Friday 13 May 2011

"slumdog se millanior tak....(Aatmvyatha)..."

अभी कुछ ही दिनों पहले दोपहर के समय फैजाबाद रोड के पास दो सैलानिओं को रिक्शे से जाते देखा.वहीँ  पास की रेलवे क्रोसिंग  के पास एक कुत्ता मरा पड़ा था. वो दोनों सैलानी जैसे ही क्रोसिंग के  पास से गुज़रे,मृत-जीव के शरीर अपघटन के कारण जो दुर्गन्ध उत्पन्न हुई कि बस पूछिए मत! उन सैलानिओं ने अपनी नासिका हाथ से ढकते हुए आपस में कुछ कहा और रिक्शे  से आगे बढ़ गए .मैंने भी साँस रोकते हुए क्रोसिंग पार की,पर अचानक इस छोटी सी घटना ने मस्तिष्क की कोशिकाओं पर प्रहार करते हुए कुछ विचारों  को अनायास ही अन्तः पटल पर रेखांकित किया.उन दिनों जो ख़बर सबसे ज्यादा चर्चा में थी बस मन उसी विषय में सोचने लगा.मेरा मन यह सोच बैठा की ग़र हालात ऐसे हैं की जगह-जगह कचरे  के ढेर,झुग्गी-झोपड़ियाँ,,मलिन बस्तियाँ और मरे हुए जानवरों की बू यदि सत्तर से अस्सी प्रतिशत  भारत में देखने को मिलेगी तो विदेशी भला ये क्यों न सोचेंगे की यही असली भारत है,जिसकी तस्वीर ग़रीबी है? क्यूँ नहीं कहलायेंगे "स्लम्स" में रहने वाले -"डॉग" और फिर क्यों नही बनेगी "Slumdog Millanior"? अब आप सोचेंगे की अजीब बात है जिस फिल्म ने भारत का वर्षों पुराना सपना पूरा किया,उससे भला मुझे क्या शिकायत हो सकती है? मित्रों आप सभी ने इसके सकारात्मक पक्ष को तो पूरी तरह से जिया है परन्तु मै अपनी आत्मव्यथा कहे बिना रह न सकी.
                                                       वैश्विक स्तर पर इस फिल्म के ख्याति प्राप्त करने के बाद ही  भारत में भी लोग इस फिल्म को देखने के लिए विवश हुए.इस फिल्म ने अच्छा कारोबार भी किया  लेकिन ग़र यही विषय किसी भारतीय निर्माता-निर्देशकों ने चयनित किया होता तो शायद ये फिल्म बॉक्स-ऑफिस पर औंधे मुँह गिरी होती या हो सकता है सफल हो भी जाती पर शायद ये जितने awards जीत पाई,वो न जीत पाती.वैश्विक स्तर पर प्रचारित होने के बाद यह फिल्म एवार्ड्स पर एवार्ड्स जीतती रही.कभी "गोल्डेन-ग्लोब" तो कभी "बाफ्ता" और अन्ततः शीर्ष शिरोमणि  "ऑस्कर" जिसका सबको बेसब्री से इंतज़ार था.
                                                          ग्रामीण पृष्ठभूमि पर और भारत की  दीन- हीन दशा पर पहले भी  फ़िल्में बनी,जहाँ पिछड़ा भारत दिखाया गया,वहां कि समस्याएं दिखाई गईं.'मदर- इंडिया' जैसी फिल्म शायद न तो आज तक बनी है और न ही कभी बन पाए.'लगान','पहेली(विजयदान देथा  के उपन्यास पर आधारित)' और  'वाटर' ये ऐसी फ़िल्में हैं जिनमे भारत कि कुछ समस्याओं एवं रुढिवादिता का चित्र देखने को मिला,परन्तु ये फ़िल्में ऑस्कर नामांकन कि सीढियों से ही लौट आयीं और ऑस्कर से वंचित रही पर आज जब इसी भारत के दीन-हीन रूप का चित्रण कोई विदेशी करता है  तो वह कथानक रातोंरात सफलता प्राप्त करने लगता है.हमें ख़ुशी है कि इस फिल्म ने अल्लाह रक्खा  रहमान जी (ए.आर.रहमान)  को 'गोल्डेन-ग्लोब' और 'बाफ्ता' जैसे एवार्ड्स दिलाये पर टीस  तो इस बात कि है कि हमें इस सफलता का श्रेय विदेशियों के साथ बाँटना पड़ा. क्या हमने कभी सोचा कि ये पहली बार तो नहीं जब रहमान जी ने इतना अच्छा संगीत दिया हो बल्कि इससे पहले और इससे कहीं बेहतर संगीत उनके खाते में दर्ज है.उनका वो गीत 'दिल है छोटा सा,छोटी सी आशा..' जो आज तक लोगों कि ज़बान से नही उतरा और भी बहुत   कुछ..तो फिर आज तक इस ऑस्कर से पहले वो इन सम्मानों से क्यों वंचित रहे?
                                    एक बात ज़हन में आती है कि स्वतंत्रता-पूर्व जब भारत से कच्चा  माल बाहर भेजा जाता था तो वापस भारत में आने पर दोगुने दामों पर बिकता था पर  आज तो  हम स्वतंत्र हैं,फिर भी इतिहास किसी ना किसी रूप में खुद को दोहरा ही देता है और हम भारतीय आंशिक वाहवाही  पाकर ही खुश हो लेते हैं. भारतीय  कथानक और परिदृश्यों के कच्चे  माल पर बाहर का लेबल  चिपका कर  उसे  ऑस्कर  की  दौड़  में  खड़ा कर दिया  गया और हमारे लोग मूक दर्शक बन कर ताली बजाते  रहे ,आखिर विदेशियों की नज़रों में तो सच्चा भारत "ग़रीब -भारत" ही रहेगा. भले ही इस फिल्म के कथानक में "slumdog से millanior " तक का सफ़र दिखाया गया हो,पर हम देश की दशा सुधारने के बजाय  इसकी इस दशा पर मिले पुरस्कारों पर उछालते-कूदते यूँ ही मुस्कुराते रहेंगे !!   -  "सुन्दरम'

