Friday 29 November 2013

फिल्मों पर होती बैनलीला



सत्रहवीं शताब्दी में जन्मे अंग्रेज़ी साहित्य के महान कवि जॉन मिल्टन अपनी पुस्तक अरियोपेजेटिकामें कहते हैं कि किताबों के माध्यम से एक व्यक्ति का पूरा जीवन जो कि विभिन्न हिस्सों के रूप में एक पुस्तक में समाहित होता है जिसे हम जनता में बिखेर देते हैं, उस पर रोक लगाना एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति की हत्या किये जाने के समान है। मिल्टन की यह पुस्तक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अपना समर्थन प्रदान करने के उद्देश्य से लिखी गई थी जो उनकी महान रचनाओं में से एक है।

आज इस पुस्तक की याद अनायास ही नहीं आई बल्कि जब-जब विचारों की स्वतंत्रता या फिर किसी रचनात्मक अभिव्यक्ति पर रोक लगती है तो ये विचार मन में आ ही जाता है।

हाल ही में संजय लीला भंसाली की फिल्म गोलियों की रासलीला-रामलीलाअपने शीर्षक को लेकर विवाद का विषय बनी जबकि फिल्म को सेंसर बोर्ड यानि फिल्म सर्टिफिकेशन बोर्ड द्वारा पहले ही पास किया जा चुका था। उत्तर-प्रदेश में तो इसे सिनेमा-हॉल में लगाये जाने के लगभग एक सप्ताह बाद सिनेमा हॉल से उतारा गया और तब तक इसे वापस ना लगाये जाने का फैसला किया गया जब तक इसके शीर्षक से रासलीला और रामलीला शब्दों को हटा नहीं लिया जाता, लेकिन प्रश्न ये उठता है कि केवल कुछ राज्यों में इस पर विरोध जताया गया ना कि सभी राज्यों में । ऐसे में क्या यह मान लिया जाना चाहिए कि इस फिल्म का शीर्षक केवल एक राज्य के लिए आपत्तिजनक है बाकी राज्यों के लिए नहीं।

अगर फिल्म के भीतर की विषय-वस्तु की बात की जाये तो इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो किसी धर्म-विशेष की भावनाओं को आहत करता हो। फिल्म के शीर्षक में जिस शब्द पर विवाद हुआ है वो दरअसल फिल्म के नायक और नायिका के किरदारों के अलग-अलग नाम है , राम और लीला, जो किसी भी पौराणिक घटना से सम्बन्ध नहीं रखते बल्कि एक क्षेत्रीय समाज के दो अलग-अलग जातियों से सम्बन्ध रखने वाले पात्र हैं । शायद यही सोच इसे क्लीन चिट देने वाले सेंसर बोर्ड की भी रही हो लेकिन फिल्म बनाने से पहले हर निर्देशक ये विचार ज़रूर करता है कि उसकी फिल्म को किन-किन मुसीबतों का सामना करना पड़ सकता है तो ऐसे में संजय लीला भंसाली को इस बात का पूर्वानुमान कैसे न लग पाया कि भारत जैसे विविध जाति-धर्मों वाले देश में उस शीर्षक पर विवाद की सम्भावनायें हो सकती हैं जो उन्होंने अपनी फिल्म के लिये चुना है। एक सवाल ये भी उठता है कि कहीं निर्देशक ने इसी विवाद का अनुमान पहले से लगा लिया हो और ये एक पब्लिसिटी स्टंट रहा हो जिससे दर्शकों के बीच अधिक उत्सुकता उत्पन्न हो सके ।

इस फिल्म के अलावा भी कई सारी फिल्मों पर समय-समय पर प्रतिबन्ध लगते रहे हैं। कुछ ही दिनों पहले मद्रास कैफे और विश्वरूपम जैसी फिल्मों को भी बैन का सामना करना पड़ा था और काफी मेहनत मशक्क़त के बाद इन्हें रिलीज़ का मौक़ा मिला लेकिन इन फिल्मों के विवादों में घिरने  का कारण इनका शीर्षक नहीं बल्कि इनकी विषय वस्तु थी जो अलग अलग समस्याओं पर केन्द्रित थी। दोनों ही फिल्मों को आलोचकों से अच्छी प्रतिक्रिया भी मिली। कहते हैं कि साहित्य समाज का दर्पण होता है ठीक उसी प्रकार आज की ये फिल्में भी तत्कालीन समाज के इतिहास को ख़ुद में समेटती हुई दिखती हैं और यदि बार-बार ऐसे प्रासंगिक विषयों पर बनने वाली फिल्मों को बैन का सामना करना पड़ेगा तो कहीं ऐसा न हो कि निर्देशक सामयिक मुद्दों पर फिल्में बनाने से कतराने लगें।

