अभी कुछ ही दिनों पहले दोपहर के समय फैजाबाद रोड के पास दो सैलानिओं को रिक्शे से जाते देखा.वहीँ पास की रेलवे क्रोसिंग के पास एक कुत्ता मरा पड़ा था. वो दोनों सैलानी जैसे ही क्रोसिंग के पास से गुज़रे,मृत-जीव के शरीर अपघटन के कारण जो दुर्गन्ध उत्पन्न हुई कि बस पूछिए मत! उन सैलानिओं ने अपनी नासिका हाथ से ढकते हुए आपस में कुछ कहा और रिक्शे से आगे बढ़ गए .मैंने भी साँस रोकते हुए क्रोसिंग पार की,पर अचानक इस छोटी सी घटना ने मस्तिष्क की कोशिकाओं पर प्रहार करते हुए कुछ विचारों को अनायास ही अन्तः पटल पर रेखांकित किया.उन दिनों जो ख़बर सबसे ज्यादा चर्चा में थी बस मन उसी विषय में सोचने लगा.मेरा मन यह सोच बैठा की ग़र हालात ऐसे हैं की जगह-जगह कचरे के ढेर,झुग्गी-झोपड़ियाँ,,मलिन बस्तियाँ और मरे हुए जानवरों की बू यदि सत्तर से अस्सी प्रतिशत भारत में देखने को मिलेगी तो विदेशी भला ये क्यों न सोचेंगे की यही असली भारत है,जिसकी तस्वीर ग़रीबी है? क्यूँ नहीं कहलायेंगे "स्लम्स" में रहने वाले -"डॉग" और फिर क्यों नही बनेगी "Slumdog Millanior"? अब आप सोचेंगे की अजीब बात है जिस फिल्म ने भारत का वर्षों पुराना सपना पूरा किया,उससे भला मुझे क्या शिकायत हो सकती है? मित्रों आप सभी ने इसके सकारात्मक पक्ष को तो पूरी तरह से जिया है परन्तु मै अपनी आत्मव्यथा कहे बिना रह न सकी.
वैश्विक स्तर पर इस फिल्म के ख्याति प्राप्त करने के बाद ही भारत में भी लोग इस फिल्म को देखने के लिए विवश हुए.इस फिल्म ने अच्छा कारोबार भी किया लेकिन ग़र यही विषय किसी भारतीय निर्माता-निर्देशकों ने चयनित किया होता तो शायद ये फिल्म बॉक्स-ऑफिस पर औंधे मुँह गिरी होती या हो सकता है सफल हो भी जाती पर शायद ये जितने awards जीत पाई,वो न जीत पाती.वैश्विक स्तर पर प्रचारित होने के बाद यह फिल्म एवार्ड्स पर एवार्ड्स जीतती रही.कभी "गोल्डेन-ग्लोब" तो कभी "बाफ्ता" और अन्ततः शीर्ष शिरोमणि "ऑस्कर" जिसका सबको बेसब्री से इंतज़ार था.
ग्रामीण पृष्ठभूमि पर और भारत की दीन- हीन दशा पर पहले भी फ़िल्में बनी,जहाँ पिछड़ा भारत दिखाया गया,वहां कि समस्याएं दिखाई गईं.'मदर- इंडिया' जैसी फिल्म शायद न तो आज तक बनी है और न ही कभी बन पाए.'लगान','पहेली(विजयदान देथा के उपन्यास पर आधारित)' और 'वाटर' ये ऐसी फ़िल्में हैं जिनमे भारत कि कुछ समस्याओं एवं रुढिवादिता का चित्र देखने को मिला,परन्तु ये फ़िल्में ऑस्कर नामांकन कि सीढियों से ही लौट आयीं और ऑस्कर से वंचित रही पर आज जब इसी भारत के दीन-हीन रूप का चित्रण कोई विदेशी करता है तो वह कथानक रातोंरात सफलता प्राप्त करने लगता है.हमें ख़ुशी है कि इस फिल्म ने अल्लाह रक्खा रहमान जी (ए.आर.रहमान) को 'गोल्डेन-ग्लोब' और 'बाफ्ता' जैसे एवार्ड्स दिलाये पर टीस तो इस बात कि है कि हमें इस सफलता का श्रेय विदेशियों के साथ बाँटना पड़ा. क्या हमने कभी सोचा कि ये पहली बार तो नहीं जब रहमान जी ने इतना अच्छा संगीत दिया हो बल्कि इससे पहले और इससे कहीं बेहतर संगीत उनके खाते में दर्ज है.उनका वो गीत 'दिल है छोटा सा,छोटी सी आशा..' जो आज तक लोगों कि ज़बान से नही उतरा और भी बहुत कुछ..तो फिर आज तक इस ऑस्कर से पहले वो इन सम्मानों से क्यों वंचित रहे?
एक बात ज़हन में आती है कि स्वतंत्रता-पूर्व जब भारत से कच्चा माल बाहर भेजा जाता था तो वापस भारत में आने पर दोगुने दामों पर बिकता था पर आज तो हम स्वतंत्र हैं,फिर भी इतिहास किसी ना किसी रूप में खुद को दोहरा ही देता है और हम भारतीय आंशिक वाहवाही पाकर ही खुश हो लेते हैं. भारतीय कथानक और परिदृश्यों के कच्चे माल पर बाहर का लेबल चिपका कर उसे ऑस्कर की दौड़ में खड़ा कर दिया गया और हमारे लोग मूक दर्शक बन कर ताली बजाते रहे ,आखिर विदेशियों की नज़रों में तो सच्चा भारत "ग़रीब -भारत" ही रहेगा. भले ही इस फिल्म के कथानक में "slumdog से millanior " तक का सफ़र दिखाया गया हो,पर हम देश की दशा सुधारने के बजाय इसकी इस दशा पर मिले पुरस्कारों पर उछालते-कूदते यूँ ही मुस्कुराते रहेंगे !! - "सुन्दरम'