Wednesday 30 October 2013

"एक कदम पीछे"

कभी-कभी जब पार करनी हो कोई गहरी खाई,
तो दूर से दौड़ कर आने के लिए,
एक ऊंची छलांग लगाने के लिए,
लेना पड़ता है एक कदम पीछे,
समेटने को अपनी ऊर्जा और देने को अपनी छलांग को ऊँचाई,
तभी पार हो पाती है कोई खाई,
वो एक कदम पीछे लेने को तैयार हूं मैं,
ऐ खाई तू ना डरा मुझे,
ऐ किस्मत तू ना रूला मुझे..
देख लूँगी तुझे भी अच्छी तरह,
उस पार ज़रा आने दे मुझे,
एक कदम पीछे बढ़ाने दे मुझे,
खाई के उस पार आने दे मुझे,
क्यूंकि मैं एक पल को झुक सकती हूँ,
एक बूढ़े पेड़ के नीचे,
पर मैंने रूकना नहीं सीखा,
चलते -चलते गर सांस भी थम जाये,
तो गम नहीं, ग़म तो यूँ भी जमाने में कम नहीं,
पर मुझे पता है कि मुझमें है अक्षय ऊर्जा का भंडार,
जो रौशन कर सकता है चंद लोगों का संसार,
मुझे उन चंद लोगों की तलाश है,..
मुझे कर्म की बस प्यास है,
ऐ खाई तू ना डरा मुझे...अब भी बाकी आस है,
एक कदम पीछे बढ़ाने दे मुझे... जब तक मुझमें सांस है।।




Saturday 19 October 2013

पापा गूगल पर नहीं मिलेंगे


नया ज़माना है, नई आदतें हैं,
बिन तस्वीरों के कोई लेख चेपे नहीं जाते,

पर आज बड़े दिनों के बाद बचपन का एक वाक़या याद आया,
जब पिता जी ने हमें ज़मीन पर था,फुटबॉल की तरह लुढ़काया,
मेरे शरीर को कभी लड़की का नाज़ुक शरीर नहीं समझा,
मेरी हर गलती की गुंजाईश पर होती थी मेरी सुताई,
जितनी मेरे भाई की होती थी पिटाई,
पापा दोनों की ग़लतियों पर बराबर सज़ा देते,
लेकिन ज़्यादा प्यार मुझे ही देते,
ये कहकर कि – मेरा बेटा तो तू है, ये लड़का तो मेरी नाक कटायेगा

वस्तु-विक्रय का दौर मेरे भी बचपन ने देखा था,
जब एक सामान के बदले दूसरा सामान मिल जाया करता था,
गांव में हुआ करती थी तम्बाकू की खेती,
और घर में रखी होती थी सुर्ती (तम्बाकू) के पत्तों की गड्डी,
जिसे दादा जी हर शाम हाट पर बेचने जाया करते थे,
और हम वहां अपनी छुट्टियां बिताया करते थे,

उस दिन दरवाज़े पर आया था एक घुघनी (लाई-फुटहा) वाला,
ताऊ जी के बेटे ने मुझसे मंगाई थी , आगंन में रखी वो तम्बाकू की एक गड्डी,
तब मैं आठ साल की थी और भईया पन्द्रह के,
उन्हें पता था कि वो मुझसे जो करवा रहे हैं , उसे चोरी कहते हैं,
पर मेरी नज़रों में वो मेरे लिए किसी बड़े की आज्ञा मानने जैसा था,
क्योंकि मुझसे ये नहीं कहा गया था कि ये काम मुझे चोरी-छिपे करना है,
मैं हमेशा की तरह निर्भीक,निडर,चंचल सी दौड़ती हुई आंगन से एक तम्बाकू की गड्डी उठाये हुए चलने लगी,
पर तभी आंगन के सामने वाले कक्ष में लेटे पिता जी को मेरे आने की आहट हुई,
उन्होंने आवाज़ लगाकर रोका और नींद से उठकर आये,
पूछा- कहाँ ले जा रही हो ये ?”

उस वक्त ये महसूस हुआ कि शायद मुझसे कोई ग़लती हुई है,
पर इससे पहले कि मैं कोई जवाब दे पाती,
पिता जी का गुस्सा सातवें आसमान पर,
और पड़ने लगे मुझे एक के बाद एक ज़ोरदार थप्पड़,
कुछ कहने की कोशिश करती उससे पहले ही पिता जी के मन में
मेरी बेईमानी की छवि ने उन्हें तिलमिला कर रख दिया था,
फुटबाल की तरह मारते हुए एक उबड़-खाबड़ आंगन से वो मुझे दूसरे आंगन तक लुढ़का कर ले आए थे,
उनके गुस्से के आगे, मम्मी, ताई जी, दादी , घर की किसी भी महिला की बोलने की हिम्मत ना हुई,
पास में खड़े बड़े भईया की सिट्टी-पिट्टी ही गुम गई,
मेरी मां ने बीच-बचाव करने की थोड़ी बहुत कोशिश की,
लेकिन सच्चाई और ईमानदारी के नाम पर तो वो भी बड़ी साहसी महिला थीं,
मन घबरा रहा था, फिर भी मेरे निर्दोष साबित ना होने तक वो भी मुझे बचा ना पातीं,