ऐसे में फिल्म स़र्टिफिकेशन बोर्ड यानि सेंसर बोर्ड का अस्तित्व  और उसके अधिकार भी खतरे में ही नज़र आने लगते हैं। फिल्मों पर होती ये बैनलीला अगर यूँ ही चलती रही तो  निकट भविष्य में सेंसर बोर्ड की संवेदनशीलता पर भी सवालिया निशान लग सकता है कि क्या सेंसर बोर्ड फिल्मों पर अपना सही निर्णय दे पाने में सक्षम नहीं है ।
        
कुल मिलाकर सेंसर बोर्ड और निर्देशकों की ज़िम्मेदारी तो अहम है ही बल्कि किसी फिल्म के नाम या विषय-वस्तु आदि पर विवाद की सम्भावना को देखते हुये इन्हें  देश की सर्वोच्च अदालत के संज्ञान पर भी छोड़ा जा सकता है ताकि इसका पूर्ण भविष्य अलग-अलग राज्यों में नहीं बल्कि केन्द्र में तय हो सके और समाज के दर्पण पर जमने वाली धूल को एक बार में ही साफ किया जा सके।   
   

Wednesday 20 November 2013

विकास की ओर

तुम कहते हो कि
हम पिछड़े हैं,
तुम्हे क्यूँ विकास ये दिखता नहीं,
हम बढ़ रहे है विकास की  ओर.……
विकास महिला-अस्मिता को  तार-तार करने का,
विकास टूटे मन के साथ … अपनी बात कहने का …
विकास दिखावे का.…
विकास दिखावे का पर्दाफाश करने का
कोई कहता था कि बढ़ते बलात्कार के मामले अशिक्षा  से जन्में  हैं.…
तो फिर शिक्षा के साथ क्या जन्मा है ?
"मर्यादित यौन - उत्पीड़न"……

किसी ने कहा था -
महिलायें रात को सन्नाटे भरी गलियों में असुरक्षित हैं.....
तो फिर अकेली न होकर भी किसी अपने के साथ वो क्या हैं ?
उनकी वासना -पूर्ति का ज़रिया ?

लेकिन विकास यहीं नहीं रुकता …… 
विकास की  हदें बदल चुकी हैं ,
आवाज़ दबे शब्दों में ही सही …
सर उठा रही है …

कोई बाबा किसी नाबालिग को सीए की  जगह  डीएड की  डिग्री का लालच देकर भी ,
 अब शायद उसकी आवाज़ नहीं दबा सकता ……
आज अस्मिता भंग होने की स्थिति में भी वो दबे शब्दों से चीख-चीख कर कह रही है ,
मै  भी इस विकास का हिस्सा हूँ  ,
हम बढ़ ही तो रहे हैं विकास की  ओर!

        

Wednesday 30 October 2013

"एक कदम पीछे"

कभी-कभी जब पार करनी हो कोई गहरी खाई,
तो दूर से दौड़ कर आने के लिए,
एक ऊंची छलांग लगाने के लिए,
लेना पड़ता है एक कदम पीछे,
समेटने को अपनी ऊर्जा और देने को अपनी छलांग को ऊँचाई,
तभी पार हो पाती है कोई खाई,
वो एक कदम पीछे लेने को तैयार हूं मैं,
ऐ खाई तू ना डरा मुझे,
ऐ किस्मत तू ना रूला मुझे..
देख लूँगी तुझे भी अच्छी तरह,
उस पार ज़रा आने दे मुझे,
एक कदम पीछे बढ़ाने दे मुझे,
खाई के उस पार आने दे मुझे,
क्यूंकि मैं एक पल को झुक सकती हूँ,
एक बूढ़े पेड़ के नीचे,
पर मैंने रूकना नहीं सीखा,
चलते -चलते गर सांस भी थम जाये,
तो गम नहीं, ग़म तो यूँ भी जमाने में कम नहीं,
पर मुझे पता है कि मुझमें है अक्षय ऊर्जा का भंडार,
जो रौशन कर सकता है चंद लोगों का संसार,
मुझे उन चंद लोगों की तलाश है,..
मुझे कर्म की बस प्यास है,
ऐ खाई तू ना डरा मुझे...अब भी बाकी आस है,
एक कदम पीछे बढ़ाने दे मुझे... जब तक मुझमें सांस है।।




