Sunday 20 September 2015

हुज़ूर अब जाने भी दीजिये....


कल से लेकर आज तक हमने मानवीय संवेदना का एक पहलू बख़ूबी देखा । 65 वर्ष के वृद्ध टंकण बाबा उर्फ़ कृष्ण कुमार जी को तो उनकी रोज़ी रोटी का ज़रिया वापस मिल गया लेकिन यदि मानवीय संवेदना के दूसरे पहलू पर दृष्टि डाली जाये तो उपनिरीक्षक प्रदीप यादव जी के निलम्बन के बाद उनका परिवार किस मानसिक दबाव की स्थिति से गुज़र रहा होगा ? इस ओर शायद हमारा ध्यान न जाये कि भारत की पुलिस व्यवस्था आज भी उसी स्थिति में है जैसे पहले थी । सुधार के लिए लगातार काम किये तो जा रहे हैं लेकिन ये एक बहुत बड़ी चुनौती है ।

उदाहरण के तौर पर सोचिये कि हमारे परिवार में यदि कोई उद्दण्ड या दुष्ट व्यक्ति भी होता है तो क्या हम उसे कभी उसकी ग़लतियों के लिए माफ नहीं करते ? करते हैं, उसकी हर उद्दण्डता भी सहते हैं क्योंकि उसे हम अपना समझते हैं । प्रदीप जी ने जो किया वो ग़लत किया पर आख़िर ऐसी कौन सी परिस्थितियां रही होंगी जो एक पुलिस वाले को सार्वजनिक स्थान पर अपनी भड़ास इस तरह निकालने के लिए विवश करती हैं ? कभी- कभी आप भी किसी परेशानी की वजह से अपने साथी मित्रों के साथ दुर्व्यवहार करते हैं, पर धीरे-धीरे सब ठीक हो जाता है । हर व्यक्ति को अपनी ग़लती सुधारने का एक अवसर तो मिलना ही चाहिये ।

महान समाजशास्त्री ईमाइल दुर्खीम जी आत्महत्या के सिद्धांत में समाज की प्रतिक्रियाओं को दोषी बताते हैं, जो सच भी है । ठीक उसी तरह पुलिस के इस व्यवहार के लिये भारत की पुलिस व्यव्स्था से ऊपजा असंतोष और समाज का पुलिस के प्रति घृणात्मक रवैय्या भी उतना ही उत्तरदायी है । जिस दृष्टि से हम उन्हें देखते हैं, वैसा ही व्यवहार उनमें उपजता है । कल से उपनिरीक्षक महोदय को लगातार सब कोसे जा रहे हैं, पर हम ये जानने में शायद ही दिलचस्पी रखते हों कि वो किसी मानसिक परेशानी में तो नहीं।

एक और उदाहरण के तौर पर आप ही सोचिये कि छोटी-छोटी असुविधाओं के लिये हम हड़ताल और धरने पर बैठ जाते हैं। वेतन समय से न मिलने पर शोर मचा देते हैं । प्रोन्नति (promotion) न मिलने  पर हमारा प्रोत्साहन(Morale) कमज़ोर पड़ जाता है तो फिर चौबीसों घंटे जनता की सुरक्षा में तत्पर रहने वाली पुलिस जो न दिन देखती है, न रात, जिसे कई-कई दिनों तक अपने परिवार का चेहरा देखना नसीब नहीं हो पाता । जिनके पास कई बार बैठने को थाने नहीं होते, ग़श्त (Petroling) के लिए डीजल उधार लाना पड़ता है, लाश मिलने पर उसके मिलने से पोस्टमार्टम तक का ख़र्च कई बार अपनी जेब से भरना पड़ता है। सालों साल एक ही पद पर घिसते रहते हैं। ऐसी पुलिस से हम सौम्य व्यवहार की उम्मीद कैसे कर सकते हैं ? क्या ये हमारा दायित्व नहीं कि हम हर पुलिस वाले को शक़ की नज़र से न देखें ? अपने रिश्तों में कड़वाहट को थोड़ा कम करने का प्रयास करें । मध्य प्रदेश में आईपीएस रह चुकी अनुराधा शंकर जी ने एक टीवी साक्षात्कार में कहा था- हम अपनी पुलिस को नरक जैसी परिस्थितियों में रखते हैं और नरक से यमदूत ही निकलते हैं, देवदूत नहीं।