अंततः मैंने ही हिम्मत जुटाई, और इतनी बुरी तरह से पीटे जाने के बीच भी
खुद को सम्भालते हुए पास में पड़ी अपनी चप्पल उठाई,
और तब तक अपने दोनों गालों पर ताबड़ तोड़ चलाई,
जब तक पिता जी मेरी बात सुनने को तैयार न हुए,
मैं रोती जा रही थी,अपने गालों पर लगातार चप्पलें बरसाते हुए,
कह रही थी- और मारो मुझे, और मारो, पर मैंने चोरी नहीं की, मैं छिपा कर नहीं जा रही थी,मुझे भईया ने कहा था
और इतना ही कहना था कि पास खड़े भईया ने चिल्लाना शुरू कर दिया,
नहीं दादा जी मैंने कुछ नहीं किया, दादा जी मैंने कुछ नहीं किया, (वो मेरे पिता जी को दादा  जी कहा करते थे)
और तो और पास खड़ी ताई जी का गला सूखने लगा कि अब तो मेरे बाद भ्ईया की बारी है,
ये सोचकर वो भईया के बचाव में आ खड़ी हुईं- मेरा बेटा ऐसा नहीं कह सकता
जबकि मां होने के नाते वो अच्छी तरह से अपने बेटे को जानती थीं,

लेकिन मेरे मुंह से सच सुनते ही पापा जैसे एक पल के लिए ख़ामोश से हो गये,
तुरंत मुझे गोद में उठाया, सीने से लगाया,
और मम्मी से ठंडे तेल की शीशी और दो बिस्किट के पैकेट लेकर अंदर आने को कहा,
और मुझे पुचकारते हुए अंदर लिए जा रहे थे,
उनकी आवाज़ पिछले आंगन में खड़े भईया, ताई जी,चाची जी और दादी के कानों तक भी पहुंच रही थी जब वो पुचकारते हुए कह रहे थे- मेला बेटा, शब गन्दे हैं, मेले बच्चे को गन्दी बात सिखाते हैं, किशी की बात मत सुनना, मेला लाजा बेटा।
और शीशी भर तेल से मेरे माथे पर मालिश करते हुए ,
मुझे दोनों हाथों में बिस्किट के पैकेट थमा कर,
मुझे अपने सीने से चिपटा कर,सुला दिया था पापा ने,

उस दिन जो नींद आई थी, वो आज तक ना आ सकी,
और वो शब्द आज भी कानों में वैसे ही गूँज रहे हैं जैसे तब थे,
पापा आज इस दुनिया में नहीं है, और उनके लिए कुछ लिखकर
पोस्ट करना हो तो उनकी तस्वीर भी नहीं है,
पर उनकी नसीहतें, ईमानदारी, सच्चाई और लगन
आज भी मुशिक्लों में मेरा हौंसला बढ़ाती है।
पापा की तस्वीर दिल में है, क्योंकि पापा गूगल पर नहीं मिलेंगे। 
  


Sunday 13 October 2013

"गाँव ओजस्विनी के प्रेम का"

इन दिनों देख रही हूँ,
एक गाँव  को क़रीब से,

जो उसके और मेरे सपनों का गाँव है,
उस गाँव के किरदारों को देखते ही जी उठता है मेरा पहला प्यार,
उसके और मेरे बचपन की पसंद का वो आशियाना..

वो गाँव जहाँ न वो गया है और न ही मैं,
पर वो गाँव हमारे दिलों में बसता है...
क्यूँकि जो सच्चाई है इस गाँव के किरदारों के दिल में,
वैसी ही परछाईं है ओजस्विनी की हर महफिल में,

वो शमां जलाती है हर रोज़ सौन्दर्य के लिए,
पर सौन्दर्य भी अपनी आदतों की सोहबत से कहाँ कच्चा है ?
नहीं आता वो ओजस्विनी की चौखट पर आज भी,
क्यूँकि दिल से वो भी तो सच्चा है।।

उसे मुँह मोड़ कर गये एक बरस से भी अधिक बीत चुका है,
पर ओजस्विनी और सौन्दर्य ने अब तक एक -दूजे की सुध नहीं ली,
पर दोनों ही बड़ी शिद्दत से आज भी  अपने प्यार को सींच रहे हैं,
ओजस्विनी आज भी शमां जला रही है और सौन्दर्य अपनी ज़िद से 
उसे उतनी ही शिद्दत से बुझा रहा है ।

ये गाँव आप सबने देखा होगा,
जिसके किरदार बड़े ही सहज और सरल हैं,
जिनकी अपनी ही एक दुनिया है,
जो मेरी कहानी के दोनों किरदारों के संचार क्षेत्र का 
समान अवयव है,
वो गाँव मालगुडी है , जहाँ ओज और सौन्दर्य के विचार- प्रेम का उद्भव है।।