Wednesday 26 October 2011

ओजस्विनी की कहानी (भाग-२)

मित्रों आज दीपावली है...सारा संसार खुशियाँ मना रहा है. जहाँ भी हमारे भारतीय जन प्रसृत हैं वहां दीपों की छठा  दर्शनीय है.,परन्तु आज भी क्या ओजस्विनी खुश है???? जिसके नाम में ही असीमित प्रकाश समाया हुआ है वो आज भी विचलित क्यों हैं? क्या ओजस्विनी इस दीपोत्सव में स्वयं को प्रकाशमान पा रही है ? इससे पहले मैंने आपको ओजस्विनी के मित्र -प्रेम की कथा के  एक अंश से परिचित कराया था आज उसकी कहानी का एक और अंश प्रस्तुत है आपके समक्ष .यदि आप उसके पहले के जीवन से रूबरू होने के इक्षुक हों तो आदेश करियेगा.मैं आपके समक्ष उन अंशों का भी वर्णन करुँगी   .आएये जानते हैं आज की  उसकी मनोदशा उसकी ही ज़बानी...


                                                         ओजस्विनी  और  दीपोत्सव 

आज हूँ विह्वल , आज हूँ व्याकुल ,
जग सारा है उज्ज्वल -उज्जवल,
दीपों की है छठा निराली,
सबकी जगमग है दिवाली,
जीवन से सबके तम हरने,
आई है समृद्धि, खुशहाली , 
ओज हूँ मैं,तेज हूँ मैं,
पर फिर क्यूँ निस्तेज हूँ मैं?
मेरी व्याकुलता का रहस्य क्या.. 
कोई बता दे क्यूँ मैं विस्मृत हूँ?
क्या सच में सब मंगलमय है?
क्या सबके  जीवन में अरुणोदय है?
कहीं कोई पैसों से खेले,कहीं किसी को मिलती गाली..
कैसी है ये दिवाली?
देश मेरा क्यूं भ्रष्ट हो रहा?
प्राण मेरा निस्तेज हो रहा...
कहाँ प्रणय-सौंदर्य है मेरा?
 आज मेरा क्यूँ ह्रदय रो रहा?
पंछी  की कुंजन भी काली..
दिखती नहीं चहक की लाली, 
ये कैसी है कहो दिवाली?
मेरा प्रियतम पूछे न मुझको....
वैसे तुम सब भूले मुझको..
अब मुझको तम ही तम दिखता.
महंगाई ने जान निकाली...
सड़कों पर सोई हूँ मैं.. 
न है ज़मीन पैरों तले ,
न है सर पे छत  की थाली ..
तुम्ही कहो सौंदर्य -प्रणय..
तुम बिन कैसे हो दिवाली?
मिटटी  के दीपक सूने हैं..
बिन बाती ,बिन घी के खाली...
तुम्ही कहो सौंदर्य-प्रणय मेरे..
तुम बिन कैसे हो दिवाली?
मैं  बैठी हूँ इसी प्रतीक्षा में,
तुम आओगे तम हरने को ,
मुझमे नव साहस  भरने को ... 
चूम लोगे मस्तक को मेरे,
कर लोगे आलिंगन  मेरा..
हर लोगे हर विकृति  को मेरी..
मेरे आँचल का हर प्राणी जब खुश होगा ,
देश में जब होगी खुशहाली ...
तब होगा मेरा दीपोत्सव
गर्व से कहूँगी मैं ,
मैं  तेरी ओजस्विनी हूँ!!!


Monday 24 October 2011

"ओजस्विनी" की कहानी

दोस्तों आज जिस "ओजस्विनी" की कहानी मै आप सबको सुनाने जा रही हूँ  उसका जन्म आज से दो वर्ष पहले मेरी कल्पनाओं में हुआ. वो न जाने कब से उदास थी,जैसे कुछ खो दिया था उसने ....लेकिन खोकर भी पाने का एहसास उससे बेहतर कोई नहीं जनता था. उसने अपनी पिछली जिंदगी को "अधूरी कहानी..... एक पूरा एहसास"  कहा है,पर आज मै उस अधूरी कहानी की बात नहीं करूंगी क्योंकि आज मै ओजस्विनी के उल्लास का वर्णन करना चाहती हूँ.
                       तवारीख़ २० अगस्त २०१०,दिन शुक्रवार ...अरे आज तो जुम्मे का दिन है....एक पाक़ दिन और आज इस नेक की दुआ कुबूल हो गई हो जैसे. आज वो बहुत खुश है..क्यों???? आएये उसी की ज़बानी सुन लेते हैं......

