैं  ये पत्र कभी न लिखती पर क्या करूँ रोक नही पायी अपना इज़हार-ए- इश्क  क्योंकि भारत की मिटटी से प्यार करती हूँ.अग़र आप पूछेंगे कि  मैंने इसके लिए क्या किया तो मैं कहूँगी कि  अग़र कुछ अच्छा नही तो कुछ बुरा भी नहीं किया.इसके लिए अग़र  मैंने आज तक आवाज़ नही उठाई तो आवाज़ उठाने वालों को ग़लत भी नहीं ठहरा सकी. न मेरे पास खोने के लिए नौकरी है,न ही काले धन के पकडे जाने का dar ,न रिश्वत  और घूसखोरी में पकडे जाने की शंका,न मैं  अनशन पर बैठी हूँ,न ही बैठूंगी,पर जो बैठा है उसे ग़लत भी नहीं कहूँगी क्योंकि मैं  एक किन्कर्त्व्यविमूध  (kaamchor ) नागरिक हूँ जिसने  केवल अपने घर-परिवार और करियर तक ही सोचा देश के लिए न तो कुछ किया है अब तक और न ही अभी इतना साहस  है कि  ऐसा  कुछ कर सकूँ  पर जो कर रहा है कम  से कम  उस पर उंगली  तो नहीं उठा  सकती. 
                                    आपसे दिल  की बात इसलिए  कह दी क्योंकि आप  पर अपना कुछ हक  समझते  हैं क्योंकि आप हमारे बीच  हैं और हम सब के करीब  भी,वरना  दिग्विजय  सिंह  से तो हमारा  कोई नाता  है नहीं और न ही कपिल  सिब्बल  जी से और वो लोग जब इतने सारे  लोगों की आवाज़ यूँ  ही दबा  सकते है तो फिर हम   किस  खेत  की मूली  हैं. आज आपने  पहली  बार हमें मौका दिया  है और साथ ही तरीका भी आपने ही सिखाया  है की कैसे  आपसे इज़हार-ए-इश्क किया जाए  .आपसे बहुत  कुछ सीखा   है और सीखती  रहूंगी  और हमारा  प्यार इतना कमज़ोर  नहीं की इतनी आसानी  से ये रिश्ता टूट  जाये, बिलकुल नहीं.आप कल भी हमारे चहीते  "Subahman" थे आज भी हैं और कल भी रहेंगे .इस बहस  में "हार -जीत " चाहे जिसकी हो पर हमने बड़ी किस्मत से आपको "अर्जित " किया है और आप हमारे ही रहेंगे .आशा  करती हूँ की आप मेरा प्रेम-पत्र पढ़ कर कूड़ेदान  (dustbin )  में तो नहीं डालेंगे . 
"जय हिंद ,जय  भारत"
                                                                                                                                         आपकी  अपनी
                                                                                                                                          मिर्ची  तानपुरी 
                                                                                                                                             "सुन्दरम "