Wednesday 17 October 2012

आशिक-ए-लख़नऊ


एक वक़्त हो चला है तेरी महसूसियत से महरूम हुए,
मग़रूर हो तुम या कि मजबूर हो तुम,
हो पास या कि दूर हो तुम,
ऐ नवाब किस बेग़म के नशे में चूर हो तुम,
तुम्हें अपनी माशूक़ा की याद नहीं आती,
ऐ आशिक़-ए-लख़नऊ किस ओर हो तुम ?
दिल में खंजर सा चुभ रहा है , तेरी यादों का दामन,
मेरे जीने का सबब,मेरी ज़िन्दगी का दस्तूर हो तुम,
तुझ से बिछड़ के तहज़ीबो-अदब भी मुझसे रूठ गये,
हम तेरी बाज़ुओं से क्या दूर गये,

इसी इंतज़ार में जी रहे हैं हम,
कि मेरे नहीं तो किसी ग़ैर के सही,
पर किसी के आंचल में तो महफ़ूस हो तुम,
ऐ लख़नऊ बड़े दूर हो तुम।

Monday 25 June 2012

भारत में डिजीटल विभाजन


मानव हित कथा (Human Interest Stories)
भारत में डिजीटल विभाजन

    मानव-सभ्यता के विकास के साथ-साथ ही संचार की प्रक्रिया का भी विकास हुआ और इस प्रक्रिया ने बदलते वक्त के साथ स्वयं को विभिन्न तकनीकों के साथ समायोजित करते हुए विकास के पथ का अनुसरण किया। चिन्हों,प्रतीकों के माध्यम से अपने विचारों का आदान-प्रदान करने वाले इस मनुष्य ने जब शब्दों को सीखा तो उन्हें कागज पर उतारना शुरू किया और विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के विकास ने जब तकनीकी माध्यमों को जन्म दिया तो आज ऐसा समय आ पहुँचा है कि जब ये संचार के शब्द और सूचनायें हवा में तैर रहे हैं और अन्तरिक्ष में वह असीमित तथा अदृश्य स्थान जिसे हम साइबरस्पेस कहते हैं,सूचनाओं का भण्डारण ग्रह बन चुका है। सूचना एवं प्रद्योगिकी क्षेत्र में हुई त्वरित प्रगति ने एनेलॉग तकनीक से डिजीटल तकनीक की खोज का सफ़र पूरा किया और आज पूरा विश्व इस डिजीटलीकरण की गोद में समाने को तैयार दिखाई दे रहा है।                           
                                            
क्या है डिजीटलीकरण
    डिजीटलीकरण अथवा डिजीटाईज़ेशन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें किसी भी सूचना अथवा जानकारी का संग्रहण अंकीकरण(digitization) के माध्यम से होता है। कम्प्यूटर में सूचनाओं को द्विआधारी  संखया पद्धति (two base number system) की सहायता से संरक्षित किया जाता है । इस संख्या पद्धति का आधार शून्य (0) तथा एक (1) होता है। अतः समस्त सूचनाओं को जब कम्प्यूटर में प्रवेश कराया जाता है तो वह शब्द हों,चित्र हों अथवा कोई अन्य जानकारी वह सभी को इसी रूप में अपने स्मृतिकोश में एकत्रित्र कर लेता है। इस तकनीक ने सूचनाओं की गति इतनी अधिक बढ़ा दी है कि पलक झपकते ही सूचनायें एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँच जाती हैं।