                                                       " ओजस्विनी एक बंदिनी "


आज मै बहुत खुश हूँ,तुम्हें पाकर  अपने पास,
वहीँ जहाँ कल बैठी थी तेरी प्रतीक्षा में,
अनवरत मैं उदास ,
तेरी राह जोहती,
बाट निहारती , ख़ुद का करती उपहास,
मिल "सन्नाटे" के साथ !
मैं तेरी ओजस्विनी हूँ!
आज मै बहुत खुश हूँ , तुम्हें पाकर अपने पास.....
तुम्हें देख पाने की उम्मीद धुंधली  पड़  चुकी थी,
मेरी आँखें भी आंसुओं से सूनी  पड़  चुकी थी...
पर रह-रह कर एकत्रित जल नेत्रों से गिर पड़ता था,
जैसे नल की टोंटी में बचा हुआ पानी,
जो कहता था खाली टंकी  की कहानी.
नेत्रों में स्वाभाविक काजल नज़र आता था ,
जो जागती रातों की कहानी सुनाता था,
तेरे न आने तक मैं सब पे बिगडती थी, 
ख़ुद पर खीझती और चिल्लाती थी ,
पर आज मानो  अचानक मेरे ह्रदय ने,
तेरे दूर पड़ते क़दमों की आहट सुन ली थी ,
और थके हुए चेहरे पर मुस्कुराहट ने जगह ली थी,
ज्यों ही मैं निकली एक कक्ष से बाहर, 
तू  मुझसे  टकराया,
और मेरे नेत्रों की टोंटी का जल पलकों के पात्र  तक उमड़ आया,
पर मेरे अधरों पर एक स्वछंद हंसी तैर रही थी ,
शब्द अन्दर ही अन्दर सिमट जाना चाहते थे. 
उस क्षण मैंने कब अनजाने ही तेरा हाथ थाम  लिया,
तुझे किसी से मिलने भी न दिया,
बस जी चाहता था की  इस पल में कोई दखल न दे, हमें चंद लम्हों के लिए अकेला कर दे,
मै तुझसे कुछ न कहूँ और तू मेरी ख़ामोशी को पढ़ ले ,तूने  मेरे शब्दों के उतावलेपन को देखा था,
ऐसा जान पड़ता था मानो लबालब भरा कोई पात्र था,जो ख़ुद को तुम पर उडेलना चाहता था ,
                              अवसर पाकर एक नवागंतुक मित्र को हम राह दिखाने चले थे,
                               लौटती सड़क पर हमें कुछ पल अपने मिले थे ,
                               जहाँ मैं तुम्हें सुन रही थी ,तेरे साथ चल रही थी ,
                               कुछ मैं भी कह रही थी और राह थम गई ,
                               हम चंद पलों में फिर उस कक्ष में थे ,
                               जहाँ कुछ क्षण पहले मै थी,सब थे,
                                पर अब तुम भी थे.
मेरी ख़ुशी आज सबने देखी  थी,
थकी आँखों की चमक, मेरे शब्दों में चहक,
 आज सबने सुनी थी , 
ऐसा लगता था जो कली  दो दिन पहले मुरझा गई थी,
उसे आज शायद नयी जिंदगी  मिली थी...
वो कुछ खिली -खिली  थी ,
कुछ और वक़्त तेरे साथ बिता पाती ,
यही सोच कर आज तेरे संग चली थी ,
उस दिन संध्या के अंतिम प्रहर में ,रात्रि के चढ़ते शिखर में,
हमने चाय के नुक्कड़ की तलाश की ,
कई सड़कों -चौराहों की खाक छानती,
अंत में एक जगह मिली,
जहाँ न शोर था,न ही "सन्नाटा",
                                          आज वहां बस हलचल थी,
                                          सन्नाटे की वो प्रेमिका,
                                          आज हम दो दोस्तों के बीच चली आई थी,
                                          हम चाय के पात्र हाथों में थामे अपनी बातें सुना रहे थे,
                                           कुछ नगमें  जो अनसुने थे ,                                                                           
                                           जल्दी में गा रहे थे ,
                                           चंद लम्हों में महीनो की बातें समेट  देना चाहते थे,
                                            पर तुम न जाने क्यूँ,आज भी कतरा रहे थे,
                                             तुम्हारी नज़रें जैसे ख़ुद को दोषी मान रही थी ,
                                             पर नहीं मित्र ,दोषी न तुम थे,न हम थे,
                                                 दोषी तो वो भाग्य है ,जिसने मेरे मन में तुम्हारे  लिए प्रेम भर दिया था,
ये जानकर भी की तुम मेरे नहीं हो सकोगे,
शायद वो तुम्हारी  इस "ओजस्विनी " से ईर्ष्या  की  भावना रखता था ,
पर वो शायद नहीं जानता था की "ओज" अपने "सौंदर्य" को पा लेगी ,  
प्रेम के कई रूप हैं ,मित्र-प्रेम एक चरम प्रेम है,
जिसकी बंदिनी ओजस्विनी बन चुकी थी ,
आज सौंदर्य ने उसे जीवन पर्यंत अपनी मित्रता की बंदिनी  बना लिया था ,
जहाँ केवल मानसिक,हार्दिक,मानवीय, पवित्र -प्रेम था .
                                                जहाँ विचारों का प्रेम था,भावनाओं का बंधन था,
                                                 जहाँ लेशमात्र भी भौतिकता न थी ,
                                                 जहाँ बस मधुर स्मृतियों का आलिंगन था ,
                                                  मैं "ओजस्विनी" अपने "सौंदर्य " को निहार रही थी ,
                                                  जिसे कभी मैंने प्रेयसी बन प्रेम किया था अपनी भावनाओं से,
अपेक्षित समयावधि से अधिक संग मिल चुका  था तुम्हारा ,
मुझे तो बस इन स्मृतियों का ही है सहारा,
आज मै बहुत खुश हूँ ,तुम्हें पाकर अपने पास ,
शायद यही हो मेरे जीवन का किनारा ,
जहाँ तुम हो मेरे पास,
स्मृतियों के साथ ,स्मृतियों के साथ.         
  
