Sunday 20 September 2015

हुज़ूर अब जाने भी दीजिये....


कल से लेकर आज तक हमने मानवीय संवेदना का एक पहलू बख़ूबी देखा । 65 वर्ष के वृद्ध टंकण बाबा उर्फ़ कृष्ण कुमार जी को तो उनकी रोज़ी रोटी का ज़रिया वापस मिल गया लेकिन यदि मानवीय संवेदना के दूसरे पहलू पर दृष्टि डाली जाये तो उपनिरीक्षक प्रदीप यादव जी के निलम्बन के बाद उनका परिवार किस मानसिक दबाव की स्थिति से गुज़र रहा होगा ? इस ओर शायद हमारा ध्यान न जाये कि भारत की पुलिस व्यवस्था आज भी उसी स्थिति में है जैसे पहले थी । सुधार के लिए लगातार काम किये तो जा रहे हैं लेकिन ये एक बहुत बड़ी चुनौती है ।

उदाहरण के तौर पर सोचिये कि हमारे परिवार में यदि कोई उद्दण्ड या दुष्ट व्यक्ति भी होता है तो क्या हम उसे कभी उसकी ग़लतियों के लिए माफ नहीं करते ? करते हैं, उसकी हर उद्दण्डता भी सहते हैं क्योंकि उसे हम अपना समझते हैं । प्रदीप जी ने जो किया वो ग़लत किया पर आख़िर ऐसी कौन सी परिस्थितियां रही होंगी जो एक पुलिस वाले को सार्वजनिक स्थान पर अपनी भड़ास इस तरह निकालने के लिए विवश करती हैं ? कभी- कभी आप भी किसी परेशानी की वजह से अपने साथी मित्रों के साथ दुर्व्यवहार करते हैं, पर धीरे-धीरे सब ठीक हो जाता है । हर व्यक्ति को अपनी ग़लती सुधारने का एक अवसर तो मिलना ही चाहिये ।

महान समाजशास्त्री ईमाइल दुर्खीम जी आत्महत्या के सिद्धांत में समाज की प्रतिक्रियाओं को दोषी बताते हैं, जो सच भी है । ठीक उसी तरह पुलिस के इस व्यवहार के लिये भारत की पुलिस व्यव्स्था से ऊपजा असंतोष और समाज का पुलिस के प्रति घृणात्मक रवैय्या भी उतना ही उत्तरदायी है । जिस दृष्टि से हम उन्हें देखते हैं, वैसा ही व्यवहार उनमें उपजता है । कल से उपनिरीक्षक महोदय को लगातार सब कोसे जा रहे हैं, पर हम ये जानने में शायद ही दिलचस्पी रखते हों कि वो किसी मानसिक परेशानी में तो नहीं।

एक और उदाहरण के तौर पर आप ही सोचिये कि छोटी-छोटी असुविधाओं के लिये हम हड़ताल और धरने पर बैठ जाते हैं। वेतन समय से न मिलने पर शोर मचा देते हैं । प्रोन्नति (promotion) न मिलने  पर हमारा प्रोत्साहन(Morale) कमज़ोर पड़ जाता है तो फिर चौबीसों घंटे जनता की सुरक्षा में तत्पर रहने वाली पुलिस जो न दिन देखती है, न रात, जिसे कई-कई दिनों तक अपने परिवार का चेहरा देखना नसीब नहीं हो पाता । जिनके पास कई बार बैठने को थाने नहीं होते, ग़श्त (Petroling) के लिए डीजल उधार लाना पड़ता है, लाश मिलने पर उसके मिलने से पोस्टमार्टम तक का ख़र्च कई बार अपनी जेब से भरना पड़ता है। सालों साल एक ही पद पर घिसते रहते हैं। ऐसी पुलिस से हम सौम्य व्यवहार की उम्मीद कैसे कर सकते हैं ? क्या ये हमारा दायित्व नहीं कि हम हर पुलिस वाले को शक़ की नज़र से न देखें ? अपने रिश्तों में कड़वाहट को थोड़ा कम करने का प्रयास करें । मध्य प्रदेश में आईपीएस रह चुकी अनुराधा शंकर जी ने एक टीवी साक्षात्कार में कहा था- हम अपनी पुलिस को नरक जैसी परिस्थितियों में रखते हैं और नरक से यमदूत ही निकलते हैं, देवदूत नहीं।