भारत में कई अलग-अलग स्तरों पर पुलिस की भर्ती होती है और इस कारण हर व्यक्ति को आगे बढ़ने का अवसर समानता से उपलब्ध नहीं हो पाता जबकि हमारे देश में 200 वर्षों तक राज करने वाले ब्रितानी लोग स्वयं अपने देश में इस व्यवस्था का पालन नहीं करते । वहां प्रत्येक पुलिसकर्मी कॉन्सटेबल के पद से शुरू होकर डीजी स्तर तक पहुँचता है । परीक्षायें होती हैं, उन्नति के समान अवसर मिलते हैं ।

सन् 1996 में पद्मश्री से सम्मानित एवं उत्तर-प्रदेश के सेवा- निवृत्त डायरेक्टर जनरल श्री प्रकाश राज जी ने सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की थी जिसमें पुलिस व्यवस्था पर से राजनैतिक नियंत्रण को कम करने की अपील की गई थी । 22 सितम्बर,2006 को इस मामले में फ़ैसला देते हुये सुप्रीम कोर्ट ने हस्तानान्तरण में राजनैतिक नियंत्रण को कम करने के साथ ही डायरेक्टर जनरल जैसे पद के चुनाव के लिए लोक सेवा आयोग द्वारा तीन योग्य उम्मीदवारों का चयन करने एवं राज्य सरकारों को उन तीन में से किसी एक योग्य व्यक्ति का चयन करने का प्रावधान दिया । जिससे कि पक्षपात कम हो सके लेकिन थॉमस कमेटी की रिपोर्ट आने तक किसी भी राज्य सरकार ने इसे लागू नहीं किया अर्थात् एक तरह से सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों का उल्लंघन किया गया ।

इन सबके बीच भी कुछ ईमानदार और भले पुलिस अफ़सरों के किस्से सामने आते रहे । हमने उत्तर प्रदेश के एक पुलिसकर्मी को इसी सोशल मीडिया पर एक बच्ची को गले लगाये अस्पताल ले जाते देखा  तो इंदौर में यातायात पुलिस के रंजीत जी से जनता को इतना प्रेम करते देखा कि जनता उनके बिना रह न सकी। 1090 ने बहुतों की समस्या हल की तो वहीं न जाने कितनी बार हम आम नागरिकों के झूठ के कारण बेवजह पुलिस परेशान होती रही।

कुछ समय पहले मेरे द्वारा एक  लघुशोधकार्य किया गया था जिसमें पुलिस के प्रति जनता में से सकारात्मक हुये कुछ चन्द लोगों की प्रतिक्रिया मात्र से कुछ पुलिसकर्मी इतने ख़ुश दिखे कि लगा शायद जनता के प्रेमपूर्ण व्यव्हार से ही कुछ बदलाव आ जाये । अन्त में बस इतना ही कहना है कि प्रयास कीजिये कि हम पुलिस को वो सम्मान दें सकें जिससे उन्हें जनता का मित्र बनने का प्रोत्साहन मिल सके ।


राज्य सरकारों को जनता के साथ मानवीय संवेदना से पेश आने वाले पुलिसकर्मियों एवं अधिकारियों को निष्पक्ष रूप से प्रोत्साहित एवं सम्मानित करना होगा और जनता को थोड़ा धैर्य से काम लेना होगा । निलम्बन की सजा पूरी करने के बाद सुधार का एक अवसर अवश्य दिया जाना चाहिये। जब अंगुलिमाल का हृदय परिवर्तन हो सकता है तो पुलिस का क्यों नहीं, लेकिन इसमें जनता और सरकार दोनों की बराबर की भागीदारी सुनिश्चित होनी चाहिये । जिस तरह सच्चे पत्रकार सामने आ रहे हैं वैसे ही अच्छी पुलिस भी किसी बुरे आवरण में ढकी हुई है । आवरण हटाना होगा। अगर अच्छी पुलिस चाहिये तो एक हाथ दोस्ती का आप भी बढ़ाइये। हुज़ूर अब जाने भी दीजिये, आप भी माफ़ कर दीजिये ।   

Thursday 10 September 2015

माँ मुझे अख़बार चाहिए.....


