Tuesday 22 May 2012

ओजस्विनी की कहानी



       वो अजनबी रात....

एक दिन एक अजनबी रात,
जब मैं थी उनके पास,
पर मैं अकेली नहीं थी उस रात..
हर बार की तरह हमारे बीच सन्नाटा था..
मैं करती रही प्रतीक्षा उस सन्नाटे के चले जाने की,
पर उसे ना जाने क्यूँ मेरी हालत पे तरस नहीं आया..
इस रात की प्रतीक्षा में मैंने अनवरत् ही दो वर्ष गुजारे थे...

यही सोचकर मैंने सन्नाटे को दरकिनार कर..अपनी सीमाओं को पार कर...
बढ़ा दिया उनकी तरफ़ अपनी बाहों का हार...
पाने को उनका प्यार...
बह रही थी मेरे नेत्रों से अश्रुओं की धार..
वो मेरे पास ही कर रहे थे विश्राम,
हल्का संगीत हमारे आस-पास विचार रहा था...
पर वो शायद आज भी यही चाहते थे कि मैं ही झुकूँ फ़िर से,
पर प्रिये मैं तो सदा से ही तुम्हारे सामने नतमस्तक थी...

ख़ैर अपने अहं को कुछ पल के लिए दूर कर...
बांधा मैंने तुम्हें अपने आलिंगन पाश में..
सिमट गई मैं तुम्हारी दौड़ती हर श्वांस में..
मेरा मस्तक तेरे ह्रदय पर था..
जो पत्थर सा कठोर था..
जैसे ही मेरे अश्रुओं की बूंदें गिरी उस कठोर पत्थर पर..
वो पिघल गया...  
तूने झट मुझे अपनी बाहों का सिराहना दिया..
प्रतिउत्तर में अपने आलिंगन का सहारा दिया..

मुझे ना कोई भय था,ना संकोच..
पर तेरी ह्रदयगति असाधारण थी..
तूने घबरा कर मुझसे कहा-मैंने क्या किया ?”
पर फ़िर सन्नाटा लौट आया हमारे बीच अपनी आंखे फाड़े..
पर इस बार तूने उसे हमारे कक्ष से बाहर भेज दिया..
मेरे बालों को सहलाते हुए तूने पूछा-ये आंसू ख़ुशी के हैं या ग़म के,इतना तो बता सकती हो?”
मैंने कहा- तुम मुझे नहीं चाहते!”
उन्होंने मुझे पुचकारते हुए कहा-अग़र मैं तुम्हें नहीं चाहता तो क्या तुम मेरी बांहों का तकिया बना पाती?”
मैंने कहा –मुझे ये तकिया जीवन भर क्यों नहीं मिल सकता?”
ये सवाल सुनकर उन्होंने लंबी आह भरते हुए कहा-मेरे दिल को बहुत चोट लगी है,मेरे पास तुम्हें देने को कुछ भी नहीं है।"
मैंने कहा-"आपके जीवन में स्थान के सिवा मुझे कुछ नहीं चाहिेए।"

मैंने उन्हें और भी अधिक सामर्थ्य से स्वयं में जकड़ लिया था,
उनकी उंगलियाँ निरन्तर मेरे बालों को सहला रही थी।

उन्होंने मेरे मस्तक पर रख दिया अपना प्यारा सा चुम्बन.....और कर लिया था मेरा पूरा आलिंगन,
आज ऐसा प्रतीत होने लगा था कि "मैं तेरी 'ओजस्विनी' हूँ और तू मेरा ही "सौन्दर्य" है।

वो मुझे हँसाने की कोशिश करते रहे व्यंग्य की चुटकियाँ लेकर,
मैंने भी उनके हृदय पर पटक दिये अपनी मुट्ठियों के कुछ गट्ठर,
उनसे ये कहकर-"तुम बहुत दुष्ट हो कितना सताते हो!"
वो कहने लगे-"फिर भी तुम इस दुष्ट से इतना प्रेम करती हो!" 

मैं फिर मुस्कुरा दी और अपनी मुट्ठियों को खुला छोड़ दिया था मैंने,
उन्होंने भी अपने हाथों को मेरी खुली हथेलियों में समेट दिया।
मैं समर्पण भाव में निढाल सी एक पूर्ण विश्वास से भरी हुई कुछ इस तरह पड़ी थी...
मुझे विश्वास था ख़ुद पर और उन पर कि मेरी 'अस्मिता' भंग ना होगी...
और मेरा विश्वास सत्य ही था क्योंकि 'ओजस्विनी' और 'सौन्दर्य' तो एक-दूसरे से मन से प्रेम करते हैं।
      उन्हें अपनी सीमाओं का भान है,दो वर्ष दूर रह कर भी जब "ओजस्विनी" का मन विचलित ना हुआ तो भला अब कैसे होता!

