Sunday 12 November 2017

मन का प्रदूषण और खोता बचपन

हम अपने बचपन में जब कभी ये चाहते थे कि स्कूल में छुट्टी हो जाये तो उसके पीछे की सोच ये नहीं होती थी कि स्कूल बन्द हो जाये बल्कि तब हमारे समय के बच्चे ये सोचते थे कि एक-आध दिन की छुट्टी हो तो केवल पढ़ाई से हो मगर स्कूल बन्द न हो ताकि स्कूल में बच्चे कम आयें और शिक्षक पढ़ाने के बजाये हमारे साथ खेल खेलें। अन्त्याक्षरी हो, दम-शराद हो, किसी बच्चे की गाने की प्रतिभा दिखे तो किसी की मिमिक्री। कुल मिला के बच्चों की संख्या कम होने से एक दिन पढ़ाई से छुट्टी मिले और भीषण परिस्थितियों में भी विद्यालय पहुँचने का रिकॉर्ड क़ायम रहे। इसके अलावा हमारे सख़्त से सख़्त शिक्षकों का कलात्मक और रचनात्मक स्वभाव ऐसी परिस्थितियों में हमें दिखाई पड़ता जो कई दिनों तक बच्चों में चर्चा का विषय होता।
पता है – अमुक सर का फेवरेट गाना ये वाला है। फलाँ मैडम को रंगोली पसन्द है। मैथ्स वाले सर ने गाना गाया। इंग्लिश वाले सर ने कहानी सुनाई। वग़ैरह-वग़ैरह।.”
जब अचानक सर्दी बढ़ने या तेज़ बारिश की वजह से छुट्टी का मौसम बनने लगता फिर भी हम बच्चे यही सोचते थे कि छुट्टी की घोषणा हमारे स्कूल पहुँचने के बाद हो ताकि शिक्षक हमें तुरन्त घर लौटने को न कह सकें और हम अपने थोड़े बहुत साथियों के साथ क़िस्से-कहानियाँ कह सकें, गप्पे हांक सकें। पढ़ाई से इतर कुछ समय बिना किसी प्रतियोगिता के बिता सकें। यहां तक की रविवार की एक्सट्रा क्लास में बच्चों की उपस्थिति कई बार नियमित कक्षा से अधिक दर्ज़ होती। क्यों? इसका कारण यह होता कि इस कक्षा में बच्चों पर स्कूल यूनिफॉर्म में आने का दबाव नहीं होता था। घर के रंग-बिरंगे कपड़ों में आना, सारी लड़कियों का संडे को बाल धोकर जुल्फ़ें लहराते हुए आना.....हालांकि ये सब स्कूल-अनुशासन के दायरे में नहीं होता, लेकिन रविवार को छूट होती थी क्योंकि सबने सोमवार के लिए यूनिफॉर्म धोकर सुखा दी होती थी। रोज़ चोटी बाँधने की वजह से हफ्ते में एक ही दिन सिर धोने और बाल सुखाने को मिल पाता था। हो सकता है भारी भरकम फ़ीस लेने वाले बड़े अंग्रेज़ी दाँ स्कूलों के बच्चों के पास यूनीफॉर्म्स के कई जोड़े हों सो उन पर ये सब लागू न होता हो लेकिन मध्यम वर्गीय और ग़रीब परिवारों के बच्चे जिन स्कूलों में जाते हैं वहाँ अमूमन ऐसा ही होता है।

