Friday 19 December 2014

रौशनी

घुटन हो रही है....
जलन हो रही है.....उस वाक़ये के घटने से पहले से ही चुभन सी हो रही है...
ना पता था कि इतना कुछ यूँ ही घट जायेगा....कि एक पल में मुझे उस घुटन का अंजाम नज़र आयेगा....
बुरे ख़्वाब से भी बुरी है ये हकीक़त......जैसे उजड़ ही गई है दुनिया-ए-अक़ीदत...
कभी ये भी ख़्याल नहीं आता कि बुरे ख़्वाब में भी ऐसा मंज़र नज़र आये....
कि नन्हें इन्सानी फ़रिश्तों का लहू , हैवान बहाये......
अगर सच में तुमने अपनी नन्हीं जानों के दर्द को जिया होता.....
तो तुम आज बदले की शमाँ न जलाते....लहू के बदले लहू न बहाते..... 
बहाना ही था तो अपनी हैवानियत को गहरे दरिया में बहाते...
अमन की रौशनी की एक लौ तुम ही जलाते....... 
तुम्हारे किए की सज़ा तुम्हारे मासूमों को मिली थी ऐ तालिबान...
क्यों अपने मासूमों को बना रहे थे तुम आने वाले कल का शैतान.......
मानते हैं कि दर्द तुमने भी जिया होगा....
पर तुमने कौन सा अपने उन मासूमों की क़िस्मत में उजले कल की रौशनी लिखी थी......
तुम उन्हें भी हैवान ही बनाते...अपने झूठे मक़सद की बलि उनको भी चढ़ाते......
उनके मन में हैवानियत का ज़हर भरते......उनके लिए आने वाले कल में भी एक बुरी मौत मुक़र्रर करते.........
अगर उन मासूमों के दर्द की इतनी ही परवाह होती तो तुम तालिबान ही क्यों बनाते ? 
न अपने लिए, ना ही औरों के लिए क्यूँ शमशान बनाते........ 
तुम्हारे करम ऐसे भी नहीं थे कि तुम्हारे मासूमों के ज़नाज़े पर रोई हो दुनिया.......
देखो जिन्हें तुमने उजाड़ा है, उस पर कैसा सहमा,उबला, ख़ौला है ये जहाँ......
बस करो, बंद करो यूँ बंदूकों के पटाखे जलाना....यूँ लहू के रंग बहाना......
इस ज़िन्दगी में तो तुम्हारे मन के अंधियारों में कोई दिया जल ना पायेगा.......

तड़पती रूहों की बद्दुआ का ज़हर तुम्हें निगल ही जायेगा.....
इससे अच्छा है कि तुम लानत से ख़ुद ही मिट जाओ....
कम से कम एहसास-ए-ग़ुनाह से तुम्हारी रूह को सुकूँ तो मिले........
शायद इसी एहसास से आने वाले कल में रौशनी की एक शमाँ तो जले.......