               

  
   








Friday 30 September 2011

क्योंकि मैं इस बाग़ से प्यार करती हूँ .....

अब भी न जाने क्यों ,सुकूँ मुझे मिला नहीं...
खोया हुआ है अब भी,मेरी रूह का अदब..
की रात चाँद से हस के, थी चांदनी मिली...
फिर भी समझ ना आया ,मातम का कुछ सबब,
सबके दिलों में प्यार की एक आग थी जगी,
पर कौन है जो उस पर पानी गिरा रहा,
हँसते हुये इक बाग को,है क्यों जला रहा ?
कौन है वो, जो खिलने नहीं देता प्यार की कलियों को,
क्यों जलन के काँटे सबको चुभा रहा,
मैं देख नहीं सकती इन फूलों को टूट कर मुरझाते हुये,
इसलिये आज अपना दामन तार-तार करती हूँ......,
क्योंकि मैं इस बाग से बहुत प्यार करती हूँ।



Tuesday 7 June 2011

" न्यूटन,मार्क्स ,फेसबुक और पत्रकारिता का स्तर "

अधिकांशतः समाज-विज्ञानियों को बारम्बार कला को विज्ञान सिद्ध करने के प्रयास में रत देखा गया है.महान दार्शनिकों और समाज-विज्ञानियों को न जाने विज्ञान से किस प्रकार की प्रतिस्पर्धा रहती है कि समाजशास्त्र हो या दर्शनशास्त्र , इतिहास हो या नागरिकशास्त्र ,भूगोल हो या मानवशास्त्र,कानून हो या नीतिशास्त्र इन सभी सामाजिक शास्त्रों कि तुलना भौतिकी,रसायनशास्त्र,जीव-विज्ञान एवं गणित से करने कि आदत रही है.न जाने क्यों ये समाजशास्त्री कला कि तुलना विज्ञान से कर कर के उसे विज्ञान अर्थात विशेष ज्ञान सिद्ध करने में लगे रहते हैं जो कि सिद्ध करने कि आवश्यकता है ही नहीं क्योंकि कला का भी अपना महत्व है.
                                                                   यदि वैज्ञानिकों की बात करें तो उन्होंने कभी ये सिद्ध करने का प्रयास नहीं किया कि विज्ञान एक कला है जबकि वास्तविकता में विज्ञान और गणित दोनों ही व्यवहारिक रूप से कला हैं.चाहे गणित की ज्यामिति की बात करें या फिर उदहारण के तौर पर महान वैज्ञानिक न्यूटन का गति विषयक तृतीय नियम (Newton's Third Law Of Motion) जिसे हम "क्रिया-प्रतिक्रिया"(action - reaction) के नाम से जानते हैं यह वास्तव में जीवन के गतिशीलता चक्र का एक अहम् हिस्सा है और जीवन केवल विज्ञान नहीं अपितु कला भी है...जीने की कला और न्यूटन का यह नियम सार्वत्रिक है क्योकि यदि क्रिया होगी तो प्रतिक्रिया अवश्य होगी और यदि प्रतिक्रिया होगी तो पुनः "प्रत्युत्तर क्रिया" होगी और इस प्रकार"जीवन प्रक्रिया" प्रगतिशील होगी.(EVERY ACTION HAS AN EQUAL AND OPPOSITE REACTION.) अतः संतुलन हेतु यह आवश्यक है.
                                                                   अब यदि बात करते हैं समाज-विज्ञानी मार्क्स की, तो उनके द्वारा प्रतिपादित "इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या" पर विचार करें तो देखते हैं की वहां भी "वाद-प्रतिवाद  और अंततः संवाद" की स्थितियों का वर्णन मिलता है . अब यदि न्यूटन बनाम मार्क्स का युद्ध छेड़ दिया जाये की दोनों में बेहतर कौन है तो यह कह पाना कठिन होगा की श्रेष्ठ कौन है ,क्योंकि दोनों का अपना एक महत्व है और इस युद्ध में हानि समाज की ही होगी क्योंकि यदि दो श्रेष्ठतम और महानतम लोग यदि "स्वस्थ वाद-विवाद"   नहीं करते तो परिणाम वही होता है जो भारतीय  राजनीति में "पक्ष -विपक्ष" होते हुए भी आज तक होता रहा है क्योंकि श्रेष्ठ लोगों ने कभी "स्वस्थ तर्क-वितर्क" में भाग ही नहीं लिया. 