इस दिन एक अलग तरह की ऊर्जा का अनुभव होता था क्योंकि ये रोज़मर्रा के ढर्रे से हटकर कुछ नयापन लिए कक्षायें होती थीं। शैतान से शैतान बच्चा भी अतिरिक्त कक्षा में दिख जाता था क्योंकि वहाँ नियमित रूटीन से अलग चीजे होती थीं लेकिन आज के समय में हमने पर्यावरण और बच्चों की मंशा दोनों को ही इतना प्रदूषित कर दिया है कि बच्चे छुट्टी के लिए विन्टर वैकैशन या रैनी डे का इन्तज़ार नहीं करते। उनकी डायरी में मर्डर डे , पॉल्यूशन डे, स्मॉग डे जैसे शब्द तेज़ी से पुरानी छुट्टियों वाले शब्दों को विस्थापित कर रहे हैं। इसके लिए हम सब ज़िम्मेदार हैं। स्कूल ऐसा क्या कर रहे हैं कि बच्चे स्कूल जाने के डर से इतना डर रहे हैं? मां-बाप ऐसा क्या कर रहे हैं कि बच्चे उन्हें अपनी परेशानी नहीं बता पा रहे हैं? शिक्षक ऐसा क्या कर रहे हैं कि बच्चों के दिमाग़ में ऐसा ज़हर भर रहा है? क्यों बच्चों को प्रतिस्पर्द्धा में इस क़दर झोंक देना ज़रूरी है? हर बच्चा एक सा नहीं होता, हर बच्चे की ज़रूरतें अलग हैं, पसन्द अलग है। हम उनकी पसन्द, नापसन्द को पहचान कर उनके उसी कौशल को विकसित करने में योगदान क्यों नहीं देते?
सरकारों पर उंगली उठाते-उठाते हम थक क्यों नहीं रहे? क्यों टू-व्हीलर की जगह साईकिल और फ़ॉर-व्हीलर से टू-व्हीलर या पब्लिक ट्रांसपोर्ट पर नहीं आ जाते? क्या हम अपनी थोड़ी-थोड़ी लक़्ज़री भी बेहतर पर्यावरण के लिए कुर्बान नहीं कर सकते? क्या पटाखों को बिना साम्प्रदायिक रंग दिये कुछ हद तक न नहीं कह सकते? क्या हम सरकारों के पास मदद और सुझाव लेकर नहीं जा सकते? अपना योगदान लेकर नहीं जा सकते? करने को बहुत कुछ है। हर व्यक्ति अपने स्तर पर सम्भव योगदान कर सकता है लेकिन तब, जब अपने मन के प्रदूषण को हमने साफ कर लिया हो। 

जिन दो मुख्य मुद्दों पर मैंने बात की है-
1.       बाल मनोविज्ञान
2.       पर्यावरण सुरक्षा

यदि इन दोनों ही मुद्दों पर आपके पास कुछ अच्छे सुझाव हों तो आप इनबॉक्स कर सकते हैं या कमेंट कर सकते हैं। कुछ सुझाव मेरे पास भी हैं जिन पर मंथन कर रही हूँ। आपके सुझावों से कुछ और सार्थक हो सकेगा सम्भवतः। मैं न सही, आप सही, आप न सही, कोई और सही पर कोई तो करे कुछ सहीवरना न तो बच्चे मन के सच्चे रह जायेंगे न ही स्वस्थ साँसें। 

          

    

Sunday 27 March 2016

मेरे जीवन का रंगमंच

जीवन एक रंगमंच हैं और हम इसके किरदार। हमेंं पता ही नहीं होता कि हम कब कौन सी भूमिका निभा रहे होते हैं, बस जीते चले जाते हैं। जीवन के भीतर जो मंच है मुझे इस मंच से प्रेम कब से है, नहींं जानती। जहाँ तक धुंधली सी यादें ले जाती हैं तो याद आता है कि अभिनय और निर्देशन के लिहाज़ से 12 वर्ष की उम्र मेंं एक चुटकुले को नाटक मेंं तब्दील किया था, स्कूल के दिनों में, बिना किसी बड़े से मदद लिए, बिना एक रूपये ख़र्च किये। भिखारी का किरदार चुना था, इसलिए नहीं कि कुछ और नहींं कर सकती थी, बल्कि इसलिए क्योंकि भिखारी बनने के लिए मेरे पास अपना फटा-पुराना कुर्ता और मुंह पर मलने के लिए राख थी और कॉस्ट्यूम के पैसे बचते नज़र आ रहे थे। पिता जी तो हमेशा प्रोत्साहन देते पर माता जी को फ़िज़ूल ख़र्ची पसन्द नहींं थी, इसलिए बीच का रास्ता निकाल कर मैंने ख़ुद ही वो किरदार बुना था और द्वितीय पुरस्कार जीता था। 

मेरे जीवन के रंगमंचों पर पुरस्कारों से कहीं अधिक मेरी मंच के साथ रहने की इच्छा प्रबल रहती थी जो कहती कि मैं नेपथ्य मेंं खड़े रहकर भी मंच को निहारती रहूँ । एक समय ऐसा भी था जब मैं एक किरदार के लिए अपने बाल तक मुंडाने को तैयार बैठी थी (2011), पर अचानक जीवन की दिशा बदल गई और बहा ले गई अपने साथ, समझ नहीं आ रहा था कि सच्चा प्यार है कौन ? 