तुम ढूंढ रही हो मेरे लिए एक साथी,
जो सुख में, दुख में हर पल मेरा साथ निभाये,
मेरे चेहरे पर पूर्णता का भाव जो लाये,
पर माँ कैसे कहूँ तुमसे,
मुझे नहीं तथाकथित समझदार चाहिये,
माँ मुझे एक अख़बार चाहिये ।।

देखा है मैंने बचपन में तुम्हें फूंकनी फूंकते हुये,
मजदूरों के लिए चूल्हा जलाते हुए,
और देखा है तुम्हें शहर में हमारे लिए दाना लाते हुए,
जो समझ सके इन पीड़ाओं को,
मुझे वो कलमकार चाहिये,
माँ मुझे एक जीता-जागता अख़बार चाहिये ।।

जो पिरो सके मेरे एहर-ओहर बिखरे शब्दों को एक माला में,
मुझे ऐसा एक बौद्धिक रचनाकार चाहिए,
माँ मुझे एक अदद अख़बार चाहिये ।।

न चाहिए विलायती, न शहरी,
न निर्धन, न धनी..
माँ मुझे आज़ादी का विचार चाहिये,
माँ मुझे जीता-जागता अख़बार चाहिये ।।

क़ैद भी रखे ग़र वो मुझे,
घर की चारदीवारी में,
घूँघट में, पल्लू में, पर्दे में, साड़ी में,
पर जो दे मुझे बाहरी दुनिया से सम्पर्क साधने के अवसर,
माँ मुझे बस सूचना का अधिकार चाहिये,
माँ मुझे एक अदद अख़बार चाहिये ।।

डरती रही हूँ देखकर अबतक,
जिन पुरूषों की कामोत्तेजना,
उनकी वासना में हो यदि माँझी सा दृढ़ आधार तो,
ऐसी संलिप्तता बार-बार चाहिये,
माँ मुझे एक अदद अख़बार चाहिये ।।

जो करे कटाक्ष बारम्बार, अपनी कलम की धार से,
जो डरे न, उच्च पदों के पलटते वार से,
निर्भीक हो चलता रहे, लिखता रहे,
जो दे सके धार मेरी भी कलम को,
माँ मुझे प्रोत्साहन का वो औज़ार चाहिये,
माँ मुझे एक अदद अख़बार चाहिये ।।

न बन सकी हूं अब तलक़ मैं वो पत्रकार,
फिर भी फाइव 'डब्लयू', वन 'एच' करते हैं मेरे मन पर प्रहार,
जो समझ सके इस हार्दिक पत्रकारिता की पेंग को,
और खींच सके इसका प्रतिबिम्ब अपने ह्रदय में,
मां मुझे वो अनूठा छायाकार चाहिये ।
मां मुझे एक जीता जागता अख़बार चाहिये ।।

न देना मुझे शादी में व्यवहार के लिफ़ाफे,
न ही दहेज के नाम पर कोई उपहार चाहिये,
माँ मुझे एक जीता-जागता अख़बार चाहिये ।।

पर उस अख़बार में हो संवेदनशीलता,
जो ढकोसलों से दूर हो,
केवल छप जाना ही न हो जिसका धर्म,
अपने काले पुते पन्नों पर जिसे आती हो शर्म,
जो जला सके क्रांति की चिंगारी और बदलाव की बयार,
माँ मुझे वो क्रांतिकार चाहिये,
माँ मुझे एक ऐसा पत्रकार चाहिये,
माँ मुझे एक अदद जीता-जागता अख़बार चाहिये ।।

यदि न मिले अख़बार ऐसा,
तो माँ बस रहने दे मेरे हिस्से तुझ सा सादा जीवन,
और बाबा जैसे उच्च विचार चाहिये,
नहीं चाहिये कोई अख़बार,
माँ मुझे तेरे आंचल में ही संसार चाहिये,
माँ मुझे बस तेरा प्यार चाहिये,
और साथ में अपनी कलम की धार चाहिये।।


 
         

Wednesday 26 August 2015

देश के प्रमुख समाचार पत्रों के सम्पादकों के नाम पत्र


आदरणीय सम्पादक जन,
भारतीय समाचार पत्र
भारत

महोदयों,

एक भारतीय नागरिक का आप सभी विद्वजनों से निवेदन है कि कृपया भारतीय संविधान की प्रस्तावना के विषय में स्मरण करने का प्रयास करें । जो कहता है  हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को : सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढाने के लिए दृढ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 0 (मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी, सम्वत् दो हजार छह विक्रमी) को एतद द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।"