Saturday 19 October 2013

पापा गूगल पर नहीं मिलेंगे


नया ज़माना है, नई आदतें हैं,
बिन तस्वीरों के कोई लेख चेपे नहीं जाते,

पर आज बड़े दिनों के बाद बचपन का एक वाक़या याद आया,
जब पिता जी ने हमें ज़मीन पर था,फुटबॉल की तरह लुढ़काया,
मेरे शरीर को कभी लड़की का नाज़ुक शरीर नहीं समझा,
मेरी हर गलती की गुंजाईश पर होती थी मेरी सुताई,
जितनी मेरे भाई की होती थी पिटाई,
पापा दोनों की ग़लतियों पर बराबर सज़ा देते,
लेकिन ज़्यादा प्यार मुझे ही देते,
ये कहकर कि – मेरा बेटा तो तू है, ये लड़का तो मेरी नाक कटायेगा

वस्तु-विक्रय का दौर मेरे भी बचपन ने देखा था,
जब एक सामान के बदले दूसरा सामान मिल जाया करता था,
गांव में हुआ करती थी तम्बाकू की खेती,
और घर में रखी होती थी सुर्ती (तम्बाकू) के पत्तों की गड्डी,
जिसे दादा जी हर शाम हाट पर बेचने जाया करते थे,
और हम वहां अपनी छुट्टियां बिताया करते थे,

उस दिन दरवाज़े पर आया था एक घुघनी (लाई-फुटहा) वाला,
ताऊ जी के बेटे ने मुझसे मंगाई थी , आगंन में रखी वो तम्बाकू की एक गड्डी,
तब मैं आठ साल की थी और भईया पन्द्रह के,
उन्हें पता था कि वो मुझसे जो करवा रहे हैं , उसे चोरी कहते हैं,
पर मेरी नज़रों में वो मेरे लिए किसी बड़े की आज्ञा मानने जैसा था,
क्योंकि मुझसे ये नहीं कहा गया था कि ये काम मुझे चोरी-छिपे करना है,
मैं हमेशा की तरह निर्भीक,निडर,चंचल सी दौड़ती हुई आंगन से एक तम्बाकू की गड्डी उठाये हुए चलने लगी,
पर तभी आंगन के सामने वाले कक्ष में लेटे पिता जी को मेरे आने की आहट हुई,
उन्होंने आवाज़ लगाकर रोका और नींद से उठकर आये,
पूछा- कहाँ ले जा रही हो ये ?”

उस वक्त ये महसूस हुआ कि शायद मुझसे कोई ग़लती हुई है,
पर इससे पहले कि मैं कोई जवाब दे पाती,
पिता जी का गुस्सा सातवें आसमान पर,
और पड़ने लगे मुझे एक के बाद एक ज़ोरदार थप्पड़,
कुछ कहने की कोशिश करती उससे पहले ही पिता जी के मन में
मेरी बेईमानी की छवि ने उन्हें तिलमिला कर रख दिया था,
फुटबाल की तरह मारते हुए एक उबड़-खाबड़ आंगन से वो मुझे दूसरे आंगन तक लुढ़का कर ले आए थे,
उनके गुस्से के आगे, मम्मी, ताई जी, दादी , घर की किसी भी महिला की बोलने की हिम्मत ना हुई,
पास में खड़े बड़े भईया की सिट्टी-पिट्टी ही गुम गई,
मेरी मां ने बीच-बचाव करने की थोड़ी बहुत कोशिश की,
लेकिन सच्चाई और ईमानदारी के नाम पर तो वो भी बड़ी साहसी महिला थीं,
मन घबरा रहा था, फिर भी मेरे निर्दोष साबित ना होने तक वो भी मुझे बचा ना पातीं,