धीरे-धीरे समझ आया कि जैसे माँ और पिता जी मेंं से एक को चुनना मेरे बस की बात नहीं, वैसे ही कई ऐसी विधायें हैं जिनमें से किसी एक को चुनना मेरे बस की बात नहीं, इसलिए मरने से पहले थोड़ा-थोड़ा प्यार हर उस विधा से पाने का प्रयास करूँगी जिसके लिए मेरे मन में प्रेम है। मेरी रंगमंच की दुनिया में चुनिन्दा लम्हें हैं जिन्हें उंगलियोंं पर गिना जा सकता है। कुछ झलकियाँ आपसे भी साझा कर रही हूँ। -              


'दीनानाथ-जानकी' (एड्स जागरूकता नुक्कड़ नाटक) – लेखन, निर्देशन, अभिनय (4 बार मंचन) – (एनसीसी और एनएसएस कैम्प्स लख़नऊ, दिव्यांकुर मंच-केकेसी लख़नऊ से सूत्रधार की भूमिका के लिए विशेष दक्षता पुरस्कार)

'कहानी केयरपुरवा गांव की' नुक्कड़-नाटक में अभिनय (निर्देशन-प्रदीप घोष, इप्टा लख़नऊ) – (होटेल ताज, लख़नऊ)

अभिमान (नाटक, निर्देशन-प्रदीप घोष, इप्टा लख़नऊ)- अभिनीत किरदार-काकी, वेशभूषा (राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह) – (2 बार मंचन)

राम नाम सत्य है। - (एकांकी में अभिनय एवं निर्देशन एवं द्वितीय पुरस्कार) – (स्थान- दिव्यांकुर मंच, केकेसी,लख़नऊ)

राम मिलाई जोड़ी’ (एकांकी) – (मण्डल, जनपद एवं राज्य स्तर पर उत्तर-प्रदेश में प्रथम पुरस्कार एवं राष्ट्रीय युवा महोत्सव-2011, उदयपुर, राजस्थान में मंचित) 

'एअरफोर्स स्टेशन में गब्बर और साम्भा' (नाटक) का लेखन (मंचन स्थान, एअरफोर्स स्टेशन, चकेरी,कानपुर)

कशमकश (नाटक) – अभिनीत किरदार-छाया (निर्देशन- ध्रुव टमटा, लेखन-नम्रता भारद्वाज) – (मंचन स्थान- रविन्द्र भवन, भोपाल)

किश्तों में आशियाना (नाटक) – अभिनीत किरदार-सूत्रधार (लेखन-नम्रता भारद्वाज)-(मंचन स्थान- रविन्द्र भवन, भोपाल)

जल बिन जीवन (भूगर्भ जल दिवस) – अदि बर्मन की कहानी का सह-लेखन एवं गीत लेखन (मंचन- साइन्टिफिक कन्वेनशल सेन्टर, लख़नऊ)
     
क़िस्सा अजनबी लाश का (नाटक, निर्देशन-प्रदीप घोष, इप्टा लख़नऊ) – अभिनय (मंचन स्थान- कैफ़ी आज़मी एकेडमी, लख़नऊ तथा इप्टा बिजनौर प्रांगण)

कण कण में तू' मेंं अभिनय (लघु नाटिका, निर्देशन- मयंक शेखर मिश्रा, माखनलाल विश्वविद्यालय) - (मंचन स्थान- रविन्द्र भवन, भोपाल)

'मैं भारत हूँ।' (लघु नाटिका) (15 अगस्त) – निर्देशन, संयोजन  (मंचन स्थान- माखनलाल विश्वविद्यालय-भोपाल)

पुष्प की अभिलाषा (लघु नाटिका) -(शिक्षक दिवस) – लेखन, निर्देशन (मंचन स्थान- माखऩलाल विश्वविद्यालय-भोपाल)

भिखारिज़्म का प्रोफेशन – लेखन,निर्देशन, अभिनय (स्थान- रामाधीन सिंह महिला महाविद्यालय, लख़नऊ)

बेटी है तो कल है। (नुक्कड़) – निर्देशन एवं अभिनय – (लेखन- गौरव मिश्रा, मंचन- माखऩलाल विश्वविद्यालय-भोपाल)

हिस्ट्री ऑफ नोवेल – लेखन, निर्देशन, निर्माण (स्थान- रामाधीन सिंह महिला महाविद्यालय, लख़नऊ)

तितली (मोनो एक्ट)- लेखन, निर्देशन, अभिनय (स्थान- माखनलाल विश्वविद्यालय, भोपाल)


 अभिमान (विधा-नाटक,रबिन्द्रनाथ टैगोर की बांग्ला कहानी शास्ती का हिन्दी रूपान्तरण)- अभिनीत किरदार (काकी)- (निर्देशन-प्रदीप घोष, इप्टा लख़नऊ- राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह)





