Monday 24 October 2011

"ओजस्विनी" की कहानी

दोस्तों आज जिस "ओजस्विनी" की कहानी मै आप सबको सुनाने जा रही हूँ  उसका जन्म आज से दो वर्ष पहले मेरी कल्पनाओं में हुआ. वो न जाने कब से उदास थी,जैसे कुछ खो दिया था उसने ....लेकिन खोकर भी पाने का एहसास उससे बेहतर कोई नहीं जनता था. उसने अपनी पिछली जिंदगी को "अधूरी कहानी..... एक पूरा एहसास"  कहा है,पर आज मै उस अधूरी कहानी की बात नहीं करूंगी क्योंकि आज मै ओजस्विनी के उल्लास का वर्णन करना चाहती हूँ.
                       तवारीख़ २० अगस्त २०१०,दिन शुक्रवार ...अरे आज तो जुम्मे का दिन है....एक पाक़ दिन और आज इस नेक की दुआ कुबूल हो गई हो जैसे. आज वो बहुत खुश है..क्यों???? आएये उसी की ज़बानी सुन लेते हैं......

                                                       " ओजस्विनी एक बंदिनी "


आज मै बहुत खुश हूँ,तुम्हें पाकर  अपने पास,
वहीँ जहाँ कल बैठी थी तेरी प्रतीक्षा में,
अनवरत मैं उदास ,
तेरी राह जोहती,
बाट निहारती , ख़ुद का करती उपहास,
मिल "सन्नाटे" के साथ !
मैं तेरी ओजस्विनी हूँ!
आज मै बहुत खुश हूँ , तुम्हें पाकर अपने पास.....
तुम्हें देख पाने की उम्मीद धुंधली  पड़  चुकी थी,
मेरी आँखें भी आंसुओं से सूनी  पड़  चुकी थी...
पर रह-रह कर एकत्रित जल नेत्रों से गिर पड़ता था,
जैसे नल की टोंटी में बचा हुआ पानी,
जो कहता था खाली टंकी  की कहानी.
नेत्रों में स्वाभाविक काजल नज़र आता था ,
जो जागती रातों की कहानी सुनाता था,
तेरे न आने तक मैं सब पे बिगडती थी, 
ख़ुद पर खीझती और चिल्लाती थी ,
पर आज मानो  अचानक मेरे ह्रदय ने,
तेरे दूर पड़ते क़दमों की आहट सुन ली थी ,
और थके हुए चेहरे पर मुस्कुराहट ने जगह ली थी,
ज्यों ही मैं निकली एक कक्ष से बाहर, 
तू  मुझसे  टकराया,
और मेरे नेत्रों की टोंटी का जल पलकों के पात्र  तक उमड़ आया,
पर मेरे अधरों पर एक स्वछंद हंसी तैर रही थी ,
शब्द अन्दर ही अन्दर सिमट जाना चाहते थे. 
उस क्षण मैंने कब अनजाने ही तेरा हाथ थाम  लिया,
तुझे किसी से मिलने भी न दिया,
बस जी चाहता था की  इस पल में कोई दखल न दे, हमें चंद लम्हों के लिए अकेला कर दे,
मै तुझसे कुछ न कहूँ और तू मेरी ख़ामोशी को पढ़ ले ,तूने  मेरे शब्दों के उतावलेपन को देखा था,
ऐसा जान पड़ता था मानो लबालब भरा कोई पात्र था,जो ख़ुद को तुम पर उडेलना चाहता था ,
                              अवसर पाकर एक नवागंतुक मित्र को हम राह दिखाने चले थे,
                               लौटती सड़क पर हमें कुछ पल अपने मिले थे ,
                               जहाँ मैं तुम्हें सुन रही थी ,तेरे साथ चल रही थी ,
                               कुछ मैं भी कह रही थी और राह थम गई ,
                               हम चंद पलों में फिर उस कक्ष में थे ,
                               जहाँ कुछ क्षण पहले मै थी,सब थे,
                                पर अब तुम भी थे.
मेरी ख़ुशी आज सबने देखी  थी,
थकी आँखों की चमक, मेरे शब्दों में चहक,
 आज सबने सुनी थी , 
ऐसा लगता था जो कली  दो दिन पहले मुरझा गई थी,
उसे आज शायद नयी जिंदगी  मिली थी...
वो कुछ खिली -खिली  थी ,
कुछ और वक़्त तेरे साथ बिता पाती ,
यही सोच कर आज तेरे संग चली थी ,
उस दिन संध्या के अंतिम प्रहर में ,रात्रि के चढ़ते शिखर में,
