मैं निरी नास्तिक सी हो गयी हूँ,
आज अपनी पण्डिताई से
गई हूँ,
ना ही पूजन,न ही
अर्चन, न किया स्नान मैंने,
न चढ़ाये श्याम को
कुछ पुष्प मैंने,
ना ही मैं आज किसी
मंदिर गई हूँ,,
मैं निरी नास्तिकी
सी हो गई हूँ।।
ना ही भोजन सात्विक
था, ना ही राजसी था,
तामसिक भोजन का सेवन
कर रही हूँ,
मैं निरी नास्तिकी सी हो गई हूँ।।
धर्म में विश्वास
मेरा कब नहीं था,
पर धर्म की
परिभाषाएं गढ़ते हम ग़लत हैं,
“कर्म ही पूजा है”, कहती कृष्ण-गीता,
उस कर्म-पथ पर नेत्र
मूँदें चल रही हूँ,
मैं निरी नास्तिक सी
हो गई हूँ।।
आज जन्मेंगे कृष्ण
फिर से ,
हर तरफ बस शंख की
ध्वनियाँ बजेंगी,
हर कोई उस प्रेम का
प्रसाद लेगा,
पर मैं कलंकित और
अभागन सी खड़ी हूँ,
मैं निरी नास्तिक सी
हो गई हूँ।।
श्याम मन में हैं
नहीं, राम ने मुझको है छोड़ा,
न ही सीता बन सकी ,
न ही मैं अब राधा ही रही हूँ,
मैं निरी नास्तिकी
सी हो गई हूँ।।
ग़र मुझे मिल जायें
नारायण तो गणिका भी बनने को खड़ी हूँ,
प्रेम जीवन में नहीं
है,झोलियाँ फैलाये खड़ी हूँ,
मैं निरी नास्तिकी
सी हो गई हूँ।।
पर मेरा विश्वास अब
भी आस्तिक है,
मन है पावन और तन भी
स्वास्तिक है,
मन में कान्हा प्रेम
की बंसी निरंतर बज रही है,
और ह्रदय में आत्मा
तुझे भज रही है,
हे कृष्ण मुझ पर भी
तू डाल दे अपनी परछांई,
क्योंकि तमस में
मैंने ज्योति अक्सर है पाई,
ग़र मैं फिर भी
संसार को लगती हूँ अधर्मी,
तो मुझे बनना नहीं
दिखावे का धर्मी,
अपनी बिगड़ी चाल में
ही रम गई हूँ,
मैं निरी नास्तिक सी
ही सही हूँ।।
मैं निरी नास्तिक सी
ही सही हूँ।।