    कशमकश (नाटक)– (अभिनीत किरदार-छाया) (निर्देशन- ध्रुव टमटा, लेखन-नम्रता भारद्वाज,संंस्थापक सुकन्या-ब्लूम्स, मंचन स्थान- रविन्द्र भवन, भोपाल)


जल बिन जीवन (भूगर्भ जल दिवस) – अभिनय एवं अदि बर्मन की कहानी का सह-लेखन, निर्देशन- रवि गुप्ता व प्रशान्त सोनकर (मंचन- साइन्टिफिक कन्वेनशल सेन्टर, लख़नऊ)








राम मिलाई जोड़ी’ (एकांकी) – (ब्लॉक, ज़िला एवं राज्य स्तर पर उत्तर-प्रदेश में प्रथम पुरस्कार एवं राष्ट्रीय युवा महोत्सव-2011, उदयपुर, राजस्थान में मंचित)  



           राम मिलाई जोड़ी’ (एकांकी) - अभिनय (चमेली),  राष्ट्रीय युवा महोत्सव-2011, उदयपुर, राजस्थान में मंचित


           तितली (मोनो एक्ट)- लेखन, निर्देशन, अभिनय (स्थान- माखनलाल विश्वविद्यालय, भोपाल)


  
बेटी है तो कल है। (नुक्कड़) – निर्देशन एवं अभिनय – (लेखन- गौरव मिश्रा, मंचन- माखऩलाल विश्वविद्यालय-भोपाल)



ये कुछ पल हैं यादों के पिटारे से, पर इच्छा अभी बाक़ी है। न जाने कब फिर सामना हो जाये तुमसे ऐ मेरे जीवन के रंगमंच तब तक मुझे दुनिया मेंं अपना किरदार निभााने दो । 

Sunday 20 September 2015

हुज़ूर अब जाने भी दीजिये....


कल से लेकर आज तक हमने मानवीय संवेदना का एक पहलू बख़ूबी देखा । 65 वर्ष के वृद्ध टंकण बाबा उर्फ़ कृष्ण कुमार जी को तो उनकी रोज़ी रोटी का ज़रिया वापस मिल गया लेकिन यदि मानवीय संवेदना के दूसरे पहलू पर दृष्टि डाली जाये तो उपनिरीक्षक प्रदीप यादव जी के निलम्बन के बाद उनका परिवार किस मानसिक दबाव की स्थिति से गुज़र रहा होगा ? इस ओर शायद हमारा ध्यान न जाये कि भारत की पुलिस व्यवस्था आज भी उसी स्थिति में है जैसे पहले थी । सुधार के लिए लगातार काम किये तो जा रहे हैं लेकिन ये एक बहुत बड़ी चुनौती है ।

उदाहरण के तौर पर सोचिये कि हमारे परिवार में यदि कोई उद्दण्ड या दुष्ट व्यक्ति भी होता है तो क्या हम उसे कभी उसकी ग़लतियों के लिए माफ नहीं करते ? करते हैं, उसकी हर उद्दण्डता भी सहते हैं क्योंकि उसे हम अपना समझते हैं । प्रदीप जी ने जो किया वो ग़लत किया पर आख़िर ऐसी कौन सी परिस्थितियां रही होंगी जो एक पुलिस वाले को सार्वजनिक स्थान पर अपनी भड़ास इस तरह निकालने के लिए विवश करती हैं ? कभी- कभी आप भी किसी परेशानी की वजह से अपने साथी मित्रों के साथ दुर्व्यवहार करते हैं, पर धीरे-धीरे सब ठीक हो जाता है । हर व्यक्ति को अपनी ग़लती सुधारने का एक अवसर तो मिलना ही चाहिये ।

महान समाजशास्त्री ईमाइल दुर्खीम जी आत्महत्या के सिद्धांत में समाज की प्रतिक्रियाओं को दोषी बताते हैं, जो सच भी है । ठीक उसी तरह पुलिस के इस व्यवहार के लिये भारत की पुलिस व्यव्स्था से ऊपजा असंतोष और समाज का पुलिस के प्रति घृणात्मक रवैय्या भी उतना ही उत्तरदायी है । जिस दृष्टि से हम उन्हें देखते हैं, वैसा ही व्यवहार उनमें उपजता है । कल से उपनिरीक्षक महोदय को लगातार सब कोसे जा रहे हैं, पर हम ये जानने में शायद ही दिलचस्पी रखते हों कि वो किसी मानसिक परेशानी में तो नहीं।