Tuesday 10 May 2011

सेक्युलर देश में इश्क का मज़हब

जिस धरती पे हम जन्में  हैं...जहाँ धर्म सभी मिल रहते हैं...
हिन्दू,मुस्लिम,सिख, ईसाई,आपस में सब भाई भाई..दिन रात गीत ये गाते हैं..
गर्व करते हैं इस बात पर कि हम,धर्मनिरपेक्ष (secular ) राष्ट्र में रहते हैं.....
पर जब सोचा मैंने, कि क्यों न मैं इश्क को अपना मज़हब बना लूँ.....
तभी एक आवाज़ आई कि तुम प्यार करने कि भूल मत करना...
ख़ानदान की  इज्ज़त रखना,माँ-बाप कि लाज रखना....
जिस जाति में जन्मी हो उसमें ही ग़र हो जाये इश्क नसीब तो कहना...
हम रिश्ते की सोचेंगे.....इसलिए अब तक न प्यार कर पायी न ही खुल कर इज़हार कर पाई...
जिसे चाहा होकर दीवानी मीरा की  तरह...उसे अपना श्याम न कह पाई.....
क्या जाकर गली गली ये पूछूँ  हर शख्स से कि वो किस जाति का है?....किस गोत्र का है.?
किस कुल का है? फिर कहूँ उससे कि क्या वो मुझे प्रेम कर सकता है? 
फिर वो कहे कि दहेज़ की रकम क्या होगी? 
ग़र न चुका सकूँ उसके प्रेम की कीमत तो फिर चल पडूँ एक नयी तलाश में...
अपनी आत्मा किसी और को चाहती रहे जीवन भर..
फिर भी हम ख़ानदान कि इज्ज़त रखने को भटकते रहें अपने शरीर का सौदा करने..
कि कर ले कोई प्रेम मुझसे भी..क्या खानदानी होने की निशानी का पता इस जाति- बंधन में भटकते हुए
अपनी नीलामी की बोली के इंतज़ार से ही चलता  है ..? 
पर उस पवित्र रिश्ते का क्या जिसे एक बार में ही  आत्मा ने बिना किसी मोह या प्रलोभन स्वीकार कर लिया हो..? 
भारत में आज भी जहाँ खाप पंचायतें इश्क के मज़हब पर सजा-ऐ-मौत सुनती हैं...
उस देश की जनता सेकुलर होने का बिगुल बजाती है....
इस देश में इश्क का मज़हब नीलामी और सौदा है....
यहाँ तब तक भटकना है हमें,जब तक इस शरीर की बोली लगा कर इसे अपनी ही जाति में बेच न दिया जाये...
जब तक रूह  का कत्ल-ऐ-आम  न हो जाये....जब तक  इस सेकुलर देश में इश्क का मज़हब न बन जाये .
 "सुन्दरम"