Wednesday 26 October 2011

ओजस्विनी की कहानी (भाग-२)

मित्रों आज दीपावली है...सारा संसार खुशियाँ मना रहा है. जहाँ भी हमारे भारतीय जन प्रसृत हैं वहां दीपों की छठा  दर्शनीय है.,परन्तु आज भी क्या ओजस्विनी खुश है???? जिसके नाम में ही असीमित प्रकाश समाया हुआ है वो आज भी विचलित क्यों हैं? क्या ओजस्विनी इस दीपोत्सव में स्वयं को प्रकाशमान पा रही है ? इससे पहले मैंने आपको ओजस्विनी के मित्र -प्रेम की कथा के  एक अंश से परिचित कराया था आज उसकी कहानी का एक और अंश प्रस्तुत है आपके समक्ष .यदि आप उसके पहले के जीवन से रूबरू होने के इक्षुक हों तो आदेश करियेगा.मैं आपके समक्ष उन अंशों का भी वर्णन करुँगी   .आएये जानते हैं आज की  उसकी मनोदशा उसकी ही ज़बानी...


                                                         ओजस्विनी  और  दीपोत्सव 

आज हूँ विह्वल , आज हूँ व्याकुल ,
जग सारा है उज्ज्वल -उज्जवल,
दीपों की है छठा निराली,
सबकी जगमग है दिवाली,
जीवन से सबके तम हरने,
आई है समृद्धि, खुशहाली , 
ओज हूँ मैं,तेज हूँ मैं,
पर फिर क्यूँ निस्तेज हूँ मैं?
मेरी व्याकुलता का रहस्य क्या.. 
कोई बता दे क्यूँ मैं विस्मृत हूँ?
क्या सच में सब मंगलमय है?
क्या सबके  जीवन में अरुणोदय है?
कहीं कोई पैसों से खेले,कहीं किसी को मिलती गाली..
कैसी है ये दिवाली?
देश मेरा क्यूं भ्रष्ट हो रहा?
प्राण मेरा निस्तेज हो रहा...
कहाँ प्रणय-सौंदर्य है मेरा?
 आज मेरा क्यूँ ह्रदय रो रहा?
पंछी  की कुंजन भी काली..
दिखती नहीं चहक की लाली, 
ये कैसी है कहो दिवाली?
मेरा प्रियतम पूछे न मुझको....
वैसे तुम सब भूले मुझको..
अब मुझको तम ही तम दिखता.
महंगाई ने जान निकाली...
सड़कों पर सोई हूँ मैं.. 
न है ज़मीन पैरों तले ,
न है सर पे छत  की थाली ..
तुम्ही कहो सौंदर्य -प्रणय..
तुम बिन कैसे हो दिवाली?
मिटटी  के दीपक सूने हैं..
बिन बाती ,बिन घी के खाली...
तुम्ही कहो सौंदर्य-प्रणय मेरे..
तुम बिन कैसे हो दिवाली?
मैं  बैठी हूँ इसी प्रतीक्षा में,
तुम आओगे तम हरने को ,
मुझमे नव साहस  भरने को ... 
चूम लोगे मस्तक को मेरे,
कर लोगे आलिंगन  मेरा..
हर लोगे हर विकृति  को मेरी..
मेरे आँचल का हर प्राणी जब खुश होगा ,
देश में जब होगी खुशहाली ...
तब होगा मेरा दीपोत्सव
गर्व से कहूँगी मैं ,
मैं  तेरी ओजस्विनी हूँ!!!


Monday 24 October 2011

"ओजस्विनी" की कहानी

दोस्तों आज जिस "ओजस्विनी" की कहानी मै आप सबको सुनाने जा रही हूँ  उसका जन्म आज से दो वर्ष पहले मेरी कल्पनाओं में हुआ. वो न जाने कब से उदास थी,जैसे कुछ खो दिया था उसने ....लेकिन खोकर भी पाने का एहसास उससे बेहतर कोई नहीं जनता था. उसने अपनी पिछली जिंदगी को "अधूरी कहानी..... एक पूरा एहसास"  कहा है,पर आज मै उस अधूरी कहानी की बात नहीं करूंगी क्योंकि आज मै ओजस्विनी के उल्लास का वर्णन करना चाहती हूँ.
                       तवारीख़ २० अगस्त २०१०,दिन शुक्रवार ...अरे आज तो जुम्मे का दिन है....एक पाक़ दिन और आज इस नेक की दुआ कुबूल हो गई हो जैसे. आज वो बहुत खुश है..क्यों???? आएये उसी की ज़बानी सुन लेते हैं......