एक और उदाहरण के तौर पर आप ही सोचिये कि छोटी-छोटी असुविधाओं के लिये हम हड़ताल और धरने पर बैठ जाते हैं। वेतन समय से न मिलने पर शोर मचा देते हैं । प्रोन्नति (promotion) न मिलने  पर हमारा प्रोत्साहन(Morale) कमज़ोर पड़ जाता है तो फिर चौबीसों घंटे जनता की सुरक्षा में तत्पर रहने वाली पुलिस जो न दिन देखती है, न रात, जिसे कई-कई दिनों तक अपने परिवार का चेहरा देखना नसीब नहीं हो पाता । जिनके पास कई बार बैठने को थाने नहीं होते, ग़श्त (Petroling) के लिए डीजल उधार लाना पड़ता है, लाश मिलने पर उसके मिलने से पोस्टमार्टम तक का ख़र्च कई बार अपनी जेब से भरना पड़ता है। सालों साल एक ही पद पर घिसते रहते हैं। ऐसी पुलिस से हम सौम्य व्यवहार की उम्मीद कैसे कर सकते हैं ? क्या ये हमारा दायित्व नहीं कि हम हर पुलिस वाले को शक़ की नज़र से न देखें ? अपने रिश्तों में कड़वाहट को थोड़ा कम करने का प्रयास करें । मध्य प्रदेश में आईपीएस रह चुकी अनुराधा शंकर जी ने एक टीवी साक्षात्कार में कहा था- हम अपनी पुलिस को नरक जैसी परिस्थितियों में रखते हैं और नरक से यमदूत ही निकलते हैं, देवदूत नहीं।

भारत में कई अलग-अलग स्तरों पर पुलिस की भर्ती होती है और इस कारण हर व्यक्ति को आगे बढ़ने का अवसर समानता से उपलब्ध नहीं हो पाता जबकि हमारे देश में 200 वर्षों तक राज करने वाले ब्रितानी लोग स्वयं अपने देश में इस व्यवस्था का पालन नहीं करते । वहां प्रत्येक पुलिसकर्मी कॉन्सटेबल के पद से शुरू होकर डीजी स्तर तक पहुँचता है । परीक्षायें होती हैं, उन्नति के समान अवसर मिलते हैं ।

सन् 1996 में पद्मश्री से सम्मानित एवं उत्तर-प्रदेश के सेवा- निवृत्त डायरेक्टर जनरल श्री प्रकाश राज जी ने सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की थी जिसमें पुलिस व्यवस्था पर से राजनैतिक नियंत्रण को कम करने की अपील की गई थी । 22 सितम्बर,2006 को इस मामले में फ़ैसला देते हुये सुप्रीम कोर्ट ने हस्तानान्तरण में राजनैतिक नियंत्रण को कम करने के साथ ही डायरेक्टर जनरल जैसे पद के चुनाव के लिए लोक सेवा आयोग द्वारा तीन योग्य उम्मीदवारों का चयन करने एवं राज्य सरकारों को उन तीन में से किसी एक योग्य व्यक्ति का चयन करने का प्रावधान दिया । जिससे कि पक्षपात कम हो सके लेकिन थॉमस कमेटी की रिपोर्ट आने तक किसी भी राज्य सरकार ने इसे लागू नहीं किया अर्थात् एक तरह से सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों का उल्लंघन किया गया ।

इन सबके बीच भी कुछ ईमानदार और भले पुलिस अफ़सरों के किस्से सामने आते रहे । हमने उत्तर प्रदेश के एक पुलिसकर्मी को इसी सोशल मीडिया पर एक बच्ची को गले लगाये अस्पताल ले जाते देखा  तो इंदौर में यातायात पुलिस के रंजीत जी से जनता को इतना प्रेम करते देखा कि जनता उनके बिना रह न सकी। 1090 ने बहुतों की समस्या हल की तो वहीं न जाने कितनी बार हम आम नागरिकों के झूठ के कारण बेवजह पुलिस परेशान होती रही।

कुछ समय पहले मेरे द्वारा एक  लघुशोधकार्य किया गया था जिसमें पुलिस के प्रति जनता में से सकारात्मक हुये कुछ चन्द लोगों की प्रतिक्रिया मात्र से कुछ पुलिसकर्मी इतने ख़ुश दिखे कि लगा शायद जनता के प्रेमपूर्ण व्यव्हार से ही कुछ बदलाव आ जाये । अन्त में बस इतना ही कहना है कि प्रयास कीजिये कि हम पुलिस को वो सम्मान दें सकें जिससे उन्हें जनता का मित्र बनने का प्रोत्साहन मिल सके ।