                                                                        देशहित पर राजनीतिक चर्चा करने की बजाय नृत्य की "सुषमा"  पर "स्वराज" का अपमान करने के आरोप की "दिग्विजय " पताका आज पक्ष द्वारा फहराई जा रही है,परन्तु तिरंगा न जाने कहाँ लहरा रहा है या सिमटा जा रहा है.
                                                                        "वाद-विवाद" और "क्रिया -प्रतिक्रिया" का सिलसिला जंतर-मंतर,रामलीला मैदान,प्रेस-कांफ्रेंसों  में जूता  चलने से लेकर फेसबुक से होता हुआ रेडियो,टी.वी. अखबारों से गुजरता हुआ ,संसद की खाक छानता  हुआ अंततः विश्व  की सुरक्षा- परिषद्  तक जारी है जो की बन चुकी अब एक कैंसर ग्रसित बीमारी है क्योंकि यह "वाद-विवाद"(DEBATE) अब स्वस्थ नहीं रहा.
                                                                          आज सत्य को सिद्ध करने के लिए भी साक्ष्य की आवश्यकता है और "आवश्यकता अविष्कार की जननी है" और "व्यर्थ की आवश्यकतायें भ्रष्टाचार की जननी हैं" .कल राम ने सीता की पवित्रता की "अग्नि-परीक्षा" ली थी परन्तु आज बदनाम "पारखी सावंत" का स्वयंवर रचाने  स्वयं "राम" कपूर बन कर जलने आते हैं और वरों  की खोज में परीक्षा रचाते हैं.,,तो वहीँ दूसरी तरफ अग्नि वेश जी अग्नि जलाते नज़र आते हैं.
                                                                           एक मुद्दे पर दो प्रकार की प्रतिक्रियाएं भी इसी  "क्रिया -प्रतिक्रिया" और वाद-विवाद" का कारन  हैं.इतिहास के  पन्नों पर नरम एवं गरम दल के नाम अंकित हैं परन्तु आज समय "उग्र तथा  शांत के एक हो जाने का है और आवश्यकता भी यही है क्योंकि "व्यक्तिगत-हित" से कहीं सर्वोपरि "राष्ट्र-हित" है.आज जब स्वयं दो श्रेष्ठ व्यक्ति "योग" की साधना तथा "समाज सेवा की भावना " को एक कर करीब आते दिख रहे हैं तो हमें भी "गुट -निरपेक्ष" होते हुए एक हो जाने की आवश्यकता है.
                                                                            अंत में बात करते हैं पत्रकारिता के गिरते हुए स्तर की ,तो ये हम सब ने पढ़ा है कि "साहित्य समाज का दर्पण होता है " और दर्पण कभी झूठ  नहीं बोलता. यदि पत्रकारिता पर यह आरोप लगता है की इसका स्तर  गिरा है तो इसके लिए हम,आप और ये समाज बराबर का उत्तरदायी है क्योंकि हमने चाटुकारिता  के स्तर को बढ़ा   कर पत्रकारिता के स्तर को गिराने में सहयोग किया है और ये वही बोलता है जिससे इसकी रोटी सिक जाए और दलील ये देता है की"जो दीखता  है वो बिकता है" अन्यथा पत्रकारिता का स्तर तो इतना उच्च है की इसके समक्ष सब कुछ तुच्छ हो सकता है.अतः आज न्यूटन  और मार्क्स ,बाबा और हजारे,कला और विज्ञानं और अंततः हमारे और आपके संगम की आवश्यकता है.साथ मिल कर एक हो जाने की आवश्यकता है. अतः मेरा आप सभी से विनम्र निवेदन है की "बीती ताहि बिसार दे आगे की सुध ले ",स्वस्थ वाद-विवाद","क्रिया -प्रतिक्रिया" तथा   "वाद- प्रतिवाद"  में सब मिल जुल कर भाग लीजिये तथा अपने देश,अपने समाज और गिरती पत्रकारिता के  स्तर को ऊंचा उठाने में सहयोग कीजिये. धन्यवाद.