डिजीटल-विभाजन और भारत
   डिजीटल-विभाजन एक ऐसी विचार धारा है जो कि इस बात का समर्थन करती है कि बढ़ता डिजीटलीकरण डिजीटल-समरूपक” (digital-equilizer) के रूप में अपनी भूमिका को निभा पाने में असक्षम रहा है। इसने समाज में डिजीटल-समृद्ध (digitaly-rich) और डिजीटल-दरिद्र (digitaly-poor) जैसे दो वर्गों का निर्माण कर दिया है और इन दो समाजों के बीच की खाई दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है।                                                                                                                                                       भारत जो कि विविधताओं का देश है वह भी बड़ी ही तेज़ी से सूचना – प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अपने क़दम लगातार बढा रहा है और इंटरनेट तथा मोबाइल का इस्तेमाल करने वाली जनसंख्या लगभग 700 मिलियन तक पहुँच चुकी है। मोबाइल तो गाँव-गाँव तक पहुँच चुके हैं। भारत – सरकार के प्रयास लगातार इस क्षेत्र में जारी हैं। रिमोट-एरिया (पूर्वोत्तर राज्यों और पहाड़ी इलाकों) तथा ग्रामीण इलाकों तक लोगों को सूचना के दायरे में लाने और डिजीटल- विभाजन की खाई को पाटने की कोशिश में सरकार ने  ग्रामीण संचार सेवक, ज्ञानदूत ,ई-सेवा प्रोजेक्ट तथा डिजीटल लाईब्रेरी प्रोजेक्ट तथा विद्या-वाहिनी जैसी योजनायें चलाई हैं।
     भारत के दक्षिणी राज्य तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई मे वर्ष 2004 में एक सुविख्यात तकनीकी संस्थान एनलॉग (Enlog) द्वारा एक प्रोजेक्ट चलाया गया जिसके तहत आस-पास के ग्रामीण इलाकों को इंटरनेट के माध्यम से विश्व के साथ जोड़ने की योजना बनाई गई। इस कार्यक्रम की सबसे खास बात यह रही कि इन इलाकों में स्थापित किये जाने वाले बूथ और साइबर कैफे की कमान महिलाओं के हाथों में दी गई और वो भी ऐसी महिलाओं के हाथों में जो इससे पहले कभी भी तकनीक के सम्पर्क में नहीं आई थी।
     आईआईटी चेन्नई की आशा संजय कहती हैं- गाँवों के कुछ हिस्सों में तो लोग एक गाँव से अगले गाँव तक की बस पकड़ने में भी सक्षम नहीं थे लेकिन इंटरनेट ने उन्हें दुनिया से जुड़ने का मौका दिया। वे एक क्लिक पर ऐसा कर सकते हैं। यह बहुत बड़ी बात है।
     आशा संजय के इसी गाँव में वीडियो-कॉन्फ्रेन्सिंग के तहत महिलाओं की 60 कतारों को हज़ारों मील दूरी पर बैठे नेत्र-विशेषज्ञ (eye-specialist) से जोड़ा गया। अकेले तमिलनाडु में ही लगभग 1,000 साइबर-बूथ उपलब्ध हैं जिनमें से 80% महिलाओं द्वारा चलाये जा रहे हैं।                      
    एनलॉग के ग्राम आनन्द कहते हैं कि महिलाओं में सीखने और ग्रहण करने की क्षमता और अपने कार्य के प्रति ग़जब का समर्पण देखने को मिला। महिला-ऑपरेटर गाँवों के बूथ मे सुबह 6.30 बजे ही पहुँच जाती हैं जबकि शहरों मे हम अपने कार्यालय 10.00 बजे तक पहुँचते हैं।
21 वर्ष की अनन्ति अपने गाँव में डिप्लोमा करने और नौकरी पाने वाली एकमात्र महिला हैं जो इस बूथ को चलाकर गर्व का अनुभव कर रही हैं।
इसी प्रकार 67 वर्षीय रविया मार जो की मधुमेह से पीड़ित हैं अपने घर पर ही साइबर बूथ चलाकर खुश हैं क्योंकि वह कहीं जा नहीं सकतीं।