राज्य सरकारों को जनता के साथ मानवीय संवेदना से पेश आने वाले पुलिसकर्मियों एवं अधिकारियों को निष्पक्ष रूप से प्रोत्साहित एवं सम्मानित करना होगा और जनता को थोड़ा धैर्य से काम लेना होगा । निलम्बन की सजा पूरी करने के बाद सुधार का एक अवसर अवश्य दिया जाना चाहिये। जब अंगुलिमाल का हृदय परिवर्तन हो सकता है तो पुलिस का क्यों नहीं, लेकिन इसमें जनता और सरकार दोनों की बराबर की भागीदारी सुनिश्चित होनी चाहिये । जिस तरह सच्चे पत्रकार सामने आ रहे हैं वैसे ही अच्छी पुलिस भी किसी बुरे आवरण में ढकी हुई है । आवरण हटाना होगा। अगर अच्छी पुलिस चाहिये तो एक हाथ दोस्ती का आप भी बढ़ाइये। हुज़ूर अब जाने भी दीजिये, आप भी माफ़ कर दीजिये ।   

Thursday 10 September 2015

माँ मुझे अख़बार चाहिए.....


तुम ढूंढ रही हो मेरे लिए एक साथी,
जो सुख में, दुख में हर पल मेरा साथ निभाये,
मेरे चेहरे पर पूर्णता का भाव जो लाये,
पर माँ कैसे कहूँ तुमसे,
मुझे नहीं तथाकथित समझदार चाहिये,
माँ मुझे एक अख़बार चाहिये ।।

देखा है मैंने बचपन में तुम्हें फूंकनी फूंकते हुये,
मजदूरों के लिए चूल्हा जलाते हुए,
और देखा है तुम्हें शहर में हमारे लिए दाना लाते हुए,
जो समझ सके इन पीड़ाओं को,
मुझे वो कलमकार चाहिये,
माँ मुझे एक जीता-जागता अख़बार चाहिये ।।

जो पिरो सके मेरे एहर-ओहर बिखरे शब्दों को एक माला में,
मुझे ऐसा एक बौद्धिक रचनाकार चाहिए,
माँ मुझे एक अदद अख़बार चाहिये ।।

न चाहिए विलायती, न शहरी,
न निर्धन, न धनी..
माँ मुझे आज़ादी का विचार चाहिये,
माँ मुझे जीता-जागता अख़बार चाहिये ।।

क़ैद भी रखे ग़र वो मुझे,
घर की चारदीवारी में,
घूँघट में, पल्लू में, पर्दे में, साड़ी में,
पर जो दे मुझे बाहरी दुनिया से सम्पर्क साधने के अवसर,
माँ मुझे बस सूचना का अधिकार चाहिये,
माँ मुझे एक अदद अख़बार चाहिये ।।

डरती रही हूँ देखकर अबतक,
जिन पुरूषों की कामोत्तेजना,
उनकी वासना में हो यदि माँझी सा दृढ़ आधार तो,
ऐसी संलिप्तता बार-बार चाहिये,
माँ मुझे एक अदद अख़बार चाहिये ।।

जो करे कटाक्ष बारम्बार, अपनी कलम की धार से,
जो डरे न, उच्च पदों के पलटते वार से,
निर्भीक हो चलता रहे, लिखता रहे,
जो दे सके धार मेरी भी कलम को,
माँ मुझे प्रोत्साहन का वो औज़ार चाहिये,
माँ मुझे एक अदद अख़बार चाहिये ।।

न बन सकी हूं अब तलक़ मैं वो पत्रकार,
फिर भी फाइव 'डब्लयू', वन 'एच' करते हैं मेरे मन पर प्रहार,
जो समझ सके इस हार्दिक पत्रकारिता की पेंग को,
और खींच सके इसका प्रतिबिम्ब अपने ह्रदय में,
मां मुझे वो अनूठा छायाकार चाहिये ।
मां मुझे एक जीता जागता अख़बार चाहिये ।।

न देना मुझे शादी में व्यवहार के लिफ़ाफे,
न ही दहेज के नाम पर कोई उपहार चाहिये,
माँ मुझे एक जीता-जागता अख़बार चाहिये ।।

पर उस अख़बार में हो संवेदनशीलता,
जो ढकोसलों से दूर हो,
केवल छप जाना ही न हो जिसका धर्म,
अपने काले पुते पन्नों पर जिसे आती हो शर्म,
जो जला सके क्रांति की चिंगारी और बदलाव की बयार,
माँ मुझे वो क्रांतिकार चाहिये,
माँ मुझे एक ऐसा पत्रकार चाहिये,
माँ मुझे एक अदद जीता-जागता अख़बार चाहिये ।।