अंततः मैंने ही हिम्मत जुटाई, और इतनी बुरी तरह से पीटे जाने के बीच भी
खुद को सम्भालते हुए पास में पड़ी अपनी चप्पल उठाई,
और तब तक अपने दोनों गालों पर ताबड़ तोड़ चलाई,
जब तक पिता जी मेरी बात सुनने को तैयार न हुए,
मैं रोती जा रही थी,अपने गालों पर लगातार चप्पलें बरसाते हुए,
कह रही थी- और मारो मुझे, और मारो, पर मैंने चोरी नहीं की, मैं छिपा कर नहीं जा रही थी,मुझे भईया ने कहा था
और इतना ही कहना था कि पास खड़े भईया ने चिल्लाना शुरू कर दिया,
नहीं दादा जी मैंने कुछ नहीं किया, दादा जी मैंने कुछ नहीं किया, (वो मेरे पिता जी को दादा  जी कहा करते थे)
और तो और पास खड़ी ताई जी का गला सूखने लगा कि अब तो मेरे बाद भ्ईया की बारी है,
ये सोचकर वो भईया के बचाव में आ खड़ी हुईं- मेरा बेटा ऐसा नहीं कह सकता
जबकि मां होने के नाते वो अच्छी तरह से अपने बेटे को जानती थीं,

लेकिन मेरे मुंह से सच सुनते ही पापा जैसे एक पल के लिए ख़ामोश से हो गये,
तुरंत मुझे गोद में उठाया, सीने से लगाया,
और मम्मी से ठंडे तेल की शीशी और दो बिस्किट के पैकेट लेकर अंदर आने को कहा,
और मुझे पुचकारते हुए अंदर लिए जा रहे थे,
उनकी आवाज़ पिछले आंगन में खड़े भईया, ताई जी,चाची जी और दादी के कानों तक भी पहुंच रही थी जब वो पुचकारते हुए कह रहे थे- मेला बेटा, शब गन्दे हैं, मेले बच्चे को गन्दी बात सिखाते हैं, किशी की बात मत सुनना, मेला लाजा बेटा।
और शीशी भर तेल से मेरे माथे पर मालिश करते हुए ,
मुझे दोनों हाथों में बिस्किट के पैकेट थमा कर,
मुझे अपने सीने से चिपटा कर,सुला दिया था पापा ने,

उस दिन जो नींद आई थी, वो आज तक ना आ सकी,
और वो शब्द आज भी कानों में वैसे ही गूँज रहे हैं जैसे तब थे,
पापा आज इस दुनिया में नहीं है, और उनके लिए कुछ लिखकर
पोस्ट करना हो तो उनकी तस्वीर भी नहीं है,
पर उनकी नसीहतें, ईमानदारी, सच्चाई और लगन
आज भी मुशिक्लों में मेरा हौंसला बढ़ाती है।
पापा की तस्वीर दिल में है, क्योंकि पापा गूगल पर नहीं मिलेंगे। 
  


Sunday 13 October 2013

"गाँव ओजस्विनी के प्रेम का"

इन दिनों देख रही हूँ,
एक गाँव  को क़रीब से,

जो उसके और मेरे सपनों का गाँव है,
उस गाँव के किरदारों को देखते ही जी उठता है मेरा पहला प्यार,
उसके और मेरे बचपन की पसंद का वो आशियाना..

वो गाँव जहाँ न वो गया है और न ही मैं,
पर वो गाँव हमारे दिलों में बसता है...
क्यूँकि जो सच्चाई है इस गाँव के किरदारों के दिल में,
वैसी ही परछाईं है ओजस्विनी की हर महफिल में,

वो शमां जलाती है हर रोज़ सौन्दर्य के लिए,
पर सौन्दर्य भी अपनी आदतों की सोहबत से कहाँ कच्चा है ?
नहीं आता वो ओजस्विनी की चौखट पर आज भी,
क्यूँकि दिल से वो भी तो सच्चा है।।

उसे मुँह मोड़ कर गये एक बरस से भी अधिक बीत चुका है,
पर ओजस्विनी और सौन्दर्य ने अब तक एक -दूजे की सुध नहीं ली,
पर दोनों ही बड़ी शिद्दत से आज भी  अपने प्यार को सींच रहे हैं,
ओजस्विनी आज भी शमां जला रही है और सौन्दर्य अपनी ज़िद से 
उसे उतनी ही शिद्दत से बुझा रहा है ।