Monday 6 June 2011

RJ "हार-जीत" उर्फ़ कमलेशदास ओमप्रकाश मेहरा के नाम सुन्दरम का लव-लैटर "

सेवा में,
उदघोषक महोदय,
लखनऊ.
                 महोदय आपसे सविनय निवेदन है कि "ये मेरा प्रेम-पत्र पढ़ कर कि तुम नाराज़ न होना कि तुम मेरी जिंदगी हो...कि तुम मेरी बंदगी हो...." सर्वप्रथम ये गीत आपको समर्पित.आगे सब कुशल मंगल से है क्योंकि कल तीसरा बड़ा मंगल है,अतः सब बजरंगबली की कृपा है. आगे आपको सूचित किया जाता है की हमारे देश भारत में हर व्यक्ति के लिए अपना कार्य निर्धारित है और उसे उस कार्य के  अतिरिक्त अन्य कार्य नहीं  करने  चाहिए.
उदहारण के  तौर पर यदि  योगगुरु को केवल योगासन से ही मतलब रखने की सलाह दी जा रही है और कहा जा रहा है कि उन्हें  राजनैतिक आसन नहीं  कराने चाहिए  तो इस प्रकार से तो एक मनोरंजनकर्ता (entertainer) को भी केवल मनोरंजन आसन करना चाहिए,उदघोषणा आसन करना चाहिए,उसे स्वयं से जुडी  जनता का "राजनीतिक मनोरंजक ज्ञानवर्धन" करने की क्या आवश्यकता? "जो हो रहा है वो ग़लत है और जो शनिवार की रात हुआ वो और भी ग़लत  था" , तो फिर सही क्या है? और कौन करेगा?
                                                            जब अन्ना महोदय ने जंतर पे मंतर चलाया तब भी लोग अपनी झाड़ -फूँक कराने "डेल्ही-बेल्ही" पहुंचे थे अब अग़र लोग रामलीला मैदान में अपनी "सीता"(India की white money) को रावण(corrupt - people )  और उसकी लंका (swiss - Bank ) के  चंगुल से बचाने पहुँच गए तो क्या ग़लत किया? हम तो कुछ करते नहीं पर जो कर रहे हैं उन्हें भला हम दोषी क्यों ठहरा  रहे हैं? यदि ये सत्य है की "अनशन" से राजनीति का कोई "junction " नहीं बदलने वाला तो ये भी सच  है की चुप बैठे रहने से भी कुछ नहीं बदलने वाला. आज  इस बात का एहसास हुआ की "यू.पी.  बोर्ड" सबसे कठिन बोर्ड है,आज "Greenathon" की अच्छाई  दिखी तो "CCL(सेलेब्रिटी क्रिकेट लीग)" की  समाज-सेवा की भावना याद आई,,,आज बहुत सारी अच्छी  बातें हुईं ,उन सब बातों पर चर्चा हुई जो इस बवाल में खो गई सी लगती थी पर सच तो ये है की जिनका आज रिजल्ट आना था उन्हें उसका इंतज़ार था...जिन्ही सेलेब्रिटी मैच देखना था उन्होंने कल भी देखा और जिन्हें समाज- सेवा की भावना "Greenathon " में देखनी थी उन्होंने वो भी देखा...तो ये कहना ग़लत है कि  ये बातें  खो गईं.इन सब बातों से याद आया की जब अन्ना जी अनशन पर बैठे थे तो हमे सिवाय "India Against Corruption" के कुछ भी याद नही था .हम दिन भर एक दिए गए नम्बर  पर miscall  देकर अन्ना जी के सत्याग्रह का साथ देने की अपील  करते और सुनते पाए गए. उस दिन हमे और बातें क्यों छोटी लगीं उस अनशन के सामने?"अन्ना जी ने भी तो यही रास्ता अपनाया था,फर्क सिर्फ इतना है कि  उनका मुद्दा लोकपाल तक सीमित था और बाबा जी का मुद्दा  थोडा बड़ा रहा...जो बातें उसमे सही नही थी उन पर भी एक बार विचार कर बदलाव के बारे में सोचा जा सकता था..पर पर उनके तरीके का इतना विरोध क्यों?
                                      न ही हमें योग का शौक है न ही योग करने का समय और न ही कल तक रामदेव जी से खासा फर्क पड़ता था पर उनसे जुड़े इतने सारे देशवासियों से फर्क पड़ता है..हमें भी और आपको भी...हम सबको. मुद्दा ये है की हम अन्ना जी और रामदेव जी के  मामले में दोहरा रवैया   क्यों अपना रहे हैं जबकि दोनों के तरीके लगभग एक ही हैं..अग़र ग़लत ही ठहराना  था तो उस समय अन्ना जी को भी ग़लत ठहरा देते तब भी समझ आता की  चलो हमें परिवर्तन ही  नहीं चाहिए.
                                      चलिए  हम  ये भी  मान लेतें  हैं की रामदेव जी जो कर रहे हैं या कह रहें हैं वो बिलकुल भी व्यवहारिक  (practical) नही है शायद इसीलिए इतनी मुश्किलें आ रही हैं और आती रहेंगी क्योंकि "आदर्श-राज्य"(Ideal -state) तो केवल "Utopiya "  जैसी किताबों में ही संभव है..वास्तव में नहीं.१००% खरा सोना वो भी बिना मिलावट उपलब्ध नही हो सकता पर ९४ कैरेट गोल्ड पाने की कोशिश तो की जा सकती है."हम हर उस भारतीय का साथ हर उस बात के लिए देंगे जो हमारे देश के हित में है.हम ये नहीं कहते कि   बाबा जी को सत्ता थमा दो पर जिन्हें थमाई है उन्हें थमा कर भी कोई गर्व करने वाला काम नही किया हमने.लोग विवादास्पद (controversial ) मुद्दों पर बोलने से बचते हैं, सबकी जुबां  पे ताले pad जाते हैं पर चाहते हैं कि  देश सुधर जाये.
