Friday 29 November 2013

फिल्मों पर होती बैनलीला



सत्रहवीं शताब्दी में जन्मे अंग्रेज़ी साहित्य के महान कवि जॉन मिल्टन अपनी पुस्तक अरियोपेजेटिकामें कहते हैं कि किताबों के माध्यम से एक व्यक्ति का पूरा जीवन जो कि विभिन्न हिस्सों के रूप में एक पुस्तक में समाहित होता है जिसे हम जनता में बिखेर देते हैं, उस पर रोक लगाना एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति की हत्या किये जाने के समान है। मिल्टन की यह पुस्तक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अपना समर्थन प्रदान करने के उद्देश्य से लिखी गई थी जो उनकी महान रचनाओं में से एक है।

आज इस पुस्तक की याद अनायास ही नहीं आई बल्कि जब-जब विचारों की स्वतंत्रता या फिर किसी रचनात्मक अभिव्यक्ति पर रोक लगती है तो ये विचार मन में आ ही जाता है।

हाल ही में संजय लीला भंसाली की फिल्म गोलियों की रासलीला-रामलीलाअपने शीर्षक को लेकर विवाद का विषय बनी जबकि फिल्म को सेंसर बोर्ड यानि फिल्म सर्टिफिकेशन बोर्ड द्वारा पहले ही पास किया जा चुका था। उत्तर-प्रदेश में तो इसे सिनेमा-हॉल में लगाये जाने के लगभग एक सप्ताह बाद सिनेमा हॉल से उतारा गया और तब तक इसे वापस ना लगाये जाने का फैसला किया गया जब तक इसके शीर्षक से रासलीला और रामलीला शब्दों को हटा नहीं लिया जाता, लेकिन प्रश्न ये उठता है कि केवल कुछ राज्यों में इस पर विरोध जताया गया ना कि सभी राज्यों में । ऐसे में क्या यह मान लिया जाना चाहिए कि इस फिल्म का शीर्षक केवल एक राज्य के लिए आपत्तिजनक है बाकी राज्यों के लिए नहीं।

अगर फिल्म के भीतर की विषय-वस्तु की बात की जाये तो इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो किसी धर्म-विशेष की भावनाओं को आहत करता हो। फिल्म के शीर्षक में जिस शब्द पर विवाद हुआ है वो दरअसल फिल्म के नायक और नायिका के किरदारों के अलग-अलग नाम है , राम और लीला, जो किसी भी पौराणिक घटना से सम्बन्ध नहीं रखते बल्कि एक क्षेत्रीय समाज के दो अलग-अलग जातियों से सम्बन्ध रखने वाले पात्र हैं । शायद यही सोच इसे क्लीन चिट देने वाले सेंसर बोर्ड की भी रही हो लेकिन फिल्म बनाने से पहले हर निर्देशक ये विचार ज़रूर करता है कि उसकी फिल्म को किन-किन मुसीबतों का सामना करना पड़ सकता है तो ऐसे में संजय लीला भंसाली को इस बात का पूर्वानुमान कैसे न लग पाया कि भारत जैसे विविध जाति-धर्मों वाले देश में उस शीर्षक पर विवाद की सम्भावनायें हो सकती हैं जो उन्होंने अपनी फिल्म के लिये चुना है। एक सवाल ये भी उठता है कि कहीं निर्देशक ने इसी विवाद का अनुमान पहले से लगा लिया हो और ये एक पब्लिसिटी स्टंट रहा हो जिससे दर्शकों के बीच अधिक उत्सुकता उत्पन्न हो सके ।

इस फिल्म के अलावा भी कई सारी फिल्मों पर समय-समय पर प्रतिबन्ध लगते रहे हैं। कुछ ही दिनों पहले मद्रास कैफे और विश्वरूपम जैसी फिल्मों को भी बैन का सामना करना पड़ा था और काफी मेहनत मशक्क़त के बाद इन्हें रिलीज़ का मौक़ा मिला लेकिन इन फिल्मों के विवादों में घिरने  का कारण इनका शीर्षक नहीं बल्कि इनकी विषय वस्तु थी जो अलग अलग समस्याओं पर केन्द्रित थी। दोनों ही फिल्मों को आलोचकों से अच्छी प्रतिक्रिया भी मिली। कहते हैं कि साहित्य समाज का दर्पण होता है ठीक उसी प्रकार आज की ये फिल्में भी तत्कालीन समाज के इतिहास को ख़ुद में समेटती हुई दिखती हैं और यदि बार-बार ऐसे प्रासंगिक विषयों पर बनने वाली फिल्मों को बैन का सामना करना पड़ेगा तो कहीं ऐसा न हो कि निर्देशक सामयिक मुद्दों पर फिल्में बनाने से कतराने लगें।

ऐसे में फिल्म स़र्टिफिकेशन बोर्ड यानि सेंसर बोर्ड का अस्तित्व  और उसके अधिकार भी खतरे में ही नज़र आने लगते हैं। फिल्मों पर होती ये बैनलीला अगर यूँ ही चलती रही तो  निकट भविष्य में सेंसर बोर्ड की संवेदनशीलता पर भी सवालिया निशान लग सकता है कि क्या सेंसर बोर्ड फिल्मों पर अपना सही निर्णय दे पाने में सक्षम नहीं है ।
        
कुल मिलाकर सेंसर बोर्ड और निर्देशकों की ज़िम्मेदारी तो अहम है ही बल्कि किसी फिल्म के नाम या विषय-वस्तु आदि पर विवाद की सम्भावना को देखते हुये इन्हें  देश की सर्वोच्च अदालत के संज्ञान पर भी छोड़ा जा सकता है ताकि इसका पूर्ण भविष्य अलग-अलग राज्यों में नहीं बल्कि केन्द्र में तय हो सके और समाज के दर्पण पर जमने वाली धूल को एक बार में ही साफ किया जा सके।   
   

Wednesday 20 November 2013

विकास की ओर

तुम कहते हो कि
हम पिछड़े हैं,
तुम्हे क्यूँ विकास ये दिखता नहीं,
हम बढ़ रहे है विकास की  ओर.……
विकास महिला-अस्मिता को  तार-तार करने का,
विकास टूटे मन के साथ … अपनी बात कहने का …
विकास दिखावे का.…
विकास दिखावे का पर्दाफाश करने का
कोई कहता था कि बढ़ते बलात्कार के मामले अशिक्षा  से जन्में  हैं.…
तो फिर शिक्षा के साथ क्या जन्मा है ?
"मर्यादित यौन - उत्पीड़न"……

किसी ने कहा था -
महिलायें रात को सन्नाटे भरी गलियों में असुरक्षित हैं.....
तो फिर अकेली न होकर भी किसी अपने के साथ वो क्या हैं ?
उनकी वासना -पूर्ति का ज़रिया ?

लेकिन विकास यहीं नहीं रुकता …… 
विकास की  हदें बदल चुकी हैं ,
आवाज़ दबे शब्दों में ही सही …
सर उठा रही है …

कोई बाबा किसी नाबालिग को सीए की  जगह  डीएड की  डिग्री का लालच देकर भी ,
 अब शायद उसकी आवाज़ नहीं दबा सकता ……
आज अस्मिता भंग होने की स्थिति में भी वो दबे शब्दों से चीख-चीख कर कह रही है ,
मै  भी इस विकास का हिस्सा हूँ  ,
हम बढ़ ही तो रहे हैं विकास की  ओर!