Wednesday 28 August 2013

मैं निरी नास्तिक

मैं निरी नास्तिक सी हो गयी हूँ,
आज अपनी पण्डिताई से गई हूँ,
ना ही पूजन,न ही अर्चन, न किया स्नान मैंने,
न चढ़ाये श्याम को कुछ पुष्प मैंने,
ना ही मैं आज किसी मंदिर गई हूँ,,
मैं निरी नास्तिकी सी हो गई हूँ।।

ना ही भोजन सात्विक था, ना ही राजसी था,
तामसिक भोजन का सेवन कर रही हूँ,
मैं  निरी नास्तिकी सी हो गई हूँ।।

धर्म में विश्वास मेरा कब नहीं था,
पर धर्म की परिभाषाएं गढ़ते हम ग़लत हैं,
कर्म ही पूजा है”, कहती कृष्ण-गीता,
उस कर्म-पथ पर नेत्र मूँदें चल रही हूँ,
मैं निरी नास्तिक सी हो गई हूँ।।

आज जन्मेंगे कृष्ण फिर से ,
हर तरफ बस शंख की ध्वनियाँ बजेंगी,
हर कोई उस प्रेम का प्रसाद लेगा,
पर मैं कलंकित और अभागन सी खड़ी हूँ,
मैं निरी नास्तिक सी हो गई हूँ।।

श्याम मन में हैं नहीं, राम ने मुझको है छोड़ा,
न ही सीता बन सकी , न ही मैं अब राधा ही रही हूँ,
मैं निरी नास्तिकी सी हो गई हूँ।।
ग़र मुझे मिल जायें नारायण तो गणिका भी बनने को खड़ी हूँ,
प्रेम जीवन में नहीं है,झोलियाँ फैलाये खड़ी हूँ,
मैं निरी नास्तिकी सी हो गई हूँ।।

पर मेरा विश्वास अब भी आस्तिक है,
मन है पावन और तन भी स्वास्तिक है,
मन में कान्हा प्रेम की बंसी निरंतर बज रही है,
और ह्रदय में आत्मा तुझे भज रही है,
हे कृष्ण मुझ पर भी तू डाल दे अपनी परछांई,
क्योंकि तमस में मैंने ज्योति अक्सर है पाई,
ग़र मैं फिर भी संसार को लगती हूँ अधर्मी,
तो मुझे बनना नहीं दिखावे का धर्मी,
अपनी बिगड़ी चाल में ही रम गई हूँ,
मैं निरी नास्तिक सी ही सही हूँ।।

मैं निरी नास्तिक सी ही सही हूँ।।

Saturday 24 August 2013

ख़ुदी में ख़ुदा

ख़ुद ही ख़ुद को तू ख़ोदेगा तो खोदे कम नहीं होगा,
तू जितना खोदेगा ख़ुद को कभी बंजर नहीं होगा,
ख़ुदी से कर ले ये वादा ,कभी गुमसुम नहीं होगा,
अगर जो तुझमें हिम्मत है , ख़ुदा फिर तेरे संग होगा।।

तुझे क्या सीख कोई दे, किसी की नकल क्या करना,
तुझे दिन-रात है, ख़ुद की बनाई राह पर चलना,
कोई तुझसे ग़र ये कह दे कि तूने उससे सीखा है,
उसे ख़ुद ही पता होगा कि तूने किससे सीखा है।।

किसी की क़ामयाबी पर तू न जलना, न ही बुझना,
ख़ुद ही ख़ुद को जला इतना, तपा इतना,
कि सौ फ़ीसद ख़रा सोना, तुझे ख़ुद ही से है बनना,
समझ ले ख़ुद की ताकत को, ज़माने से है क्या डरना।।

ख़ुद ही से तेरी हस्ती है, ख़ुद ही से है तेरा नग़मा,
तू सुनना ख़ुद के दिल की ही, वही करना जो ख़ुद कहना,
ख़ुदी को कर बुलन्द इतना, किया न हो ख़ुदा ने भी जितना,
तभी पूछेगा ख़ुदाया भी, बता क्या है तेरी तक़दीर में लिखना,
ख़ुदी को कर बुलन्द इतना, ख़ुदी को कर बुलन्द इतना।।  




मेरी सड़क

यूँ तो हर बात हम फ़ौरन ही कहा करते थे,
पर इस बार ज़रा देर हुई ,ज़िन्दगी का एक रास्ता अब ख़त्म हुआ और फ़िर ...
खड़े हैं चौराहे पर हम.....एक रास्ता मंज़िल की तरफ जाता है ,
एक रास्ता घर की तरफ जाता है,
एक रास्ते पर ठोकरें इंतज़ार कर रही हैं....
एक रास्ते पर सुनहरी यादें खड़ी हैं....
यादों वाला रास्ता चुनना बेवकूफी है क्योंकि यादों के साथ मुस्कुरा कर किसी दूसरे रास्ते पर बढ़ जाना ही समझदारी है,
घर की तरफ़ रूख़ करने का मतलब है,मंज़िल को यहीं से अलविदा कह देना.....पर फिर चौराहे तक आने की जद्दोजहद बरबाद चली जायेगी......
मंजिल की तरफ़ सीधा जाने वाला रास्ता बड़ा ही सपाट सा और जल्दी पहुँचा देने वाला प्रतीत हो रहा है पर इस रास्ते पर ना जाने कितने ऐसे गढ्डे हैं जो दूर से नज़र नहीं आ रहे.......क्योंकि जितने भी लोग इस सड़क पर गये कभी उन्हें दुबारा इस चौराहे पर ना देखा ......
वो चौराहा जिसने इन्हें आगे तक जाने का रास्ता दिया.....
ये सब सोचकर वो ठोकरों वाला रास्ता नज़र आया.....
जिस पर कोई जाना नहीं चाहता....क्योंकि उसका उबड़-खाबड़पन पहले ही सबको विचलित सा कर देता है.....
उस रास्ते से मंज़िल भी नज़र नहीं आती क्योंकि वो इतना पथरीला है कि रास्ते का छोर दिखता ही नहीं...
पर मन कहता है कि इस रास्ते पर क़ामयाबी सौ फीसद पक्की है क्योंकि ये रास्ता भले ही पथरीला हो इसलिए
वक्त लगे पर ये रास्ता है बहुत छोटा.......इस रास्ते को चुनकर तू इस चौराहे को ना भूलेगी और वापस शुक्रिया अदा करने ज़रूर आयेगी......न घर छूटेगा,न यादें, न मंज़िल,और ठोकरें तो सदा से ही तेरी अपनी रही हैं...जो तुझसे अथाह प्रेम करती हैं.........

(अंतिम पंक्तियां लिखते हुए महान कवि Robert Frost याद आए जो कहते हैं-“Two roads diverged in a wood,&

  I Took The One less travelled by, And that has made all the difference” –( The Road not taken) से साभार..)