हमने चाय के नुक्कड़ की तलाश की ,
कई सड़कों -चौराहों की खाक छानती,
अंत में एक जगह मिली,
जहाँ न शोर था,न ही "सन्नाटा",
                                          आज वहां बस हलचल थी,
                                          सन्नाटे की वो प्रेमिका,
                                          आज हम दो दोस्तों के बीच चली आई थी,
                                          हम चाय के पात्र हाथों में थामे अपनी बातें सुना रहे थे,
                                           कुछ नगमें  जो अनसुने थे ,                                                                           
                                           जल्दी में गा रहे थे ,
                                           चंद लम्हों में महीनो की बातें समेट  देना चाहते थे,
                                            पर तुम न जाने क्यूँ,आज भी कतरा रहे थे,
                                             तुम्हारी नज़रें जैसे ख़ुद को दोषी मान रही थी ,
                                             पर नहीं मित्र ,दोषी न तुम थे,न हम थे,
                                                 दोषी तो वो भाग्य है ,जिसने मेरे मन में तुम्हारे  लिए प्रेम भर दिया था,
ये जानकर भी की तुम मेरे नहीं हो सकोगे,
शायद वो तुम्हारी  इस "ओजस्विनी " से ईर्ष्या  की  भावना रखता था ,
पर वो शायद नहीं जानता था की "ओज" अपने "सौंदर्य" को पा लेगी ,  
प्रेम के कई रूप हैं ,मित्र-प्रेम एक चरम प्रेम है,
जिसकी बंदिनी ओजस्विनी बन चुकी थी ,
आज सौंदर्य ने उसे जीवन पर्यंत अपनी मित्रता की बंदिनी  बना लिया था ,
जहाँ केवल मानसिक,हार्दिक,मानवीय, पवित्र -प्रेम था .
                                                जहाँ विचारों का प्रेम था,भावनाओं का बंधन था,
                                                 जहाँ लेशमात्र भी भौतिकता न थी ,
                                                 जहाँ बस मधुर स्मृतियों का आलिंगन था ,
                                                  मैं "ओजस्विनी" अपने "सौंदर्य " को निहार रही थी ,
                                                  जिसे कभी मैंने प्रेयसी बन प्रेम किया था अपनी भावनाओं से,
अपेक्षित समयावधि से अधिक संग मिल चुका  था तुम्हारा ,
मुझे तो बस इन स्मृतियों का ही है सहारा,
आज मै बहुत खुश हूँ ,तुम्हें पाकर अपने पास ,
शायद यही हो मेरे जीवन का किनारा ,
जहाँ तुम हो मेरे पास,
स्मृतियों के साथ ,स्मृतियों के साथ.         
  
               

  
   








3 comments:

  1. बहुत ही सुन्दर रचना है ...कल्पना के उन्माद में ..यथार्थ की अनुभूति हो रही है ...सुन्दर रचना के लिए धन्यवाद ...आप मेरे भी ब्लॉग पर गौर फरमाएं ...प्रसनता होगी ...शिवेंदु राय ...लिंक
    www.munurai.blogspot.com
    www.vicharpanchayat.blogspot.com

    ReplyDelete
  2. www.munurai.blogspot.com
    www.vicharpanchayat.blogspot.com

    ReplyDelete
  3. jadaya samjh to mahi hai par jo likha bhavnaon se badh kar that us anjan premi se mitrata ka ahsas tha jo ham sabhi ko kabi na kabhi rulata hai. par use hai apna mitra bana len to kya baat hai

    ReplyDelete