उठ दौड़ चहक कर इतराती,
करती फिरूँ हंसी-ठिठोली और नई नित क्रीडायें
चेहरे पर तैर रही हो मुसकान,
जैसे हो एक नया विहान,
न शिकन कोई हो आंखों में,
न बदन में थोड़ी भी थकन,
तब भी ये न समझ
लेना कि पीड़ाओं का अंत हुआ....
और क्रीड़ाओं से
हुआ मिलन......
कभी गांधी के आदर्श जियूँ
कभी आग भगत की जलन लगे....
कभी लगे देश से प्रेम में हूँ
और मन धूँ-धूँ कर जलन लगे.......
“आज़ाद” हूँ मैं फिर भी परतंत्र..
छोड़ा मुझे किसने है स्वतंत्र ?
न लहर चाहिए झूठी कोई..
न चाहिए झूठा ही विकास....
पर अब भी उम्मीदों के दामन को मैं थाम चली..
गुमनाम चली......
तू देख संभल जा आज अभी,
वरना तरूणाई
जागेगी...
है ज़हर अगर
सत्ता अपनी,
तो त्याग इसे और भाग अभी,
कोई खाये न झूठी सौगंधें इस मिट्टी के आंगन की..
तुलसी अब भी यहाँ पूजी जाती है,
मंदिर के घंटे आज भी मस्ज़िद की अजां से टकराते हैं,
ईदी से झोलियां भरती हैं,होली पर गले लगाते हैं,
बिस्मिल की शहादत भूल न तू, अब्दुल हमीद की याद तो कर..
जब भगत – राजगुरू साथ मरे, तो
आज ज़हर तुम बोते क्यों ?
क्रांतिबीज है पनप रहा,
इसे खाद पानी से न सींचो तुम,
ये पौध नई उग आयेगी,तो तुम्हें जड़ से हिला बढ़ जायेगी,
जीवन मेरा अब मेरा नहीं,
कर दिया इसे है नाम तेरे,
ग़र तूने इसे ठुकराया तो जौहर कर के मर जाऊंगी,
यदि रक्त – बलि भी मांगोगे, तो शीश चढ़ा कर जाऊंगी,
तेरे प्रेम में मैं मर जाऊंगी,एक बीज छोड़कर जाऊंगी,
जो सत्ता को उपभोग नहीं, जनता का उपयोगी बना सके,
न पूंजीवाद, न समाजवाद, चाहिए बस
मानवतावाद,
हो लाख पूंजी किसी पूंजीपति के पास तो
क्या,
वो बांध उसे अंटे में न रखे, नीयत में
जिसकी खोट न हो,
न मानवता पर चोट करे,
न ठगा जाये कोई सर्वहारा,न बने कोई भी बेचारा,
न कोई थ्योरी न कोई मॉडल,
बस देश-प्रेम की हो हलचल,
न आग लगे , न हो दंगे,
न लाशों पर कोई महोत्सव हो,
जो इन पेड़ों को
उपजा सकें ,
ऐसे बीजों का है आह्वाहन,
जब मृत्यु शैय्या पर होंगे पड़े,
और चेहरे पर न दिखती होगी शिकन,
क्योंकि मन शून्य में होगा मगन,
कि दिया देश-हित ये जीवन,
चेहरे पर हो एक ऐसी थकन,
चेहरे पर हो एक ऐसी “थकन” ।।
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“संघर्ष” सुन्दरम्