Thursday 19 January 2012

ओजस्विनी की कहानी (एक बार फिर...)

आज एक बार फिर मैं बैठी हूँ,
उसी फ़र्श के पास,
उन्हीं पेड़ो के साथ,
वही दीवारें, वही अमरूद का गाछ,
उसी फ़र्श के बाहर एक टीलेनुमा आकार,
ख़ुद को निहारती हो बेबस कुछ, कुछ लाचार,
कुछ-कुछ वैसी ही शाम,ये शाम का आसमाँ,
जहां कुछ देर बाद रात और दिन का मिलन होगा,
कुछ भीड़ होगी,लोगों का जमावड़ा होगा,
पर उस भीड़ के आने तक मैं यहाँ अकेली हूँ
झाँकती,निहारती,टटोलती अपनी उन यादों का दामन,
जहाँ कल मैं खेली थी।
वो हँसी यहाँ गूँजा करती थी,जहाँ हम संग थे,
चिड़ियों की आवाज़ें आज भी उतनी ही सुरीली हैं
जितनी कल थी,
वो गुलमोहर का पेड़ आज भी वैसे ही झूम रहा है,
जैसे कल था,
पर आज ये सन्नाटा जैसे मुझे चिढ़ा रहा है,
क्यूँ? क्या हुआ? कल बहुत हँसी-ठिठोली करती थी ना,
मैं कहता था मुझे सुन,
पर सुनती नहीं थी ना,
देख आज तू ख़ुद मेरी आग़ोश में चली आई है,
आज तू ख़ुद को मुझे सौंप रही है,
पर आज मैं तुझसे दूर चला जाऊँगा,
मुझे तो हलचल से प्रेम हो गया है,
चिड़ियों की,झूमते पत्तों की,झींगुर की
और इस फ़र्श पर उड़ते तिनकों की हलचल से,
जितना तुझे प्यार है इस शाम के बीते पल से,
आज तुझे मैं रूलाना चाहता हूँ,
तन्हाई का दर्द बताना चाहता हूँ,
इसलिए तेरा तिरस्कार कर रहा हूँ,
तेरे ह्रदय पर अपना ये प्रहार कर रहा हूँ।
तब तू समझेगी मैं क्या कहता था,
अपनी ख़ामोशी से तेरा दिल बहलाता था,
और ख़ुद अकेले में कितने आँसू बहाता था,
जा,तू फिर उसी भीड़ के पास जा,
जहाँ तेरा दिल ना लगे,
तू मुझे याद करना भी चाहेगी तो लौट कर ना आ सकेगी,
चाह कर भी उस भीड़ में किसी को अपना ना सकेगी.
और फिर,
वो सन्नाटा जाने लगा मुझसे कहीं दूर,
मैं उसे जाते हुए देख रही थी,
हो कर के मजबूर,
उसी फ़र्श के पास,
उस टीले पर बैठी,
उन्हीं पेड़ों के नीचे,
उसी हवा के साथ,
बैठी वहीं उदास।।   
16 अगस्त 2010
समय- शाम 6.30 बजे
सुन्दरम् ओझा
लख़नऊ.