भारत में डिजीटल-विभाजन की वास्तविकता
इन सभी प्रयासों के बाद भी भारत में डिजीटल- विभाजन की खाई कम गहरी नहीं है। आज़ादी के समय भारत का साक्षरता प्रतिशत 12% था जो कि अब बढ़कर लगभग 74% तक पहुँच चुका है किन्तु इस साक्षर जनता में वे लोग भी शामिल हैं जो केवल अपने हस्ताक्षर करना जानते हैं। तकनीकी शिक्षा की कमी डिजीटल माध्यम से सूचनायें प्राप्त करने की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है। डिजीटल तकनीक यदि सभी तक पहुँच भी जाती है तो भी भारत की विभिन्न भाषाओं में सूचनाओं की कमी और भारत की तकनीकी एवं भाषायी(अंग्रेज़ी एवं हिन्दी) रूप से अशिक्षितता डिजीटल –विभाजन की खाई को निरन्तर बढ़ाती ही नज़र आयेगी।अतः यह आवश्यक है कि साक्षरता को आँकड़ों में नहीं बल्कि सही मायनों में व्यवहारिक रूप से बढ़ाया जाये।
      यदि ऐसा होता है तब ही मार्शल मैकलुहान की विश्व-ग्राम”(global-village) की परिकल्पना वास्तविक रूप से भारत के संदर्भ में सत्य सिद्ध हो सकेगी और तभी भारत का विश्व-बन्धुता(world-brotherhood) का सिद्धांत भी वास्तविक रूप से साकार हो सकेगा।
                                                                   सुन्दरम् ओझा
एम.एस.सी(द्वितीय सेमेस्टर)
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया विभाग
                                     माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं
                                                     संचार विश्वविद्यालय,भोपाल

  

Tuesday 22 May 2012

ओजस्विनी की कहानी



       वो अजनबी रात....

एक दिन एक अजनबी रात,
जब मैं थी उनके पास,
पर मैं अकेली नहीं थी उस रात..
हर बार की तरह हमारे बीच सन्नाटा था..
मैं करती रही प्रतीक्षा उस सन्नाटे के चले जाने की,
पर उसे ना जाने क्यूँ मेरी हालत पे तरस नहीं आया..
इस रात की प्रतीक्षा में मैंने अनवरत् ही दो वर्ष गुजारे थे...

यही सोचकर मैंने सन्नाटे को दरकिनार कर..अपनी सीमाओं को पार कर...
बढ़ा दिया उनकी तरफ़ अपनी बाहों का हार...
पाने को उनका प्यार...
बह रही थी मेरे नेत्रों से अश्रुओं की धार..
वो मेरे पास ही कर रहे थे विश्राम,
हल्का संगीत हमारे आस-पास विचार रहा था...
पर वो शायद आज भी यही चाहते थे कि मैं ही झुकूँ फ़िर से,
पर प्रिये मैं तो सदा से ही तुम्हारे सामने नतमस्तक थी...

ख़ैर अपने अहं को कुछ पल के लिए दूर कर...
बांधा मैंने तुम्हें अपने आलिंगन पाश में..
सिमट गई मैं तुम्हारी दौड़ती हर श्वांस में..
मेरा मस्तक तेरे ह्रदय पर था..
जो पत्थर सा कठोर था..
जैसे ही मेरे अश्रुओं की बूंदें गिरी उस कठोर पत्थर पर..
वो पिघल गया...  
तूने झट मुझे अपनी बाहों का सिराहना दिया..
प्रतिउत्तर में अपने आलिंगन का सहारा दिया..

मुझे ना कोई भय था,ना संकोच..
पर तेरी ह्रदयगति असाधारण थी..
तूने घबरा कर मुझसे कहा-मैंने क्या किया ?”
पर फ़िर सन्नाटा लौट आया हमारे बीच अपनी आंखे फाड़े..
पर इस बार तूने उसे हमारे कक्ष से बाहर भेज दिया..
मेरे बालों को सहलाते हुए तूने पूछा-ये आंसू ख़ुशी के हैं या ग़म के,इतना तो बता सकती हो?”
मैंने कहा- तुम मुझे नहीं चाहते!”
उन्होंने मुझे पुचकारते हुए कहा-अग़र मैं तुम्हें नहीं चाहता तो क्या तुम मेरी बांहों का तकिया बना पाती?”
मैंने कहा –मुझे ये तकिया जीवन भर क्यों नहीं मिल सकता?”
ये सवाल सुनकर उन्होंने लंबी आह भरते हुए कहा-मेरे दिल को बहुत चोट लगी है,मेरे पास तुम्हें देने को कुछ भी नहीं है।"
मैंने कहा-"आपके जीवन में स्थान के सिवा मुझे कुछ नहीं चाहिेए।"