अब ज़रा एक नज़र आज के लगभग सभी बड़े अख़बारों की मुख्य-पृष्ठ की सुर्खियों पर-

·         हिन्दू घटे, मुस्लिम बढ़े
·         हिन्दुओं की धीमी, मुस्लिमों की तेज़  (आबादी की रफ़्तार)....{देश-विदेश वाले पेज तक जारी }
·         यूपी में हिंदू-सिख घटे, मुस्लिम-ईसाई बढ़े.....
·         Hindu Proportion of India’s Population less than 80%

अब यदि भारतीय संविधान की प्रस्तावना के आधार पर देखा जाये तो उपर्युक्त शीर्षकों में क्या है भारत के लोगों की परिभाषा ? कौन हैं "हम भारत के लोग" ? कहां हैंं सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न राज्य  की झलक ? कहाँ है समाजवादी सोच जहां सबको मिले समान अधिकार ? यहांं तो गणना ही इस आधार पर जारी की जा रही है ताकि वोट बैंक बांटे जा सकें और हमारे लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ आज स्तम्भ के स्थान पर सत्ता का शस्त्र बना दिख रहा है । आज धार्मिक आंकड़े जारी हुए हैं, तो वहीं जातिगत आंकड़ों को जारी करने की मांग बढ़ गई है । दरअसल हर कोई अपने-अपने वोट बैंक को पहचानना जो चाहता है । ये जनगणना नहीं, ये धार्मिक और जातिगत मतगणना है । अब काहे की पंथ निरपेक्षता और कैसा लोकतंत्र ? जब एक धर्म- निरपेक्ष राष्ट्र के समाचार पत्र ऐसी छवि प्रस्तुत कर रहे हों । 


यह सत्य है कि न्याय अब भी कहीं न कहीं जीवित है, विचारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी है किन्तु धर्म और उपासना की स्वतंत्रता के नाम पर स्वतंत्रता केवल नाम मात्र की है क्या ?  जब आप और हम ये मानते हैं कि भारत का धर्म सहिष्णुता मेंं निहित है तो कैसे कर सकते हैं हम ये अनुदार व्यवहार ? अब क्या वर्तमान सरकार इन आंकड़ों के अनुसार मंदिर, मस्ज़िद, गिरिजाघर बनवायेगी ?

क्या विकास के बाकी सारे मुद्दों पर कार्य पूर्ण हो चुका है ? 

यदि आय के आधार पर एकत्रित आंकड़ों को सार्वजनिक किया गया होता और आप जैसे भद्र जनों ने आर्थिक आधार पर मेधावियों को आरक्षण देने का मुद्दा उठाया होता तो अधिक प्रसन्नता होती । यदि ये आंकड़े देश के विभिन्न हिस्सों की साक्षरता वृद्धि या लिंगानुपात समानता को दर्शाते तो भी बहुत संतोष मिलता । चलिए ये आंकड़े जारी हुए भी तो क्या , एक ज़िम्मेदार जनमत निर्माता होने के नाते आपको क्या करना चाहिए था ? 

आदरणीय वरिष्ठ जनों आपको स्मरण हो कि हम बचपन से आज तक पढ़ते आये – "हिन्दू- मुस्लिम, सिख-ईसाई, आपस में सब भाई-भाई ", तो आज भाईयों की संख्या कैसे गिनने लगे ? कोई और नज़रिया नहीं था क्या हमारे पास ? क्या आवश्यक था धर्म के आधार पर जनगणना को इतने बड़े स्तर की ख़बर बनाना अंदर से आत्मा ने धिक्कारा नहीं ? ईद पर बड़े चाव से सिवईयां खाते हैं, क्रिसमस और न्यू ईयर की पार्टी करते हैं और फिर इस तरह का जनमत निर्माण करते हुए अपनी ज़िम्मेदारी का एहसास नहीं हुआ हमें ? किसी ने इस ख़बर को छापने का कोई दूसरा तरीका नहीं पाया ? संवेदनाओं के इस देश में हमारी संवेदनायें ऐसी कब हो गईं ? हो सकता है कि  आप सभी विद्व जनों का तात्पर्य वो न हो जो हम जैसे मूर्ख  समझ रहे हों, किन्तु क्या करें , सभी आप जैसे बुद्धिजीवी तो नहीं । उन्हें तो क्रोध आया ही होगा जो तथाकथित भक्त हैं और वे आपकी मंशा को पूरा भी कर देंगे । 68 वर्ष पहले तक जो अंग्रेज़ करते थे, वो अब हम स्वयं अपने साथ कर रहे हैं । अख़बार की ये हेडलाइन्स तय करने के बाद भी क्या आप सब अपने आस-पास या फिर अपने ही कार्यालय में काम करने वाले किसी सरफ़राज के साथ वैसे ही चाय की चुस्कियों का मज़ा ले पायेंगे जैसे अब तक लेते आये हैं ? क्या किसी आफ़ताब की आंखों में अपने लिए वही प्यार देख पायेंगे जो अब तक देख रहे थे या फ़िर आप सबको इससे कोई असर ही नहीं पड़ता ?