भारत में कई अलग-अलग स्तरों पर पुलिस की भर्ती होती है और इस कारण हर व्यक्ति को आगे बढ़ने का अवसर समानता से उपलब्ध नहीं हो पाता जबकि हमारे देश में 200 वर्षों तक राज करने वाले ब्रितानी लोग स्वयं अपने देश में इस व्यवस्था का पालन नहीं करते । वहां प्रत्येक पुलिसकर्मी कॉन्सटेबल के पद से शुरू होकर डीजी स्तर तक पहुँचता है । परीक्षायें होती हैं, उन्नति के समान अवसर मिलते हैं ।

सन् 1996 में पद्मश्री से सम्मानित एवं उत्तर-प्रदेश के सेवा- निवृत्त डायरेक्टर जनरल श्री प्रकाश राज जी ने सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की थी जिसमें पुलिस व्यवस्था पर से राजनैतिक नियंत्रण को कम करने की अपील की गई थी । 22 सितम्बर,2006 को इस मामले में फ़ैसला देते हुये सुप्रीम कोर्ट ने हस्तानान्तरण में राजनैतिक नियंत्रण को कम करने के साथ ही डायरेक्टर जनरल जैसे पद के चुनाव के लिए लोक सेवा आयोग द्वारा तीन योग्य उम्मीदवारों का चयन करने एवं राज्य सरकारों को उन तीन में से किसी एक योग्य व्यक्ति का चयन करने का प्रावधान दिया । जिससे कि पक्षपात कम हो सके लेकिन थॉमस कमेटी की रिपोर्ट आने तक किसी भी राज्य सरकार ने इसे लागू नहीं किया अर्थात् एक तरह से सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों का उल्लंघन किया गया ।

इन सबके बीच भी कुछ ईमानदार और भले पुलिस अफ़सरों के किस्से सामने आते रहे । हमने उत्तर प्रदेश के एक पुलिसकर्मी को इसी सोशल मीडिया पर एक बच्ची को गले लगाये अस्पताल ले जाते देखा  तो इंदौर में यातायात पुलिस के रंजीत जी से जनता को इतना प्रेम करते देखा कि जनता उनके बिना रह न सकी। 1090 ने बहुतों की समस्या हल की तो वहीं न जाने कितनी बार हम आम नागरिकों के झूठ के कारण बेवजह पुलिस परेशान होती रही।

कुछ समय पहले मेरे द्वारा एक  लघुशोधकार्य किया गया था जिसमें पुलिस के प्रति जनता में से सकारात्मक हुये कुछ चन्द लोगों की प्रतिक्रिया मात्र से कुछ पुलिसकर्मी इतने ख़ुश दिखे कि लगा शायद जनता के प्रेमपूर्ण व्यव्हार से ही कुछ बदलाव आ जाये । अन्त में बस इतना ही कहना है कि प्रयास कीजिये कि हम पुलिस को वो सम्मान दें सकें जिससे उन्हें जनता का मित्र बनने का प्रोत्साहन मिल सके ।


राज्य सरकारों को जनता के साथ मानवीय संवेदना से पेश आने वाले पुलिसकर्मियों एवं अधिकारियों को निष्पक्ष रूप से प्रोत्साहित एवं सम्मानित करना होगा और जनता को थोड़ा धैर्य से काम लेना होगा । निलम्बन की सजा पूरी करने के बाद सुधार का एक अवसर अवश्य दिया जाना चाहिये। जब अंगुलिमाल का हृदय परिवर्तन हो सकता है तो पुलिस का क्यों नहीं, लेकिन इसमें जनता और सरकार दोनों की बराबर की भागीदारी सुनिश्चित होनी चाहिये । जिस तरह सच्चे पत्रकार सामने आ रहे हैं वैसे ही अच्छी पुलिस भी किसी बुरे आवरण में ढकी हुई है । आवरण हटाना होगा। अगर अच्छी पुलिस चाहिये तो एक हाथ दोस्ती का आप भी बढ़ाइये। हुज़ूर अब जाने भी दीजिये, आप भी माफ़ कर दीजिये ।   

Thursday 10 September 2015

माँ मुझे अख़बार चाहिए.....