यदि न मिले अख़बार ऐसा,
तो माँ बस रहने दे मेरे हिस्से तुझ सा सादा जीवन,
और बाबा जैसे उच्च विचार चाहिये,
नहीं चाहिये कोई अख़बार,
माँ मुझे तेरे आंचल में ही संसार चाहिये,
माँ मुझे बस तेरा प्यार चाहिये,
और साथ में अपनी कलम की धार चाहिये।।


 
         

Wednesday 26 August 2015

देश के प्रमुख समाचार पत्रों के सम्पादकों के नाम पत्र


आदरणीय सम्पादक जन,
भारतीय समाचार पत्र
भारत

महोदयों,

एक भारतीय नागरिक का आप सभी विद्वजनों से निवेदन है कि कृपया भारतीय संविधान की प्रस्तावना के विषय में स्मरण करने का प्रयास करें । जो कहता है  हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को : सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढाने के लिए दृढ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 0 (मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी, सम्वत् दो हजार छह विक्रमी) को एतद द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।"

अब ज़रा एक नज़र आज के लगभग सभी बड़े अख़बारों की मुख्य-पृष्ठ की सुर्खियों पर-

·         हिन्दू घटे, मुस्लिम बढ़े
·         हिन्दुओं की धीमी, मुस्लिमों की तेज़  (आबादी की रफ़्तार)....{देश-विदेश वाले पेज तक जारी }
·         यूपी में हिंदू-सिख घटे, मुस्लिम-ईसाई बढ़े.....
·         Hindu Proportion of India’s Population less than 80%

अब यदि भारतीय संविधान की प्रस्तावना के आधार पर देखा जाये तो उपर्युक्त शीर्षकों में क्या है भारत के लोगों की परिभाषा ? कौन हैं "हम भारत के लोग" ? कहां हैंं सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न राज्य  की झलक ? कहाँ है समाजवादी सोच जहां सबको मिले समान अधिकार ? यहांं तो गणना ही इस आधार पर जारी की जा रही है ताकि वोट बैंक बांटे जा सकें और हमारे लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ आज स्तम्भ के स्थान पर सत्ता का शस्त्र बना दिख रहा है । आज धार्मिक आंकड़े जारी हुए हैं, तो वहीं जातिगत आंकड़ों को जारी करने की मांग बढ़ गई है । दरअसल हर कोई अपने-अपने वोट बैंक को पहचानना जो चाहता है । ये जनगणना नहीं, ये धार्मिक और जातिगत मतगणना है । अब काहे की पंथ निरपेक्षता और कैसा लोकतंत्र ? जब एक धर्म- निरपेक्ष राष्ट्र के समाचार पत्र ऐसी छवि प्रस्तुत कर रहे हों । 


यह सत्य है कि न्याय अब भी कहीं न कहीं जीवित है, विचारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी है किन्तु धर्म और उपासना की स्वतंत्रता के नाम पर स्वतंत्रता केवल नाम मात्र की है क्या ?  जब आप और हम ये मानते हैं कि भारत का धर्म सहिष्णुता मेंं निहित है तो कैसे कर सकते हैं हम ये अनुदार व्यवहार ? अब क्या वर्तमान सरकार इन आंकड़ों के अनुसार मंदिर, मस्ज़िद, गिरिजाघर बनवायेगी ?

क्या विकास के बाकी सारे मुद्दों पर कार्य पूर्ण हो चुका है ? 

यदि आय के आधार पर एकत्रित आंकड़ों को सार्वजनिक किया गया होता और आप जैसे भद्र जनों ने आर्थिक आधार पर मेधावियों को आरक्षण देने का मुद्दा उठाया होता तो अधिक प्रसन्नता होती । यदि ये आंकड़े देश के विभिन्न हिस्सों की साक्षरता वृद्धि या लिंगानुपात समानता को दर्शाते तो भी बहुत संतोष मिलता । चलिए ये आंकड़े जारी हुए भी तो क्या , एक ज़िम्मेदार जनमत निर्माता होने के नाते आपको क्या करना चाहिए था ? 