राखी क़रीब है, रानी कर्मवती की आत्मा भी जब सोचती होगी कि जो हुमाँयू उसका संदेश मिलते ही भागा चला आया था, उसकी आने वाली पीढ़ियों को इस तरह गिना जायेगा । अग़र ख़बर थी भी तो इसे गौण बनाना तो आपके हाथ में रहा होगा ना ? क्या ये भी तय करने का अधिकार हमने इंसानों के चोले वाले भगवानों को सौंप रखा है ?

माना कि पत्रकारिता अब मिशन नहीं रही, पर क्यों इस पेशे की बची खुची इज़्जत की नीलामी इस क़दर कर रहे हैं हम ! पता नहीं, ये सब हम जैसे नागरिकों की समझ से बाहर है । हम स्वयं को किंकर्त्व्यविमूढ़ पा रहे हैं । हमारे पास पत्रकारिता का कोई अनुभव नहीं है लेकिन अग़र अनुभवी और वरिष्ठ पत्रकारों की समझ ऐसी होती है तो हम मूर्ख ही बेहतर हैं । हो सकता है कि हमें इस पेशे की बारीकियों की जानकारी न हो इसलिए हम ऐसा कह रहे हों किन्तु क्या करें मन की अकुलाहट और छटपटाहट ने कोई चारा भी नहीं छोड़ा था । यदि अल्पज्ञता के कारण कुछ भी ग़लत कहा हो तो  मैं भारत का एक आम नागरिक क्षमाप्रार्थी हूं । अन्त में ये पंक्तियां जो बचपन में किसी कक्षा में पढ़ी थीं-

तुम राम कहो, वो रहीम कहें, दोनों की ग़रज़ अल्लाह से है।
तुम दीन कहो, वो धर्म कहें, मंशा तो उसी की राह से है।
क्यों लड़ता है मूरख बंदे, यह तेरी ख़ाम ख़याली है।
है पेड़ की जड़ तो एक वही, हर मज़हब एक-एक डाली है।


मन को यदि सुकुन मिला तो ये देखकर कि देश में चन्द फीसदी लोग ऐसे भी हैं जिनका कोई धर्म नहीं । काश ! पूरा देश ऐसा धर्महीन हो जाता और अपने कर्तव्यों को अपना धर्म बना पाता और आप सब अपना पत्रकारिता धर्म उचित रूप से निभा पाते । इस काश ! की कल्पना कब पूर्ण होगी पता नहीं किन्तु आशा है कि आप भी कभी आत्मावलोकन करेंगे और अपने उत्तरदायित्व को समझेंगे । भावी पीढ़ियों के लिए रास्ता बनाईये , रास्तों में  संकीर्ण मानसिकता के अवरोध नहीं । धन्यवाद ।
                                                                                                                                                                                                                                                               प्रार्थी

                                                                                                                                                                                                                                                       एक भारतीय नागरिक                                                                                                

Sunday 8 March 2015

जब तक तुम हो, मैं हूँ.....

