ओजस्विनी आज बंधन में है...
सर से पैर तक ....
मस्तिष्क से मन तक...
ह्रदय से स्पंदन तक....
मानो कोई बाँध रहा है उसे...
एक ऐसी रस्सी से,
जिसकी मज़बूत गिरफ्त से बाहर निकलने की कोशिश में,
उसकी आत्मा पर होंगे काले गहरे निशान,
जैसे रस्सी की घिसन से सिल पर भी पड़ जाता है निसान।
इसमें उस पत्थर का क्या कसूर ...
वो तो जड़ है , भावनारहित है..
उसे नहीं चाहिए कोई बंधन...
तभी तो वह प्रस्तर है।
सूर्य की किरण कहाँ करती है कक्ष में विश्राम,
उसे तो चाहिए प्रसृत होने को एक खुला आसमान,
उसे आस पास के अंधियारे से घुटन हो रही है....
क्यूंकि उस बंद कमरे के दरवाज़े की झिर्री से गुजर कर ,
वो कैद है उस कक्ष के भीतर और अँधियारा ज्यों का त्यों उसे चिढ़ा रहा है ,
जी चाहता है की तोड़ के सारे बंधन वो आग लगा दे
अंधियारे को जला दे.....
पर सहम जाती है ,
ये सोचकर कि किसी का अस्तित्व मिटाना उसने नहीं सीखा।
वो तो अँधेरे में भी अपनी जगह बनाना जानती है...
पर आज वो उदास है क्यूंकि उसे चाहिए कुछ और ...
खुली खिड़कियाँ , खुले शीशे,खुले दरवाज़े जहाँ से दबे पाँव जाने की ज़रुरत न पड़े....
और पूरा आसमान उसका हो ,जहाँ सब उसके साथ चलें और अँधेरे को भी उससे प्रेम हो जाये
वो सुकून देने वाली छाया बनकर अपना अस्तिव बचाए रखे ओजस्विनी की किरण के साथ
और कर दे ओजस्विनी को अपने बंधन से आज़ाद।