                         मैं कमलेश जी को ये प्रेम-पत्र कभी नही लिखती क्योंकि वो खुद को रोमांस में पांचवी अनुत्तीर्ण (fail ) जो कहते हैं..पर आज अच्छी -अच्छी  बातों के गुलाब के गुलदस्ते के साथ जो वो एक बड़ा सा काँटा ("जो हो रहा है वो ग़लत है........ग़लत था.") उन्होंने बार-बार चुभोया उससे दर्द हुआ. क्या दिल्ली-पुलिस अपनी मर्ज़ी से वो सब करने पहुंची थी बिना किसी आदेश जो आप उन्हें प्रेम-पत्र लिख कर सत्याग्रह कर रहे थे.इसके पीछे का सच और असली ज़िम्मेदार को तो आप भी जानते हैं फिर बेचारी दिल्ली -पुलिस को अकेले दोषी ठहराने   का क्या फायदा? 
            वर्ल्ड-कप के बाद आज ये सोच कर रेडियो खोला था की कुछ नया मिलेगा पर कमलेश जी से ये उम्मीद नहीं थी की वो ऐसा गुलाब देंगे.श्रीमान हम आपसे प्रेम करते हैं परन्तु इस प्रेम की ऐसी परीक्षा तो मत लीजिये.ऐसा गुलाबों का गुलदस्ता देने से तो अच्छा होता की आप चमेली  का फूल थमा देते या फिर अपने इश्क का इज़हार-ए -बयान ही न करते . आपका एक उत्तरदायित्व  है जो हमसे कहीं ज्यादा है क्योंकि आपके पास एक माध्यम (मीडियम) है लोगों तक पहुँचने का तो बेहतर तो ये होगा की आप सरकारी रेडियो चैनल्स     की तरह केवल सकारात्मक बातें करें और उन्ही मुद्दों को अपने कार्यक्रम में शामिल करें,उसके अतिरिक्त कुछ भी नही पर तब आपको टी.आर.पी. की चिंता भी घेर सकती है.अग़र आपने आज बार-बार अपनी बात दोहराई न होती तो शायद मैं  ये पत्र कभी न लिखती पर क्या करूँ रोक नही पायी अपना इज़हार-ए- इश्क  क्योंकि भारत की मिटटी से प्यार करती हूँ.अग़र आप पूछेंगे कि  मैंने इसके लिए क्या किया तो मैं कहूँगी कि  अग़र कुछ अच्छा नही तो कुछ बुरा भी नहीं किया.इसके लिए अग़र  मैंने आज तक आवाज़ नही उठाई तो आवाज़ उठाने वालों को ग़लत भी नहीं ठहरा सकी. न मेरे पास खोने के लिए नौकरी है,न ही काले धन के पकडे जाने का dar ,न रिश्वत  और घूसखोरी में पकडे जाने की शंका,न मैं  अनशन पर बैठी हूँ,न ही बैठूंगी,पर जो बैठा है उसे ग़लत भी नहीं कहूँगी क्योंकि मैं  एक किन्कर्त्व्यविमूध  (kaamchor ) नागरिक हूँ जिसने  केवल अपने घर-परिवार और करियर तक ही सोचा देश के लिए न तो कुछ किया है अब तक और न ही अभी इतना साहस  है कि  ऐसा  कुछ कर सकूँ  पर जो कर रहा है कम  से कम  उस पर उंगली  तो नहीं उठा  सकती. 
                                    आपसे दिल  की बात इसलिए  कह दी क्योंकि आप  पर अपना कुछ हक  समझते  हैं क्योंकि आप हमारे बीच  हैं और हम सब के करीब  भी,वरना  दिग्विजय  सिंह  से तो हमारा  कोई नाता  है नहीं और न ही कपिल  सिब्बल  जी से और वो लोग जब इतने सारे  लोगों की आवाज़ यूँ  ही दबा  सकते है तो फिर हम   किस  खेत  की मूली  हैं. आज आपने  पहली  बार हमें मौका दिया  है और साथ ही तरीका भी आपने ही सिखाया  है की कैसे  आपसे इज़हार-ए-इश्क किया जाए  .आपसे बहुत  कुछ सीखा   है और सीखती  रहूंगी  और हमारा  प्यार इतना कमज़ोर  नहीं की इतनी आसानी  से ये रिश्ता टूट  जाये, बिलकुल नहीं.आप कल भी हमारे चहीते  "Subahman" थे आज भी हैं और कल भी रहेंगे .इस बहस  में "हार -जीत " चाहे जिसकी हो पर हमने बड़ी किस्मत से आपको "अर्जित " किया है और आप हमारे ही रहेंगे .आशा  करती हूँ की आप मेरा प्रेम-पत्र पढ़ कर कूड़ेदान  (dustbin )  में तो नहीं डालेंगे . 
"जय हिंद ,जय  भारत"
                                                                                                                                         आपकी  अपनी
                                                                                                                                          मिर्ची  तानपुरी 
                                                                                                                                             "सुन्दरम " 

