Friday 20 February 2015

मन की फिरौती


कैसी ये अजब चुनौती है,
ख़ुद से ख़ुद की,
व्याकुल मन की,
ये कैसी एक फिरौती है,
जिस मोड़ को छोड़ बढ़े आगे,
जिस डोर से रिश्ता तोड़ लिया,
जब व्याकुल मन की पेंग बढ़ी,
फिर उनसे रिश्ता जोड़ लिया,
जल के भीतर भी चैन न था,
जल के बाहर ना साँस मिले,
भीतर- बाहर, बाहर-भीतर
इक पग ऊपर, पर फिर से अधर,
न जाने साहसी जीवन को है,
किसकी प्रतीक्षा और किसका डर,
ये मन की चाल न जाने, किसके घर की बपौती है !
ये कैसी अजब चुनौती है ।
ख़ुद से ख़ुद की,
व्याकुल मन की,
ये कैसी एक फिरौती है ।