आदरणीय वरिष्ठ जनों आपको स्मरण हो कि हम बचपन से आज तक पढ़ते आये – "हिन्दू- मुस्लिम, सिख-ईसाई, आपस में सब भाई-भाई ", तो आज भाईयों की संख्या कैसे गिनने लगे ? कोई और नज़रिया नहीं था क्या हमारे पास ? क्या आवश्यक था धर्म के आधार पर जनगणना को इतने बड़े स्तर की ख़बर बनाना अंदर से आत्मा ने धिक्कारा नहीं ? ईद पर बड़े चाव से सिवईयां खाते हैं, क्रिसमस और न्यू ईयर की पार्टी करते हैं और फिर इस तरह का जनमत निर्माण करते हुए अपनी ज़िम्मेदारी का एहसास नहीं हुआ हमें ? किसी ने इस ख़बर को छापने का कोई दूसरा तरीका नहीं पाया ? संवेदनाओं के इस देश में हमारी संवेदनायें ऐसी कब हो गईं ? हो सकता है कि  आप सभी विद्व जनों का तात्पर्य वो न हो जो हम जैसे मूर्ख  समझ रहे हों, किन्तु क्या करें , सभी आप जैसे बुद्धिजीवी तो नहीं । उन्हें तो क्रोध आया ही होगा जो तथाकथित भक्त हैं और वे आपकी मंशा को पूरा भी कर देंगे । 68 वर्ष पहले तक जो अंग्रेज़ करते थे, वो अब हम स्वयं अपने साथ कर रहे हैं । अख़बार की ये हेडलाइन्स तय करने के बाद भी क्या आप सब अपने आस-पास या फिर अपने ही कार्यालय में काम करने वाले किसी सरफ़राज के साथ वैसे ही चाय की चुस्कियों का मज़ा ले पायेंगे जैसे अब तक लेते आये हैं ? क्या किसी आफ़ताब की आंखों में अपने लिए वही प्यार देख पायेंगे जो अब तक देख रहे थे या फ़िर आप सबको इससे कोई असर ही नहीं पड़ता ?

राखी क़रीब है, रानी कर्मवती की आत्मा भी जब सोचती होगी कि जो हुमाँयू उसका संदेश मिलते ही भागा चला आया था, उसकी आने वाली पीढ़ियों को इस तरह गिना जायेगा । अग़र ख़बर थी भी तो इसे गौण बनाना तो आपके हाथ में रहा होगा ना ? क्या ये भी तय करने का अधिकार हमने इंसानों के चोले वाले भगवानों को सौंप रखा है ?

माना कि पत्रकारिता अब मिशन नहीं रही, पर क्यों इस पेशे की बची खुची इज़्जत की नीलामी इस क़दर कर रहे हैं हम ! पता नहीं, ये सब हम जैसे नागरिकों की समझ से बाहर है । हम स्वयं को किंकर्त्व्यविमूढ़ पा रहे हैं । हमारे पास पत्रकारिता का कोई अनुभव नहीं है लेकिन अग़र अनुभवी और वरिष्ठ पत्रकारों की समझ ऐसी होती है तो हम मूर्ख ही बेहतर हैं । हो सकता है कि हमें इस पेशे की बारीकियों की जानकारी न हो इसलिए हम ऐसा कह रहे हों किन्तु क्या करें मन की अकुलाहट और छटपटाहट ने कोई चारा भी नहीं छोड़ा था । यदि अल्पज्ञता के कारण कुछ भी ग़लत कहा हो तो  मैं भारत का एक आम नागरिक क्षमाप्रार्थी हूं । अन्त में ये पंक्तियां जो बचपन में किसी कक्षा में पढ़ी थीं-

तुम राम कहो, वो रहीम कहें, दोनों की ग़रज़ अल्लाह से है।
तुम दीन कहो, वो धर्म कहें, मंशा तो उसी की राह से है।
क्यों लड़ता है मूरख बंदे, यह तेरी ख़ाम ख़याली है।
है पेड़ की जड़ तो एक वही, हर मज़हब एक-एक डाली है।


मन को यदि सुकुन मिला तो ये देखकर कि देश में चन्द फीसदी लोग ऐसे भी हैं जिनका कोई धर्म नहीं । काश ! पूरा देश ऐसा धर्महीन हो जाता और अपने कर्तव्यों को अपना धर्म बना पाता और आप सब अपना पत्रकारिता धर्म उचित रूप से निभा पाते । इस काश ! की कल्पना कब पूर्ण होगी पता नहीं किन्तु आशा है कि आप भी कभी आत्मावलोकन करेंगे और अपने उत्तरदायित्व को समझेंगे । भावी पीढ़ियों के लिए रास्ता बनाईये , रास्तों में  संकीर्ण मानसिकता के अवरोध नहीं । धन्यवाद ।
                                                                                                                                                                                                                                                               प्रार्थी

                                                                                                                                                                                                                                                       एक भारतीय नागरिक