अजीब इत्तफाक़ है, तुम्हीं ने मुझे कमज़ोर बनाया, डराया,धमकाया,
तुम्हीं मेरे दुश्मन बने बैठे थे ज़माने में,जिसके कारण ज़माने ने मुझे हद में रहना सिखाया,
तुम्हीं थे जिसकी घूरती निगाहों से मैं घबराई थी, चकराई थी,
पर फिर तुम्हीं थे जिसने मेरे लिए आवाज़ उठाई थी, तुम्हीं थे जिसने प्यार से देखा तो मुझे अपनी ख़ूबसूरती का एहसास हुआ,
तुम्हीं थे ,जो मुझे अनदेखा करके निकल गए तो अपनी कमी का आभास हुआ,
तुम्हीं से बचना था और तुम्हारे लिए ही सजना था,
मैं खुला हीरा हूँ जिसे हर कोई चुरा सकता है, उस हीरे के जौहरी भी तुम्हीं थे...
मैं तो सड़क पर पड़ा मिठाई का डिब्बा हूँ जिसे कोई भी कुत्ता नोंच कर खा सकता है, वो कुत्ते भी तुम्हीं थे...
मुझे अवहेलना मिली, तो वो भी तुम्हारी मर्ज़ी थी,
मेरे तन को ग़र तेरा एहसास मिला तो वो भी तेरी ही अर्ज़ी थी,
मेरी रज़ामंदी से कब तूने मुझे पाया, मैंने समर्पण कर दिया तो वो प्यार कहलाया,
और ना किया तो बलात्कार कहलाया....
जब तलक़ दिल किया,जी बहलाया, जब चाहा तब हाथ छुड़ाया,
तेरी ही तारीफ़ से मेरा रंग निखर जाता और जब तेरा लहज़ा बदल जाता तो अभद्र टिप्पणियों का दौर नज़र आता..
तेरे ही साये में मैंने ख़ुद को महफूज़ पाया, तेरे ही गन्दी निगाहों से ख़ौफ खाया...
मेरा तो कुछ था ही नहीं,
जो था सब तुम्हारा था ....ये संघर्ष मेरा कभी था ही नहीं,
ये युद्ध था पुरूष बनाम पुरूष का.....
विरोध भी तुम्हारा था और साथ भी तुम्हारा था....
फिर काहे का महिला दिवस और काहे की बधाई....
आज भी महिलाओं को सम्मान देते हो तो इसलिए कि अच्छे पुरूष कहला सको...
और नहीं देते तो इसलिए ताकि उन्हें दबा सको....
कभी ख़ुशी से, दिल से बराबरी का हक़ दे पाओगे ?
क्या वो तुम्हारा नेतृत्व करे तो सह पाओगे.....
यदि वो तुमसे अधिक सफल हो, तो भी क्या तुम मुस्कुराओगे....
क्या बिस्तर पर उससे पूछोगे,उसकी इच्छाएँ और साथ घटी दुर्घटनायें...
या अब भी सफेद चादर बिछा कर, उस पर तोहमत लगाओगे....
सच चुभ रहा है ना ?  क्या सोच रहे हो नहीं, नहीं मैं ऐसा नहीं हूँ....
तो फिर कैसे हो तुम ? ज़रा मुझे भी बताओ.....अपना हाथ बढ़ाओ....
क्या इस उज्जड महिला का भी सम्मान करोगे तुम ? जो ऐसे बेतुके सवाल करती है ?
जो बेशर्मी से इज़हार करती है.....
अगर तुम्हारा जवाब हाँ है तो – शुक्रिया
क्योंकि तुम्हारे बिना मैं कुछ नहीं......मैं तुमसे ही हूँ.....और संघर्षशील रहूँगी, जब तक तुम हो ।
  
 

Friday 20 February 2015

मन की फिरौती


कैसी ये अजब चुनौती है,
ख़ुद से ख़ुद की,
व्याकुल मन की,
ये कैसी एक फिरौती है,
जिस मोड़ को छोड़ बढ़े आगे,
जिस डोर से रिश्ता तोड़ लिया,
जब व्याकुल मन की पेंग बढ़ी,
फिर उनसे रिश्ता जोड़ लिया,
जल के भीतर भी चैन न था,
जल के बाहर ना साँस मिले,
भीतर- बाहर, बाहर-भीतर
इक पग ऊपर, पर फिर से अधर,
न जाने साहसी जीवन को है,
किसकी प्रतीक्षा और किसका डर,
ये मन की चाल न जाने, किसके घर की बपौती है !
ये कैसी अजब चुनौती है ।
ख़ुद से ख़ुद की,
व्याकुल मन की,
ये कैसी एक फिरौती है ।


Saturday 17 January 2015

उम्मीद की धुंधली किरण


कल शाम एक रेस्ट्रां में दो सहेलियाँ बात कर रही थीं। उनमें से एक लख़नऊ से थी और दूसरी दिल्ली से आई थी। लख़नऊ वाली ने पूछा – दिल्ली के क्या हाल हैं ?”  तो दिल्ली वाली बोली – हाल तो बढ़िया हैं, हम दिल्ली वाली लड़कियाँ आज भी स्ट्रेटनिंग कराने में काफी आगे हैं। हमारे स्टाईल और मेकअप के आगे कोई कहाँ टिकने वाला है।” 