ये गाँव आप सबने देखा होगा,
जिसके किरदार बड़े ही सहज और सरल हैं,
जिनकी अपनी ही एक दुनिया है,
जो मेरी कहानी के दोनों किरदारों के संचार क्षेत्र का 
समान अवयव है,
वो गाँव मालगुडी है , जहाँ ओज और सौन्दर्य के विचार- प्रेम का उद्भव है।।




Thursday 12 September 2013

बंधन


ओजस्विनी आज  बंधन में है...  
सर से पैर तक ....
मस्तिष्क  से मन तक... 
ह्रदय से स्पंदन तक.... 
मानो कोई बाँध रहा है उसे... 
एक ऐसी रस्सी से, 
जिसकी मज़बूत गिरफ्त से बाहर  निकलने  की कोशिश में, 
उसकी  आत्मा पर होंगे काले गहरे निशान, 
जैसे रस्सी की घिसन से सिल पर भी पड़ जाता है निसान। 

इसमें उस पत्थर का क्या कसूर ...
वो तो जड़ है , भावनारहित है.. 
उसे नहीं चाहिए कोई बंधन... 
तभी तो वह प्रस्तर है। 

सूर्य की किरण कहाँ करती है कक्ष में विश्राम, 
उसे तो चाहिए प्रसृत होने को एक खुला आसमान, 
उसे आस पास के अंधियारे से घुटन हो रही है.... 
क्यूंकि उस बंद कमरे के दरवाज़े की झिर्री से गुजर कर ,
वो कैद है उस कक्ष के भीतर और अँधियारा ज्यों का त्यों उसे चिढ़ा रहा है ,

जी चाहता है की तोड़ के सारे  बंधन वो आग लगा दे 
अंधियारे को जला दे..... 
पर सहम जाती है ,
ये सोचकर कि किसी का  अस्तित्व मिटाना उसने नहीं सीखा। 

वो तो  अँधेरे में भी अपनी जगह बनाना जानती है...
पर आज वो उदास है क्यूंकि उसे चाहिए कुछ और ...
खुली खिड़कियाँ , खुले शीशे,खुले दरवाज़े   जहाँ से दबे पाँव जाने की ज़रुरत न पड़े....
और पूरा आसमान उसका हो ,जहाँ सब उसके साथ चलें और अँधेरे को भी उससे प्रेम हो जाये 
वो सुकून देने वाली छाया बनकर अपना अस्तिव बचाए रखे ओजस्विनी की किरण के साथ  
और  कर दे ओजस्विनी को अपने बंधन से आज़ाद। 



Thursday 5 September 2013

शमशान की रेत पर

बचपन भी हर किसी का उतना ही जुदा होता है
जितना की जीवन ……
वो छोटा सा लड़का जिसने बचपन की डेहरी पर
देखा उस सच को इतने समीप से….
जिसकी कल्पना भी नहीं कर सकता हमारा स्वप्न
यौवन की दहलीज़ से ....

वो छोटा सा लड़का जिसे पता भी  नहीं था कि  उसके हाथों में कौन सा खिलौना है…
खोद कर मिटटी को निकाले  थे  उसने खेलने को कुछ हड्डियों के टुकड़े
अधजली लाशों को घसीट कर ,खींच कर, निकाल  कर, नोच कर....
 ले जाता वो उन्हें मरघट के उस पार....
काट देता हाथ उन लाशों के और फ़ेंक देता वहीँ ज़मीन पर...

बड़े चाव से खाता था वो मुर्दों के लिए रखा हुआ स्वादिष्ट भोजन...
और ले जाता खेलने को खाली  हुए वो बर्तन...
जो रख जाते थे मृतक के परिजन उसकी चिता  के समीप...
पहन कर झूमता ,इठलाता था मुफ्त के चढ़ावे से चोरी किये कंगन...

कुछ लोग मरने वाले की अंतिम इच्छा  के तौर पर रख जाते थे शराब
पर उन्हें क्या पता था कि  कौन नशा करता है मौत के उस पार ......
ऐसा भयावह, विषम बचपन ख़ुशी से जिया था उसने अपने छुटपन की दहलीज़ पर
शमशान की रेत पर....। 







Sunday 1 September 2013

लिव-इन में रह लीजिए!

चल पड़ा है ज़माना इतनी रफ्तार से..
कि रूकेगा कहाँ ना इसे है ख़बर...
ऐसा टूटा है लोगों का अब तो सबर..
कूदे-फांदे चले हैं वो हर राह पर....