अन्धकार कुछ और गहरा गया था,
रात्रि का अंतिम प्रहर भी निकट आ गया था...
अब हमने अपने शब्दों को विराम दिया..
उनके स्नेहमयी चुम्बनों ने मेरे अश्रुओं को थाम लिया..
अब उनकी हृदयगति भी पहले से मन्द थी,
वो सुकूँ से मुझे अपने आलिंगन में समेटे, मुझ पर अपना स्नेह लुटा रहे थे,

मेरे मस्तक का उनके हृदय से मिलन,
उनकी हथेलियों का मेरी हथेलियों से मिलन,
उनके चुम्बन की मेरे मस्तक,नेत्रों और ओष्ठों तक की यात्रा...
और हमारे बीच पसरा वो निःशब्द "सन्नाटा"...
फिर पुनः लौट आया था मौन की अनुभूति लेकर,
पर अब हम उस सन्नाटे को तोड़ना नहीं चाहते थे..
उसके होने पर भी हमें आनन्द की अनुभूति थी,
क्योंकि इस बार वो हमें जोड़ने आया था,
           
वो अजनबी रात अब मेरे लिए चिर-परिचित बन चुकी थी,
हम उस रात्रि के अंतिम प्रहर में कुछ यूँ बेसुध से थे कि ना तो हमें सुबह के आने का एहसास हुआ,न ही दिन चढने का,
मैं दीवार के सहारे आँखें बन्द किए बैठी थी,
आँखों में बेहोशी थी..
वो मेरी गोद में अपना सर रखकर,मुझसे लिपटे हुए थे इस तरह,जैसे उन्हें अब मेरे स्नेह की आवश्यकता थी,मैं आँखें बन्द कर उनके बालों को सहलाती रही,
रख दिया मैंने भी अपना चुम्बन उनके मस्तक पर,
पर तभी सूर्य की तेज किरण आ धमकी उस कक्ष में,
हमें भान हो आया कि दिन चढ़ गया है...

दिन की तेज़ रौशनी ने फिर से उनके पिघले हुए दिल को "खौला" दिया...
उनके दिल के "लिक्विड" का "बॉयलिंग प्वाइंट" बढ़ा दिया,
जिसे रात भर मेल्ट किया था हमने अपने स्नेह और आँसुओं से..
जिसे निकाल कर लाये थे हम "डीप फ्रोज़ेन स्टेट" से..
अब वो खौलने लगा था उबल कर..
दूर कर दिया उन्होंने ख़ुद से हमें,
कर दिया 'विदा', स्वयं से दूर कर..

मैं "उस अजनबी रात" के चन्द लम्हों को समेट कर..
चल दी फिर उसी राह पर..
जहाँ मेरी अधूरी कहानी का पूरा एहसास मेरी प्रतीक्षा कर रहा था..
मैं फिर उस अधूरे एहसास में ख़ुद को तलाश रही थी। 
    

8 comments:

  1. my god,..sundaram vot a vivid imagination....but as always tumhari rachna ka har ek shabd yeh anubhuti karata hai ki tumhare andar ki kavi ke pankh fail chuke hain aur veh unchi udaan bharne ko taiyaar hain

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  2. घने कोहरे में डूबी भीगी सी वो काली रात
    और बर्फीली हवाओं में लिपटा वो मेरा आवारा इश्क
    बहुत याद आता है.......बहुत तड़पाता है....
    ज़िंदगी का सफ़र..जैसे...उस एक रात में सिमट जाता है....
    सुंदरम तुम वाकई सुंदर हो..तन से मन से....तुम्हारी बातें दिल के झरोखों की सब कुंड़ी दरवाज़े खोलकर जज्बात के गलियारे में ऐसे दौड़ने लगते हैं जैसे अल्लहड़ इश्क...मुबारक हो तुम्हें दिल की ये दुनिया.....

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  3. घने कोहरे में डूबी भीगी सी वो काली रात
    और बर्फीली हवाओं में लिपटा वो मेरा आवारा इश्क
    बहुत याद आता है.......बहुत तड़पाता है....
    ज़िंदगी का सफ़र..जैसे...उस एक रात में सिमट जाता है....
    सुंदरम तुम वाकई सुंदर हो..तन से मन से....तुम्हारी बातें दिल के झरोखों की सब कुंड़ी दरवाज़े खोलकर जज्बात के गलियारे में ऐसे दौड़ने लगते हैं जैसे अल्लहड़ इश्क...मुबारक हो तुम्हें दिल की ये दुनिया.....

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    1. शुक्रिया पंकज जी....आपकी लेखनी कल्पनाओं की पराकाष्ठा को छूने को विवश करती है......

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  4. its very beautiful...i liked it. awesome

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  5. This comment has been removed by the author.

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  6. उफ्फ्फ!!!!!!!!!

    नि:शब्द हूं। ऐसा लग रहा है मेरे चारों ओर सन्नाटा पसरा हुआ है।

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