तुम ढूंढ रही हो मेरे लिए एक साथी,
जो सुख में, दुख में हर पल मेरा साथ निभाये,
मेरे चेहरे पर पूर्णता का भाव जो लाये,
पर माँ कैसे कहूँ तुमसे,
मुझे नहीं तथाकथित समझदार चाहिये,
माँ मुझे एक अख़बार चाहिये ।।

देखा है मैंने बचपन में तुम्हें फूंकनी फूंकते हुये,
मजदूरों के लिए चूल्हा जलाते हुए,
और देखा है तुम्हें शहर में हमारे लिए दाना लाते हुए,
जो समझ सके इन पीड़ाओं को,
मुझे वो कलमकार चाहिये,
माँ मुझे एक जीता-जागता अख़बार चाहिये ।।

जो पिरो सके मेरे एहर-ओहर बिखरे शब्दों को एक माला में,
मुझे ऐसा एक बौद्धिक रचनाकार चाहिए,
माँ मुझे एक अदद अख़बार चाहिये ।।

न चाहिए विलायती, न शहरी,
न निर्धन, न धनी..
माँ मुझे आज़ादी का विचार चाहिये,
माँ मुझे जीता-जागता अख़बार चाहिये ।।

क़ैद भी रखे ग़र वो मुझे,
घर की चारदीवारी में,
घूँघट में, पल्लू में, पर्दे में, साड़ी में,
पर जो दे मुझे बाहरी दुनिया से सम्पर्क साधने के अवसर,
माँ मुझे बस सूचना का अधिकार चाहिये,
माँ मुझे एक अदद अख़बार चाहिये ।।

डरती रही हूँ देखकर अबतक,
जिन पुरूषों की कामोत्तेजना,
उनकी वासना में हो यदि माँझी सा दृढ़ आधार तो,
ऐसी संलिप्तता बार-बार चाहिये,
माँ मुझे एक अदद अख़बार चाहिये ।।

जो करे कटाक्ष बारम्बार, अपनी कलम की धार से,
जो डरे न, उच्च पदों के पलटते वार से,
निर्भीक हो चलता रहे, लिखता रहे,
जो दे सके धार मेरी भी कलम को,
माँ मुझे प्रोत्साहन का वो औज़ार चाहिये,
माँ मुझे एक अदद अख़बार चाहिये ।।

न बन सकी हूं अब तलक़ मैं वो पत्रकार,
फिर भी फाइव 'डब्लयू', वन 'एच' करते हैं मेरे मन पर प्रहार,
जो समझ सके इस हार्दिक पत्रकारिता की पेंग को,
और खींच सके इसका प्रतिबिम्ब अपने ह्रदय में,
मां मुझे वो अनूठा छायाकार चाहिये ।
मां मुझे एक जीता जागता अख़बार चाहिये ।।

न देना मुझे शादी में व्यवहार के लिफ़ाफे,
न ही दहेज के नाम पर कोई उपहार चाहिये,
माँ मुझे एक जीता-जागता अख़बार चाहिये ।।

पर उस अख़बार में हो संवेदनशीलता,
जो ढकोसलों से दूर हो,
केवल छप जाना ही न हो जिसका धर्म,
अपने काले पुते पन्नों पर जिसे आती हो शर्म,
जो जला सके क्रांति की चिंगारी और बदलाव की बयार,
माँ मुझे वो क्रांतिकार चाहिये,
माँ मुझे एक ऐसा पत्रकार चाहिये,
माँ मुझे एक अदद जीता-जागता अख़बार चाहिये ।।

यदि न मिले अख़बार ऐसा,
तो माँ बस रहने दे मेरे हिस्से तुझ सा सादा जीवन,
और बाबा जैसे उच्च विचार चाहिये,
नहीं चाहिये कोई अख़बार,
माँ मुझे तेरे आंचल में ही संसार चाहिये,
माँ मुझे बस तेरा प्यार चाहिये,
और साथ में अपनी कलम की धार चाहिये।।