मैंने उन्हें और भी अधिक सामर्थ्य से स्वयं में जकड़ लिया था,
उनकी उंगलियाँ निरन्तर मेरे बालों को सहला रही थी।

उन्होंने मेरे मस्तक पर रख दिया अपना प्यारा सा चुम्बन.....और कर लिया था मेरा पूरा आलिंगन,
आज ऐसा प्रतीत होने लगा था कि "मैं तेरी 'ओजस्विनी' हूँ और तू मेरा ही "सौन्दर्य" है।

वो मुझे हँसाने की कोशिश करते रहे व्यंग्य की चुटकियाँ लेकर,
मैंने भी उनके हृदय पर पटक दिये अपनी मुट्ठियों के कुछ गट्ठर,
उनसे ये कहकर-"तुम बहुत दुष्ट हो कितना सताते हो!"
वो कहने लगे-"फिर भी तुम इस दुष्ट से इतना प्रेम करती हो!" 

मैं फिर मुस्कुरा दी और अपनी मुट्ठियों को खुला छोड़ दिया था मैंने,
उन्होंने भी अपने हाथों को मेरी खुली हथेलियों में समेट दिया।
मैं समर्पण भाव में निढाल सी एक पूर्ण विश्वास से भरी हुई कुछ इस तरह पड़ी थी...
मुझे विश्वास था ख़ुद पर और उन पर कि मेरी 'अस्मिता' भंग ना होगी...
और मेरा विश्वास सत्य ही था क्योंकि 'ओजस्विनी' और 'सौन्दर्य' तो एक-दूसरे से मन से प्रेम करते हैं।
      उन्हें अपनी सीमाओं का भान है,दो वर्ष दूर रह कर भी जब "ओजस्विनी" का मन विचलित ना हुआ तो भला अब कैसे होता!

अन्धकार कुछ और गहरा गया था,
रात्रि का अंतिम प्रहर भी निकट आ गया था...
अब हमने अपने शब्दों को विराम दिया..
उनके स्नेहमयी चुम्बनों ने मेरे अश्रुओं को थाम लिया..
अब उनकी हृदयगति भी पहले से मन्द थी,
वो सुकूँ से मुझे अपने आलिंगन में समेटे, मुझ पर अपना स्नेह लुटा रहे थे,

मेरे मस्तक का उनके हृदय से मिलन,
उनकी हथेलियों का मेरी हथेलियों से मिलन,
उनके चुम्बन की मेरे मस्तक,नेत्रों और ओष्ठों तक की यात्रा...
और हमारे बीच पसरा वो निःशब्द "सन्नाटा"...
फिर पुनः लौट आया था मौन की अनुभूति लेकर,
पर अब हम उस सन्नाटे को तोड़ना नहीं चाहते थे..
उसके होने पर भी हमें आनन्द की अनुभूति थी,
क्योंकि इस बार वो हमें जोड़ने आया था,
           
वो अजनबी रात अब मेरे लिए चिर-परिचित बन चुकी थी,
हम उस रात्रि के अंतिम प्रहर में कुछ यूँ बेसुध से थे कि ना तो हमें सुबह के आने का एहसास हुआ,न ही दिन चढने का,
मैं दीवार के सहारे आँखें बन्द किए बैठी थी,
आँखों में बेहोशी थी..
वो मेरी गोद में अपना सर रखकर,मुझसे लिपटे हुए थे इस तरह,जैसे उन्हें अब मेरे स्नेह की आवश्यकता थी,मैं आँखें बन्द कर उनके बालों को सहलाती रही,
रख दिया मैंने भी अपना चुम्बन उनके मस्तक पर,
पर तभी सूर्य की तेज किरण आ धमकी उस कक्ष में,
हमें भान हो आया कि दिन चढ़ गया है...