                                                       " ओजस्विनी एक बंदिनी "


आज मै बहुत खुश हूँ,तुम्हें पाकर  अपने पास,
वहीँ जहाँ कल बैठी थी तेरी प्रतीक्षा में,
अनवरत मैं उदास ,
तेरी राह जोहती,
बाट निहारती , ख़ुद का करती उपहास,
मिल "सन्नाटे" के साथ !
मैं तेरी ओजस्विनी हूँ!
आज मै बहुत खुश हूँ , तुम्हें पाकर अपने पास.....
तुम्हें देख पाने की उम्मीद धुंधली  पड़  चुकी थी,
मेरी आँखें भी आंसुओं से सूनी  पड़  चुकी थी...
पर रह-रह कर एकत्रित जल नेत्रों से गिर पड़ता था,
जैसे नल की टोंटी में बचा हुआ पानी,
जो कहता था खाली टंकी  की कहानी.
नेत्रों में स्वाभाविक काजल नज़र आता था ,
जो जागती रातों की कहानी सुनाता था,
तेरे न आने तक मैं सब पे बिगडती थी, 
ख़ुद पर खीझती और चिल्लाती थी ,
पर आज मानो  अचानक मेरे ह्रदय ने,
तेरे दूर पड़ते क़दमों की आहट सुन ली थी ,
और थके हुए चेहरे पर मुस्कुराहट ने जगह ली थी,
ज्यों ही मैं निकली एक कक्ष से बाहर, 
तू  मुझसे  टकराया,
और मेरे नेत्रों की टोंटी का जल पलकों के पात्र  तक उमड़ आया,
पर मेरे अधरों पर एक स्वछंद हंसी तैर रही थी ,
शब्द अन्दर ही अन्दर सिमट जाना चाहते थे. 
उस क्षण मैंने कब अनजाने ही तेरा हाथ थाम  लिया,
तुझे किसी से मिलने भी न दिया,
बस जी चाहता था की  इस पल में कोई दखल न दे, हमें चंद लम्हों के लिए अकेला कर दे,
मै तुझसे कुछ न कहूँ और तू मेरी ख़ामोशी को पढ़ ले ,तूने  मेरे शब्दों के उतावलेपन को देखा था,
ऐसा जान पड़ता था मानो लबालब भरा कोई पात्र था,जो ख़ुद को तुम पर उडेलना चाहता था ,
                              अवसर पाकर एक नवागंतुक मित्र को हम राह दिखाने चले थे,
                               लौटती सड़क पर हमें कुछ पल अपने मिले थे ,
                               जहाँ मैं तुम्हें सुन रही थी ,तेरे साथ चल रही थी ,
                               कुछ मैं भी कह रही थी और राह थम गई ,
                               हम चंद पलों में फिर उस कक्ष में थे ,
                               जहाँ कुछ क्षण पहले मै थी,सब थे,
                                पर अब तुम भी थे.
मेरी ख़ुशी आज सबने देखी  थी,
थकी आँखों की चमक, मेरे शब्दों में चहक,
 आज सबने सुनी थी , 
ऐसा लगता था जो कली  दो दिन पहले मुरझा गई थी,
उसे आज शायद नयी जिंदगी  मिली थी...
वो कुछ खिली -खिली  थी ,
कुछ और वक़्त तेरे साथ बिता पाती ,
यही सोच कर आज तेरे संग चली थी ,
उस दिन संध्या के अंतिम प्रहर में ,रात्रि के चढ़ते शिखर में,
हमने चाय के नुक्कड़ की तलाश की ,
कई सड़कों -चौराहों की खाक छानती,
अंत में एक जगह मिली,
जहाँ न शोर था,न ही "सन्नाटा",
                                          आज वहां बस हलचल थी,
                                          सन्नाटे की वो प्रेमिका,
                                          आज हम दो दोस्तों के बीच चली आई थी,
                                          हम चाय के पात्र हाथों में थामे अपनी बातें सुना रहे थे,
                                           कुछ नगमें  जो अनसुने थे ,                                                                           
                                           जल्दी में गा रहे थे ,
                                           चंद लम्हों में महीनो की बातें समेट  देना चाहते थे,
                                            पर तुम न जाने क्यूँ,आज भी कतरा रहे थे,
                                             तुम्हारी नज़रें जैसे ख़ुद को दोषी मान रही थी ,
                                             पर नहीं मित्र ,दोषी न तुम थे,न हम थे,
                                                 दोषी तो वो भाग्य है ,जिसने मेरे मन में तुम्हारे  लिए प्रेम भर दिया था,
ये जानकर भी की तुम मेरे नहीं हो सकोगे,
शायद वो तुम्हारी  इस "ओजस्विनी " से ईर्ष्या  की  भावना रखता था ,
पर वो शायद नहीं जानता था की "ओज" अपने "सौंदर्य" को पा लेगी ,  
प्रेम के कई रूप हैं ,मित्र-प्रेम एक चरम प्रेम है,
जिसकी बंदिनी ओजस्विनी बन चुकी थी ,
आज सौंदर्य ने उसे जीवन पर्यंत अपनी मित्रता की बंदिनी  बना लिया था ,
जहाँ केवल मानसिक,हार्दिक,मानवीय, पवित्र -प्रेम था .
                                                जहाँ विचारों का प्रेम था,भावनाओं का बंधन था,
                                                 जहाँ लेशमात्र भी भौतिकता न थी ,
                                                 जहाँ बस मधुर स्मृतियों का आलिंगन था ,
                                                  मैं "ओजस्विनी" अपने "सौंदर्य " को निहार रही थी ,
                                                  जिसे कभी मैंने प्रेयसी बन प्रेम किया था अपनी भावनाओं से,
अपेक्षित समयावधि से अधिक संग मिल चुका  था तुम्हारा ,
मुझे तो बस इन स्मृतियों का ही है सहारा,
आज मै बहुत खुश हूँ ,तुम्हें पाकर अपने पास ,
शायद यही हो मेरे जीवन का किनारा ,
जहाँ तुम हो मेरे पास,
स्मृतियों के साथ ,स्मृतियों के साथ.