Thursday 12 September 2013

बंधन


ओजस्विनी आज  बंधन में है...  
सर से पैर तक ....
मस्तिष्क  से मन तक... 
ह्रदय से स्पंदन तक.... 
मानो कोई बाँध रहा है उसे... 
एक ऐसी रस्सी से, 
जिसकी मज़बूत गिरफ्त से बाहर  निकलने  की कोशिश में, 
उसकी  आत्मा पर होंगे काले गहरे निशान, 
जैसे रस्सी की घिसन से सिल पर भी पड़ जाता है निसान। 

इसमें उस पत्थर का क्या कसूर ...
वो तो जड़ है , भावनारहित है.. 
उसे नहीं चाहिए कोई बंधन... 
तभी तो वह प्रस्तर है। 

सूर्य की किरण कहाँ करती है कक्ष में विश्राम, 
उसे तो चाहिए प्रसृत होने को एक खुला आसमान, 
उसे आस पास के अंधियारे से घुटन हो रही है.... 
क्यूंकि उस बंद कमरे के दरवाज़े की झिर्री से गुजर कर ,
वो कैद है उस कक्ष के भीतर और अँधियारा ज्यों का त्यों उसे चिढ़ा रहा है ,

जी चाहता है की तोड़ के सारे  बंधन वो आग लगा दे 
अंधियारे को जला दे..... 
पर सहम जाती है ,
ये सोचकर कि किसी का  अस्तित्व मिटाना उसने नहीं सीखा। 

वो तो  अँधेरे में भी अपनी जगह बनाना जानती है...
पर आज वो उदास है क्यूंकि उसे चाहिए कुछ और ...
खुली खिड़कियाँ , खुले शीशे,खुले दरवाज़े   जहाँ से दबे पाँव जाने की ज़रुरत न पड़े....
और पूरा आसमान उसका हो ,जहाँ सब उसके साथ चलें और अँधेरे को भी उससे प्रेम हो जाये 
वो सुकून देने वाली छाया बनकर अपना अस्तिव बचाए रखे ओजस्विनी की किरण के साथ  
और  कर दे ओजस्विनी को अपने बंधन से आज़ाद। 



Thursday 5 September 2013

शमशान की रेत पर

बचपन भी हर किसी का उतना ही जुदा होता है
जितना की जीवन ……
वो छोटा सा लड़का जिसने बचपन की डेहरी पर
देखा उस सच को इतने समीप से….
जिसकी कल्पना भी नहीं कर सकता हमारा स्वप्न
यौवन की दहलीज़ से ....

वो छोटा सा लड़का जिसे पता भी  नहीं था कि  उसके हाथों में कौन सा खिलौना है…
खोद कर मिटटी को निकाले  थे  उसने खेलने को कुछ हड्डियों के टुकड़े
अधजली लाशों को घसीट कर ,खींच कर, निकाल  कर, नोच कर....
 ले जाता वो उन्हें मरघट के उस पार....
काट देता हाथ उन लाशों के और फ़ेंक देता वहीँ ज़मीन पर...

बड़े चाव से खाता था वो मुर्दों के लिए रखा हुआ स्वादिष्ट भोजन...
और ले जाता खेलने को खाली  हुए वो बर्तन...
जो रख जाते थे मृतक के परिजन उसकी चिता  के समीप...
पहन कर झूमता ,इठलाता था मुफ्त के चढ़ावे से चोरी किये कंगन...

कुछ लोग मरने वाले की अंतिम इच्छा  के तौर पर रख जाते थे शराब
पर उन्हें क्या पता था कि  कौन नशा करता है मौत के उस पार ......
ऐसा भयावह, विषम बचपन ख़ुशी से जिया था उसने अपने छुटपन की दहलीज़ पर
शमशान की रेत पर....। 







Sunday 1 September 2013

लिव-इन में रह लीजिए!

चल पड़ा है ज़माना इतनी रफ्तार से..
कि रूकेगा कहाँ ना इसे है ख़बर...
ऐसा टूटा है लोगों का अब तो सबर..
कूदे-फांदे चले हैं वो हर राह पर....

पूछते अब नहीं लड़के – बॉयफ्रेण्ड है या नहीं
उठाते हैं प्रश्न सीधे अब वर्जिनिटी पर…..
लड़कियाँ भी रही कम ना होंगी तभी तो..
हैं लड़के पहुँचे आज इस मोड़ पर....

कोई कैसे रखे अब विवाह-प्रस्ताव..
जवाब आता है- लिव-इनमें रह जाओ...
हम कहते हैं , ये क्यूँ भला....
जब लिव-विथका ऑप्शन है खुला हुआ...

सरकार भी  अपनी लिव-इन के मज़े उठा रही है..
गिरती अर्थव्यव्स्था का आरोप एक-दूजे पर लगा रही है...

कल को स्कूलों में जन्म प्रमाण-पत्र नहीं,
डी.एन.ए. रिपोर्ट मांगी जायेगी...
आने वाली पीढ़ी ग़ैर-ज़िम्मेदार कहायेगी...

सवाल ये है कि ऊर्जा से भरपूर और कर्म को समर्पित ये युवा
शादी से क्यूँ घबरा रहे हैं.....
बेरोज़गारी का तमगा डरा रहा है उन्हें ..
या कि बेवजह अल्डड़ और मस्त हुए जा रहे हैं...

सालों साल चलाते हैं प्रेम-सम्बन्ध...
पर विवाह से पहले ही विच्छेद तक पहुँच जाते हैं...
ये तो बड़ी आम बात है, ख़ास ये है कि...
यदि कोई एक तरफा प्रेम में है तब भी उसे ना नहीं मिलती...
मिल जाता है एक जवाब- देखिए,हम विवाह नहीं कर सकते,एक काम कीजिए,

लिव-इन में रह लीजिए