इतने पर ही बात काटते हुए लख़नऊ वाली ने कहा – अरे ये सब तो ठीक है पर मौसम का मिज़ाज कैसा है तो वो बोली- यू नो, इट्स टू कोल्ड, लेकिन पॉलिटिकल गहमा-गहमी है।पहली वाली ने कहा–ज़रा खुल के बताओ तो दिल्ली वाली बोली – वो कोई किरण जी ने पॉलिटिक्स ज्वॉइन कर लिया है और लोग कह रहे हैं कि अच्छे दिन लाने में अब वो भी अपना कॉन्ट्रिब्यूशन देंगी।

इतना सुनते ही ये लख़नऊ वाली ख़ुशी के मारे तपाक से बोली –किरण जी, तुम्हारा मतलब मेरी आदर्श किरण जी ! 
दिल्ली वाली लड़की-ओएमजी ! ये एक रिएलिटी शो की जज के नाम पर तुम इतनी ख़ुश क्यों हो रही हो ? इसमें ऐसा भी क्या है

जवाब में लख़नऊ वाली लड़की बोली- अरे यार, अजीब हो, रिएलिटी शो की जज किरण जी तो बहुत पहले से राजनीति में हैं। लगता है तुम्हें अधूरी न्यूज़ पता है । ये तो वो किरण जी होंगी जो मेरी आदर्श हैं। मैं वो लड़की हूँ जो हर उस महिला की शुक्रगुज़ार है जिसने महिलाओं के लिए नये रास्ते खोले । पहली आईपीएस, पहली पर्वतारोही, क्रिकेट टीम की पहली महिला कप्तान, पहली महिला बॉक्सर, और पहली अमुक फलाँ...फलाँ.....। हर लड़की ने अपनी- अपनी रूचि के हिसाब से अपने आदर्श चुन लिए , लेकिन जिन लड़कियों का आईपीएस सेवा से कोई लेना देना नहीं था वो भी किरण जी को आदर्श मानती हैं। लेकिन मुझे उनके एक फ़ैसले पर अफ़सोस हुआ था जब उन्होंने चेहरे से मार्क्समिटाने वाली एक क्रीम का विज्ञापन किया था । उस वक़्त मैंने यही सोचा था कि ऐसी कौन से मजबूरी थी जिसने ऐसे उच्च आदर्शों वाली महिला को एक क्रीम का विज्ञापन करने पर विवश कर दिया था ।

दिल्ली वाली- ओहो, आई गॉट इट , बट ट्रुली स्पीकिंग यार उस क्रीम से तो मेरे चेहरे के मार्क्स, नो – मार्क्स में बदले ही नहीं...तेरी आइडियल ने भी झूठा वादा किया ना । ये सारे पॉलिटिशियन्स होते ही ऐसे हैं ।

लख़नऊ वाली – महोदया आपको कुछ पता भी है, मेरी किरण जी बहुत ईमानदार हैं , कभी बेईमानी नहीं की उन्होंने ।
दिल्ली वाली – क्या वो हमारे झाड़ू और धरना ट्रेंड सेटर से भी ज़्यादा ऑनेस्ट हैं ?
लख़नऊ वाली- जी हाँ,और तुम्हारे धरना कुमार के साथ हर क़दम पर खड़ी थीं हमारी किरण जी।
दिल्ली वाली(इस बार तंज कसते हुए) - अच्छा.... काफी दिन से साथ में ऐसी कोई उम्मीद की किरण दिखी नहीं ।
लख़नऊ वाली-(सोचते हुए..)- वो.....वो....वो तुम्हीं ने तो कहा कि अब वो अच्छे दिन लाने में कॉन्ट्रीब्यूशन देंगी ।
दिल्ली वाली – अच्छा हाँ, याद आया, मैं तो भूल ही गई थी । यस,यस यू आर राइट ।

(लेकिन इस पल में ही लख़नऊ वाली इस लड़की के मन में कुछ खटक सा गया और उसके बाद उसका लहज़ा बदलता चला गया ।)