दिन की तेज़ रौशनी ने फिर से उनके पिघले हुए दिल को "खौला" दिया...
उनके दिल के "लिक्विड" का "बॉयलिंग प्वाइंट" बढ़ा दिया,
जिसे रात भर मेल्ट किया था हमने अपने स्नेह और आँसुओं से..
जिसे निकाल कर लाये थे हम "डीप फ्रोज़ेन स्टेट" से..
अब वो खौलने लगा था उबल कर..
दूर कर दिया उन्होंने ख़ुद से हमें,
कर दिया 'विदा', स्वयं से दूर कर..

मैं "उस अजनबी रात" के चन्द लम्हों को समेट कर..
चल दी फिर उसी राह पर..
जहाँ मेरी अधूरी कहानी का पूरा एहसास मेरी प्रतीक्षा कर रहा था..
मैं फिर उस अधूरे एहसास में ख़ुद को तलाश रही थी। 
    

Thursday 19 January 2012

ओजस्विनी की कहानी (एक बार फिर...)

आज एक बार फिर मैं बैठी हूँ,
उसी फ़र्श के पास,
उन्हीं पेड़ो के साथ,
वही दीवारें, वही अमरूद का गाछ,
उसी फ़र्श के बाहर एक टीलेनुमा आकार,
ख़ुद को निहारती हो बेबस कुछ, कुछ लाचार,
कुछ-कुछ वैसी ही शाम,ये शाम का आसमाँ,
जहां कुछ देर बाद रात और दिन का मिलन होगा,
कुछ भीड़ होगी,लोगों का जमावड़ा होगा,
पर उस भीड़ के आने तक मैं यहाँ अकेली हूँ
झाँकती,निहारती,टटोलती अपनी उन यादों का दामन,
जहाँ कल मैं खेली थी।
वो हँसी यहाँ गूँजा करती थी,जहाँ हम संग थे,
चिड़ियों की आवाज़ें आज भी उतनी ही सुरीली हैं
जितनी कल थी,
वो गुलमोहर का पेड़ आज भी वैसे ही झूम रहा है,
जैसे कल था,
पर आज ये सन्नाटा जैसे मुझे चिढ़ा रहा है,
क्यूँ? क्या हुआ? कल बहुत हँसी-ठिठोली करती थी ना,
मैं कहता था मुझे सुन,
पर सुनती नहीं थी ना,
देख आज तू ख़ुद मेरी आग़ोश में चली आई है,
आज तू ख़ुद को मुझे सौंप रही है,
पर आज मैं तुझसे दूर चला जाऊँगा,
मुझे तो हलचल से प्रेम हो गया है,
चिड़ियों की,झूमते पत्तों की,झींगुर की
और इस फ़र्श पर उड़ते तिनकों की हलचल से,
जितना तुझे प्यार है इस शाम के बीते पल से,
आज तुझे मैं रूलाना चाहता हूँ,
तन्हाई का दर्द बताना चाहता हूँ,
इसलिए तेरा तिरस्कार कर रहा हूँ,
तेरे ह्रदय पर अपना ये प्रहार कर रहा हूँ।
तब तू समझेगी मैं क्या कहता था,
अपनी ख़ामोशी से तेरा दिल बहलाता था,
और ख़ुद अकेले में कितने आँसू बहाता था,
जा,तू फिर उसी भीड़ के पास जा,
जहाँ तेरा दिल ना लगे,
तू मुझे याद करना भी चाहेगी तो लौट कर ना आ सकेगी,
चाह कर भी उस भीड़ में किसी को अपना ना सकेगी.
और फिर,
वो सन्नाटा जाने लगा मुझसे कहीं दूर,
मैं उसे जाते हुए देख रही थी,
हो कर के मजबूर,
उसी फ़र्श के पास,
उस टीले पर बैठी,
उन्हीं पेड़ों के नीचे,
उसी हवा के साथ,
बैठी वहीं उदास।।   
16 अगस्त 2010
समय- शाम 6.30 बजे
सुन्दरम् ओझा
लख़नऊ.