Friday 13 May 2011

"slumdog se millanior tak....(Aatmvyatha)..."

अभी कुछ ही दिनों पहले दोपहर के समय फैजाबाद रोड के पास दो सैलानिओं को रिक्शे से जाते देखा.वहीँ  पास की रेलवे क्रोसिंग  के पास एक कुत्ता मरा पड़ा था. वो दोनों सैलानी जैसे ही क्रोसिंग के  पास से गुज़रे,मृत-जीव के शरीर अपघटन के कारण जो दुर्गन्ध उत्पन्न हुई कि बस पूछिए मत! उन सैलानिओं ने अपनी नासिका हाथ से ढकते हुए आपस में कुछ कहा और रिक्शे  से आगे बढ़ गए .मैंने भी साँस रोकते हुए क्रोसिंग पार की,पर अचानक इस छोटी सी घटना ने मस्तिष्क की कोशिकाओं पर प्रहार करते हुए कुछ विचारों  को अनायास ही अन्तः पटल पर रेखांकित किया.उन दिनों जो ख़बर सबसे ज्यादा चर्चा में थी बस मन उसी विषय में सोचने लगा.मेरा मन यह सोच बैठा की ग़र हालात ऐसे हैं की जगह-जगह कचरे  के ढेर,झुग्गी-झोपड़ियाँ,,मलिन बस्तियाँ और मरे हुए जानवरों की बू यदि सत्तर से अस्सी प्रतिशत  भारत में देखने को मिलेगी तो विदेशी भला ये क्यों न सोचेंगे की यही असली भारत है,जिसकी तस्वीर ग़रीबी है? क्यूँ नहीं कहलायेंगे "स्लम्स" में रहने वाले -"डॉग" और फिर क्यों नही बनेगी "Slumdog Millanior"? अब आप सोचेंगे की अजीब बात है जिस फिल्म ने भारत का वर्षों पुराना सपना पूरा किया,उससे भला मुझे क्या शिकायत हो सकती है? मित्रों आप सभी ने इसके सकारात्मक पक्ष को तो पूरी तरह से जिया है परन्तु मै अपनी आत्मव्यथा कहे बिना रह न सकी.
                                                       वैश्विक स्तर पर इस फिल्म के ख्याति प्राप्त करने के बाद ही  भारत में भी लोग इस फिल्म को देखने के लिए विवश हुए.इस फिल्म ने अच्छा कारोबार भी किया  लेकिन ग़र यही विषय किसी भारतीय निर्माता-निर्देशकों ने चयनित किया होता तो शायद ये फिल्म बॉक्स-ऑफिस पर औंधे मुँह गिरी होती या हो सकता है सफल हो भी जाती पर शायद ये जितने awards जीत पाई,वो न जीत पाती.वैश्विक स्तर पर प्रचारित होने के बाद यह फिल्म एवार्ड्स पर एवार्ड्स जीतती रही.कभी "गोल्डेन-ग्लोब" तो कभी "बाफ्ता" और अन्ततः शीर्ष शिरोमणि  "ऑस्कर" जिसका सबको बेसब्री से इंतज़ार था.
                                                          ग्रामीण पृष्ठभूमि पर और भारत की  दीन- हीन दशा पर पहले भी  फ़िल्में बनी,जहाँ पिछड़ा भारत दिखाया गया,वहां कि समस्याएं दिखाई गईं.'मदर- इंडिया' जैसी फिल्म शायद न तो आज तक बनी है और न ही कभी बन पाए.'लगान','पहेली(विजयदान देथा  के उपन्यास पर आधारित)' और  'वाटर' ये ऐसी फ़िल्में हैं जिनमे भारत कि कुछ समस्याओं एवं रुढिवादिता का चित्र देखने को मिला,परन्तु ये फ़िल्में ऑस्कर नामांकन कि सीढियों से ही लौट आयीं और ऑस्कर से वंचित रही पर आज जब इसी भारत के दीन-हीन रूप का चित्रण कोई विदेशी करता है  तो वह कथानक रातोंरात सफलता प्राप्त करने लगता है.हमें ख़ुशी है कि इस फिल्म ने अल्लाह रक्खा  रहमान जी (ए.आर.रहमान)  को 'गोल्डेन-ग्लोब' और 'बाफ्ता' जैसे एवार्ड्स दिलाये पर टीस  तो इस बात कि है कि हमें इस सफलता का श्रेय विदेशियों के साथ बाँटना पड़ा. क्या हमने कभी सोचा कि ये पहली बार तो नहीं जब रहमान जी ने इतना अच्छा संगीत दिया हो बल्कि इससे पहले और इससे कहीं बेहतर संगीत उनके खाते में दर्ज है.उनका वो गीत 'दिल है छोटा सा,छोटी सी आशा..' जो आज तक लोगों कि ज़बान से नही उतरा और भी बहुत   कुछ..तो फिर आज तक इस ऑस्कर से पहले वो इन सम्मानों से क्यों वंचित रहे?
                                    एक बात ज़हन में आती है कि स्वतंत्रता-पूर्व जब भारत से कच्चा  माल बाहर भेजा जाता था तो वापस भारत में आने पर दोगुने दामों पर बिकता था पर  आज तो  हम स्वतंत्र हैं,फिर भी इतिहास किसी ना किसी रूप में खुद को दोहरा ही देता है और हम भारतीय आंशिक वाहवाही  पाकर ही खुश हो लेते हैं. भारतीय  कथानक और परिदृश्यों के कच्चे  माल पर बाहर का लेबल  चिपका कर  उसे  ऑस्कर  की  दौड़  में  खड़ा कर दिया  गया और हमारे लोग मूक दर्शक बन कर ताली बजाते  रहे ,आखिर विदेशियों की नज़रों में तो सच्चा भारत "ग़रीब -भारत" ही रहेगा. भले ही इस फिल्म के कथानक में "slumdog से millanior " तक का सफ़र दिखाया गया हो,पर हम देश की दशा सुधारने के बजाय  इसकी इस दशा पर मिले पुरस्कारों पर उछालते-कूदते यूँ ही मुस्कुराते रहेंगे !!   -  "सुन्दरम'