लख़नऊ वाली- यार देखो, किरण जी चाहे आदर्शवादी और तुम्हारे ट्रेंड सेटर धरना कुमार के साथ खड़ी हों या फिर अच्छे दिन लाने की जुगत में....... कम से कम दोनों ही सूरतों में दिल्ली वालों के दोनों हाथों में लड्डू हैं । क्योंकि ईमानदार तुम्हारा धरना कुमार भी है और मेरी आदर्श किरण जी भी । कम से कम ख़ुशी मनाओ इस बात की , कि अगर वो इन चुनावों में खड़ी होती हैं तो दिल्ली एक बार फिर इतिहास दोहराएगी , बेहतर विकल्पों में टक्कर का इतिहास ।

दिल्ली वाली - यार दिल्ली की पब्लिक धरना कुमार से प्यार तो बहुत करती है लेकिन वोट............मुश्क़िल है । पर मुझे केजू से बड़ी हमदर्दी है। अकेले ही उसने सबकी हवा टाइट कर दी थी । राजस्थान की चीफ मिनिस्टर भी ट्रेंड फॉलो करने लगी थीं, ट्रैफिक़ सिग्नल पर वीआईपी गाड़ियाँ रूकने लगी थीं । बड़े- बड़े मंत्री गाँधी-गाँधी चिल्लाने लगे थे , लेकिन ग़लती केजू की ही है , उसे राजनीति का एक्सपीरिएन्स नहीं था ना , इसलिए उसने दिल्ली की जनता के प्यार और विश्वास में पूरे देश के प्यार और विश्वास की उम्मीद लगा ली.....उसे लगा शायद पूरा देश उसे पसंद करता है ...और फिर दिल्ली तो उसकी अपनी है, उस पर फिर भरोसा कर लेगी और ये सोच कर मेरे केजू ने दिल्ली की कुर्सी का मोह त्याग दिया। कोई और होता तो एक गद्दी तब तक ना छोड़ता जब तक उसे दूसरी नई और बड़ी गद्दी ना मिल जाये । बस यहीं ग़लती हो गई मेरे केजू से......नादान था ना ......जबकि मोटा भाई को ही ले लो...उन्होंने पहले जाल बिछाया...बड़ी कुर्सी का इंतज़ाम किया और उसके बाद छोटी कुर्सी पर अपनी पसंद के मोहरे को बिठा दिया ...और क्या पता इस बार दिल्ली इलेक्शन्स में एक और मोहरा उस बड़ी कुर्सी की ताकतों को कॉन्ट्रीब्यूशन दे दे । काश ! तेरी किरण जी ने मेरे केजू का साथ दिया होता तो शायद आज मेरे केजू की हालत कुछ और होती पर क्या करें आख़िर तेरी किरण जी हैं तो इंसान ही...कुछ एम्बिशंस तो उनकी भी होंगी ना। तेरी किरण जी की असली परीक्षा तो अब होगी कि वो अपनी ज़िन्दगी भर की ईमानदारी की  जमापूँजी को ख़र्च करेंगी और उससे दिल्ली को ख़रीदने की कोशिश की जा सकती है ।

(लख़नऊ वाली लड़की की आंखे फटी की फटी रह गईं कि आख़िर ये दिल्ली वाली फैशनपरस्त लड़की ने इतना सोच कैसे लिया । उसके दिमाग़ में घंटियाँ बजने लगीं। फिर उसने थोड़ा दिमाग़ दौड़ाया और सोचा कि अपनी किरण जी को सही कैसे साबित करे और फिर इस निष्कर्ष पर पहुँची ।)

लख़नऊ वाली लड़की- यार देख, मेरी किरण जी की ईमानदारी पर तो किसी को भी शक़ नहीं है तो अगर उनकी सेना रामसेना निकली तो वो हनुमान की भूमिका में जनता और जनता के सेवक राम की सहायक कहलायेंगी और यदि उनकी सेना रावणसेना निकली तो वो विभीषण की भूमिका में होंगी और अच्छाई का साथ किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ेंगी, और इस तरह उम्मीद  की किरण को धुंधली नहीं पड़ने देंगी ।

(ये पूरा वाक़या देखते सुनते मैं 2 कप कॉफी ख़त्म कर चुकी थी । भला हो उस कॉफी का जिसने मुझे बिठाये रखा और उन्हें लगाए रखा ।)

डिस्कलेमर- धार्मिक नामों का उल्लेख प्रतीकों के रूप में किया गया है। किसी की भी धार्मिक भावनाएं आहत करने की लेखक की मंशा नहीं है ।)