Thursday 5 September 2013

शमशान की रेत पर

बचपन भी हर किसी का उतना ही जुदा होता है
जितना की जीवन ……
वो छोटा सा लड़का जिसने बचपन की डेहरी पर
देखा उस सच को इतने समीप से….
जिसकी कल्पना भी नहीं कर सकता हमारा स्वप्न
यौवन की दहलीज़ से ....

वो छोटा सा लड़का जिसे पता भी  नहीं था कि  उसके हाथों में कौन सा खिलौना है…
खोद कर मिटटी को निकाले  थे  उसने खेलने को कुछ हड्डियों के टुकड़े
अधजली लाशों को घसीट कर ,खींच कर, निकाल  कर, नोच कर....
 ले जाता वो उन्हें मरघट के उस पार....
काट देता हाथ उन लाशों के और फ़ेंक देता वहीँ ज़मीन पर...

बड़े चाव से खाता था वो मुर्दों के लिए रखा हुआ स्वादिष्ट भोजन...
और ले जाता खेलने को खाली  हुए वो बर्तन...
जो रख जाते थे मृतक के परिजन उसकी चिता  के समीप...
पहन कर झूमता ,इठलाता था मुफ्त के चढ़ावे से चोरी किये कंगन...

कुछ लोग मरने वाले की अंतिम इच्छा  के तौर पर रख जाते थे शराब
पर उन्हें क्या पता था कि  कौन नशा करता है मौत के उस पार ......
ऐसा भयावह, विषम बचपन ख़ुशी से जिया था उसने अपने छुटपन की दहलीज़ पर
शमशान की रेत पर....। 







2 comments:

  1. "बड़े चाव से खाता था वो मुर्दों के लिए रखा हुआ स्वादिष्ट भोजन...
    और ले जाता खेलने को खाली हुए वो बर्तन...
    जो रख जाते थे मृतक के परिजन उसकी चिता के समीप...
    पहन कर झूमता ,इठलाता था मुफ्त के चढ़ावे से चोरी किये कंगन..."

    वाह ! बहुत खूब ! एक सशक्त रचना जो यह सोचने को मजबूर करती है कि बचपन इतना भयावह भी हो सकता है । बधाई ।

    - शून्य आकांक्षी

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    1. धन्यवाद सर.......बस किसी ने आपबीती सुनाई थी.....एक मजदूर वर्ग का व्यक्ति अपनी गांव की भाषा में अपना अनुभव सुना गया था......जो मैंने लिखने का प्रयास किया....बस।

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