Saturday 8 November 2014

युगमानव


मिसाल क़ायम करने के लिए कुछ दर्द उठाने पड़ते हैं,
नई राह औरों को देने के लिए , पग अपने जलाने पड़ते हैं,
नये पंख किसी को देने के लिए, पर अपने फैलाने पड़ते हैं....
दांव पर लगाने पड़ते हैं , करने होते हैं कई विरोध,
सहने पड़ते हैं अनेकों प्रतिरोध,
पर हिम्मत, ग़र यूँ तुम हार गये , तो सिर्फ़ नहीं हो तुम हारे...
तुम जैसे कई नवोदित पंक्षी, रूक जायेंगे राहों में.....
पर तुमने अपनी बाधाओं पर , ग़र विजय पताका लहरा दी ,
तो विजय तुम्हारी नहीं , कोटि-कोटि आशाओं की होगी,
नये प्रयासों की होगी, जो रच देगी एक नया इतिहास..
इसलिए कहती हूँ, बन युग-मानव (पुरूष,स्त्री अथवा अन्य अर्थात सभी मनुष्य),
अश्रु तेरे यूँ व्यर्थ नहीं......भावुक होना तो उचित सही, पर रूक जाने का अर्थ नहीं....
दु:ख तो तेरे क्षण भर के हैं, पर जीवन का उद्देश्य नहीं,
चल उठ,तज दे तेरे मन का ये अंतरद्वंद....फिर से कर प्रयास और जीत ले अपने भय अनंत..
ना बेड़ी तुझको बाँध सके,ना पिंजरे में होना तू बंद......देख सलाखें उन क़ैदों की....जिनमें है आज़ादी की चाभी......कर प्रयास और खोल के पिंजरा....तू उड़ जा.....फिर तेरा है सारा आकाश......तब तू कहलायेगा हे युग-मानव.....इस सृष्टि का नवप्रकाश ।। - सुन्दरम
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अभी बात बाकी है......(भाग-1)

बेटी- माँ, ये कैसी खिचड़ी बनाई है ... जमी हुई, अजीब सी । थोड़ी पतली होनी थी ना ।
माँ- (नाराज़ होते हुए ) तो तुम ख़ुद क्यों नहीं बना लेतीं ? 
बेटी- माँ आप पिछले 26-27 सालों से सुबह-शाम, दोनों वक़्त खाना बनाती हैं फ़िर भी आप खिचड़ी ढंग से नहीं बना पातीं , तो मुझसे कैसे उम्मीद कर सकती हैं कि मैं सब सही बना लूँगी ।
माँ-(और भड़कते हुए) तो खाने में कमी क्यों निकालती हो ?
बेटी- अगर मेरी जगह भाई ने आपसे कहा होता कि खाना ठीक नहीं बना तो आप चुपचाप सुन लेती , उसे जवाब न देतीं तो मुझे क्यों डाँट रही हैं ?
माँ – (ज़ोर से चिल्लाते हुए)- जहाँ जाओगी, लात खाओगी, क्या ससुराल में भी ऐसे ही जुबाँ लड़ाओगी ? जाओ मैं तुम्हारी शादी ही नहीं करूँगी...या तो तुम घर से भाग जाओगी या मर जाना ऐसे ही ।
बेटी- क्यों माँ अगर किसी लड़की की रूचि खाना बनाने में नहीं है तो उसे मजबूर क्यों किया जाता है , लड़के को तो कोई मजबूर नहीं करता ।
माँ- लड़के तो सड़क पे खड़े होकर मूत सकते हैं, क्या तुम ऐसा कर सकती हो ? बड़ी आई लड़कों की बराबरी करने वाली, जाओ लड़ो दुनिया से, जो-जो लड़के करेंगे, वो कर सकती हो , तो जाओ जा के सड़क पे मूतो .....।
बेटी-(बराबर स्वर में) माँ, लड़के भी तो बच्चे पैदा नहीं कर सकते ।
माँ-(झल्लाते हुए) तो , तुम क्यों उनकी बराबरी करने पर तुली हो ?
बेटी- माँ लड़के ऐसा करके कोई मर्दानगी का काम नहीं करते और उन्हें सड़क पर इस तरह खुले आम मूतने का अधिकार इस समाज ने ही दिया है । जब आप औरत होकर औरत की गरिमा को इस तरह के तर्कों से दबायेंगी तो पुरूष हमेशा सड़कों पर ऐसा करते पाये जायेंगे , क्योंकि उन्हें ये अधिकार हमारी सहनशीलता ने दिया है, हमारे सर झुका कर निकल जाने की आदत ने दिया है ।
माँ- तो तुम समाज बदलोगी ।
बेटी- हाँ , बदल भले ना सकूँ, पर सोच में बदलाव की शुरूआत ज़रूर करूँगी । जानती हूँ वक्त लगेगा, पर एक दिन दोनों (स्त्री –पुरूष) समपट अवश्य आयेंगे ।
(माँ चुप रहकर , झल्लाहट में बरतन समेटती हुई चली जाती है और बेटी फिर अपनी पढ़ाई में जुट जाती है।)
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(शिक्षा- यदि आप स्त्री हैं और इस ब्लॉग पोस्ट को पढ़ रही हैं तो भविष्य में अपने बच्चों (लड़का हो या लड़की) को लज्जा जैसे आभूषण की सीख बराबर मात्रा में दीजिए , सड़क पर लघु शंका करने का अधिकार पुरूषों ने ख़ुद ही ले लिया था, उन्हें किसी ने दिया नहीं था । महिला होकर महिला अस्मिता के साथ न खेंले ।
यदि आप पुरूष हैं और आपके मन में सड़क पर कहीं भी पैंट की चेन खोलकर खड़े होने का विचार आये तो एक बार शर्मिन्दगी ज़रूर महसूस कीजियेगा ताकि आपकी इस करतूत की वजह से कोई माँ , अपनी बेटी के सामने आपकी इस मर्दानगी का बखान न करे । पुरूषत्व महिलाओं को हराकर सिद्ध नहीं किया जा सकता।
सबसे अहम बात स्त्री हो या पुरूष , एक दूसरे का बराबर सम्मान करना सीखीए । )