पूछते अब नहीं लड़के – बॉयफ्रेण्ड है या नहीं
उठाते हैं प्रश्न सीधे अब वर्जिनिटी पर…..
लड़कियाँ भी रही कम ना होंगी तभी तो..
हैं लड़के पहुँचे आज इस मोड़ पर....

कोई कैसे रखे अब विवाह-प्रस्ताव..
जवाब आता है- लिव-इनमें रह जाओ...
हम कहते हैं , ये क्यूँ भला....
जब लिव-विथका ऑप्शन है खुला हुआ...

सरकार भी  अपनी लिव-इन के मज़े उठा रही है..
गिरती अर्थव्यव्स्था का आरोप एक-दूजे पर लगा रही है...

कल को स्कूलों में जन्म प्रमाण-पत्र नहीं,
डी.एन.ए. रिपोर्ट मांगी जायेगी...
आने वाली पीढ़ी ग़ैर-ज़िम्मेदार कहायेगी...

सवाल ये है कि ऊर्जा से भरपूर और कर्म को समर्पित ये युवा
शादी से क्यूँ घबरा रहे हैं.....
बेरोज़गारी का तमगा डरा रहा है उन्हें ..
या कि बेवजह अल्डड़ और मस्त हुए जा रहे हैं...

सालों साल चलाते हैं प्रेम-सम्बन्ध...
पर विवाह से पहले ही विच्छेद तक पहुँच जाते हैं...
ये तो बड़ी आम बात है, ख़ास ये है कि...
यदि कोई एक तरफा प्रेम में है तब भी उसे ना नहीं मिलती...
मिल जाता है एक जवाब- देखिए,हम विवाह नहीं कर सकते,एक काम कीजिए,

लिव-इन में रह लीजिए

Wednesday 28 August 2013

मैं निरी नास्तिक

मैं निरी नास्तिक सी हो गयी हूँ,
आज अपनी पण्डिताई से गई हूँ,
ना ही पूजन,न ही अर्चन, न किया स्नान मैंने,
न चढ़ाये श्याम को कुछ पुष्प मैंने,
ना ही मैं आज किसी मंदिर गई हूँ,,
मैं निरी नास्तिकी सी हो गई हूँ।।

ना ही भोजन सात्विक था, ना ही राजसी था,
तामसिक भोजन का सेवन कर रही हूँ,
मैं  निरी नास्तिकी सी हो गई हूँ।।

धर्म में विश्वास मेरा कब नहीं था,
पर धर्म की परिभाषाएं गढ़ते हम ग़लत हैं,
कर्म ही पूजा है”, कहती कृष्ण-गीता,
उस कर्म-पथ पर नेत्र मूँदें चल रही हूँ,
मैं निरी नास्तिक सी हो गई हूँ।।

आज जन्मेंगे कृष्ण फिर से ,
हर तरफ बस शंख की ध्वनियाँ बजेंगी,
हर कोई उस प्रेम का प्रसाद लेगा,
पर मैं कलंकित और अभागन सी खड़ी हूँ,
मैं निरी नास्तिक सी हो गई हूँ।।

श्याम मन में हैं नहीं, राम ने मुझको है छोड़ा,
न ही सीता बन सकी , न ही मैं अब राधा ही रही हूँ,
मैं निरी नास्तिकी सी हो गई हूँ।।
ग़र मुझे मिल जायें नारायण तो गणिका भी बनने को खड़ी हूँ,
प्रेम जीवन में नहीं है,झोलियाँ फैलाये खड़ी हूँ,
मैं निरी नास्तिकी सी हो गई हूँ।।

पर मेरा विश्वास अब भी आस्तिक है,
मन है पावन और तन भी स्वास्तिक है,
मन में कान्हा प्रेम की बंसी निरंतर बज रही है,
और ह्रदय में आत्मा तुझे भज रही है,
हे कृष्ण मुझ पर भी तू डाल दे अपनी परछांई,
क्योंकि तमस में मैंने ज्योति अक्सर है पाई,
ग़र मैं फिर भी संसार को लगती हूँ अधर्मी,
तो मुझे बनना नहीं दिखावे का धर्मी,
अपनी बिगड़ी चाल में ही रम गई हूँ,
मैं निरी नास्तिक सी ही सही हूँ।।