Tuesday 10 May 2011

सेक्युलर देश में इश्क का मज़हब

जिस धरती पे हम जन्में  हैं...जहाँ धर्म सभी मिल रहते हैं...
हिन्दू,मुस्लिम,सिख, ईसाई,आपस में सब भाई भाई..दिन रात गीत ये गाते हैं..
गर्व करते हैं इस बात पर कि हम,धर्मनिरपेक्ष (secular ) राष्ट्र में रहते हैं.....
पर जब सोचा मैंने, कि क्यों न मैं इश्क को अपना मज़हब बना लूँ.....
तभी एक आवाज़ आई कि तुम प्यार करने कि भूल मत करना...
ख़ानदान की  इज्ज़त रखना,माँ-बाप कि लाज रखना....
जिस जाति में जन्मी हो उसमें ही ग़र हो जाये इश्क नसीब तो कहना...
हम रिश्ते की सोचेंगे.....इसलिए अब तक न प्यार कर पायी न ही खुल कर इज़हार कर पाई...
जिसे चाहा होकर दीवानी मीरा की  तरह...उसे अपना श्याम न कह पाई.....
क्या जाकर गली गली ये पूछूँ  हर शख्स से कि वो किस जाति का है?....किस गोत्र का है.?
किस कुल का है? फिर कहूँ उससे कि क्या वो मुझे प्रेम कर सकता है? 
फिर वो कहे कि दहेज़ की रकम क्या होगी? 
ग़र न चुका सकूँ उसके प्रेम की कीमत तो फिर चल पडूँ एक नयी तलाश में...
अपनी आत्मा किसी और को चाहती रहे जीवन भर..
फिर भी हम ख़ानदान कि इज्ज़त रखने को भटकते रहें अपने शरीर का सौदा करने..
कि कर ले कोई प्रेम मुझसे भी..क्या खानदानी होने की निशानी का पता इस जाति- बंधन में भटकते हुए
अपनी नीलामी की बोली के इंतज़ार से ही चलता  है ..? 
पर उस पवित्र रिश्ते का क्या जिसे एक बार में ही  आत्मा ने बिना किसी मोह या प्रलोभन स्वीकार कर लिया हो..? 
भारत में आज भी जहाँ खाप पंचायतें इश्क के मज़हब पर सजा-ऐ-मौत सुनती हैं...
उस देश की जनता सेकुलर होने का बिगुल बजाती है....
इस देश में इश्क का मज़हब नीलामी और सौदा है....
यहाँ तब तक भटकना है हमें,जब तक इस शरीर की बोली लगा कर इसे अपनी ही जाति में बेच न दिया जाये...
जब तक रूह  का कत्ल-ऐ-आम  न हो जाये....जब तक  इस सेकुलर देश में इश्क का मज़हब न बन जाये .
 "सुन्दरम"

Tuesday 26 April 2011

kyonki thokar...

क्योंकि ठोकर....

क्योंकि ठोकरें ही हमें जीना सिखाती हैं....
इस लिए ठोकरें ही हमारी  हमराज़ कहलाती हैं.
ग़र इंसान को न मिले ठोकर,तो खुशियों का एहसास क्या होगा ?
ग़र दर्द न हो जीवन में तो अर्थयुक्त जीवन का सार क्या होगा?
क्योंकि इंसान पाता है खोकर,इसलिए सच्ची दोस्त है बस एक ठोकर..
                                           ग़र ये ठोकर न होती तो गिरते न हम ज़मीं पर,
                                            माँ की गोद का स्पर्श न समझते और कहीं पर,
                                             जब लगी चोट पैरों में धरती माँ ने किया आलिंगन,
                                              मुँह के बल गिरे हम माँ की गोद में... 
                                              और पाया इस ममता का स्नेही चुम्बन,
                                               दुःख बताया हमने माँ को अपना रोकर, 
                                               और बताया ये भी की खायी कैसे ठोकर..  
 पंछी भी उड़ते हैं जब,अपने परों के बल पर,
टकराते हैं एक दिन वो भी पेड़ों की डालियों पर,
खाते हैं वो भी ठोकर,पातें है वो भी ठोकर..
लेकिन हैं फिर से उड़ते पर्वत की चोटियों पर,
काफी है एक ठोकर,काफी है एक ठोकर..
                                              मकड़ी भी जाल बुनती है जब,ऊंचाइयों पे चढ़कर,
                                               गिरती है फिर है चढ़ती, मकड़ी ज़मीं पे गिरकर..
                                               पाती है वो भी ठोकर,बढती है खा के ठोकर..
                                               ये ज़िन्दगी है ठोकर..ये ज़िन्दगी है ठोकर..
 ढूँढोगे ठोकरों में खोकर अग़र तुम जीवन,
  तुमको दिखेगा पुलकित धरती का हर एक कण,
बीतेगा तेरा बचपन,आएगी फिर जवानी.....
ये ठोकरें लिखेंगी बस तेरी जिंदगानी..
क्योंकि ठोकरों से ही बनती रही है ..
सफल शख्सों की कहानी...
क्योंकि ठोकर.....क्योंकि ठोकर..."संघर्ष सुन्दरम"