मैं निरी नास्तिक सी ही सही हूँ।।

Saturday 24 August 2013

ख़ुदी में ख़ुदा

ख़ुद ही ख़ुद को तू ख़ोदेगा तो खोदे कम नहीं होगा,
तू जितना खोदेगा ख़ुद को कभी बंजर नहीं होगा,
ख़ुदी से कर ले ये वादा ,कभी गुमसुम नहीं होगा,
अगर जो तुझमें हिम्मत है , ख़ुदा फिर तेरे संग होगा।।

तुझे क्या सीख कोई दे, किसी की नकल क्या करना,
तुझे दिन-रात है, ख़ुद की बनाई राह पर चलना,
कोई तुझसे ग़र ये कह दे कि तूने उससे सीखा है,
उसे ख़ुद ही पता होगा कि तूने किससे सीखा है।।

किसी की क़ामयाबी पर तू न जलना, न ही बुझना,
ख़ुद ही ख़ुद को जला इतना, तपा इतना,
कि सौ फ़ीसद ख़रा सोना, तुझे ख़ुद ही से है बनना,
समझ ले ख़ुद की ताकत को, ज़माने से है क्या डरना।।

ख़ुद ही से तेरी हस्ती है, ख़ुद ही से है तेरा नग़मा,
तू सुनना ख़ुद के दिल की ही, वही करना जो ख़ुद कहना,
ख़ुदी को कर बुलन्द इतना, किया न हो ख़ुदा ने भी जितना,
तभी पूछेगा ख़ुदाया भी, बता क्या है तेरी तक़दीर में लिखना,
ख़ुदी को कर बुलन्द इतना, ख़ुदी को कर बुलन्द इतना।।  




मेरी सड़क

यूँ तो हर बात हम फ़ौरन ही कहा करते थे,
पर इस बार ज़रा देर हुई ,ज़िन्दगी का एक रास्ता अब ख़त्म हुआ और फ़िर ...
खड़े हैं चौराहे पर हम.....एक रास्ता मंज़िल की तरफ जाता है ,
एक रास्ता घर की तरफ जाता है,
एक रास्ते पर ठोकरें इंतज़ार कर रही हैं....
एक रास्ते पर सुनहरी यादें खड़ी हैं....
यादों वाला रास्ता चुनना बेवकूफी है क्योंकि यादों के साथ मुस्कुरा कर किसी दूसरे रास्ते पर बढ़ जाना ही समझदारी है,
घर की तरफ़ रूख़ करने का मतलब है,मंज़िल को यहीं से अलविदा कह देना.....पर फिर चौराहे तक आने की जद्दोजहद बरबाद चली जायेगी......
मंजिल की तरफ़ सीधा जाने वाला रास्ता बड़ा ही सपाट सा और जल्दी पहुँचा देने वाला प्रतीत हो रहा है पर इस रास्ते पर ना जाने कितने ऐसे गढ्डे हैं जो दूर से नज़र नहीं आ रहे.......क्योंकि जितने भी लोग इस सड़क पर गये कभी उन्हें दुबारा इस चौराहे पर ना देखा ......
वो चौराहा जिसने इन्हें आगे तक जाने का रास्ता दिया.....
ये सब सोचकर वो ठोकरों वाला रास्ता नज़र आया.....
जिस पर कोई जाना नहीं चाहता....क्योंकि उसका उबड़-खाबड़पन पहले ही सबको विचलित सा कर देता है.....
उस रास्ते से मंज़िल भी नज़र नहीं आती क्योंकि वो इतना पथरीला है कि रास्ते का छोर दिखता ही नहीं...
पर मन कहता है कि इस रास्ते पर क़ामयाबी सौ फीसद पक्की है क्योंकि ये रास्ता भले ही पथरीला हो इसलिए
वक्त लगे पर ये रास्ता है बहुत छोटा.......इस रास्ते को चुनकर तू इस चौराहे को ना भूलेगी और वापस शुक्रिया अदा करने ज़रूर आयेगी......न घर छूटेगा,न यादें, न मंज़िल,और ठोकरें तो सदा से ही तेरी अपनी रही हैं...जो तुझसे अथाह प्रेम करती हैं.........

(अंतिम पंक्तियां लिखते हुए महान कवि Robert Frost याद आए जो कहते हैं-“Two roads diverged in a wood,&

  I Took The One less travelled by, And that has made all the difference” –( The Road not taken) से साभार..)