Sunday 12 November 2017

मन का प्रदूषण और खोता बचपन

हम अपने बचपन में जब कभी ये चाहते थे कि स्कूल में छुट्टी हो जाये तो उसके पीछे की सोच ये नहीं होती थी कि स्कूल बन्द हो जाये बल्कि तब हमारे समय के बच्चे ये सोचते थे कि एक-आध दिन की छुट्टी हो तो केवल पढ़ाई से हो मगर स्कूल बन्द न हो ताकि स्कूल में बच्चे कम आयें और शिक्षक पढ़ाने के बजाये हमारे साथ खेल खेलें। अन्त्याक्षरी हो, दम-शराद हो, किसी बच्चे की गाने की प्रतिभा दिखे तो किसी की मिमिक्री। कुल मिला के बच्चों की संख्या कम होने से एक दिन पढ़ाई से छुट्टी मिले और भीषण परिस्थितियों में भी विद्यालय पहुँचने का रिकॉर्ड क़ायम रहे। इसके अलावा हमारे सख़्त से सख़्त शिक्षकों का कलात्मक और रचनात्मक स्वभाव ऐसी परिस्थितियों में हमें दिखाई पड़ता जो कई दिनों तक बच्चों में चर्चा का विषय होता।
पता है – अमुक सर का फेवरेट गाना ये वाला है। फलाँ मैडम को रंगोली पसन्द है। मैथ्स वाले सर ने गाना गाया। इंग्लिश वाले सर ने कहानी सुनाई। वग़ैरह-वग़ैरह।.”
जब अचानक सर्दी बढ़ने या तेज़ बारिश की वजह से छुट्टी का मौसम बनने लगता फिर भी हम बच्चे यही सोचते थे कि छुट्टी की घोषणा हमारे स्कूल पहुँचने के बाद हो ताकि शिक्षक हमें तुरन्त घर लौटने को न कह सकें और हम अपने थोड़े बहुत साथियों के साथ क़िस्से-कहानियाँ कह सकें, गप्पे हांक सकें। पढ़ाई से इतर कुछ समय बिना किसी प्रतियोगिता के बिता सकें। यहां तक की रविवार की एक्सट्रा क्लास में बच्चों की उपस्थिति कई बार नियमित कक्षा से अधिक दर्ज़ होती। क्यों? इसका कारण यह होता कि इस कक्षा में बच्चों पर स्कूल यूनिफॉर्म में आने का दबाव नहीं होता था। घर के रंग-बिरंगे कपड़ों में आना, सारी लड़कियों का संडे को बाल धोकर जुल्फ़ें लहराते हुए आना.....हालांकि ये सब स्कूल-अनुशासन के दायरे में नहीं होता, लेकिन रविवार को छूट होती थी क्योंकि सबने सोमवार के लिए यूनिफॉर्म धोकर सुखा दी होती थी। रोज़ चोटी बाँधने की वजह से हफ्ते में एक ही दिन सिर धोने और बाल सुखाने को मिल पाता था। हो सकता है भारी भरकम फ़ीस लेने वाले बड़े अंग्रेज़ी दाँ स्कूलों के बच्चों के पास यूनीफॉर्म्स के कई जोड़े हों सो उन पर ये सब लागू न होता हो लेकिन मध्यम वर्गीय और ग़रीब परिवारों के बच्चे जिन स्कूलों में जाते हैं वहाँ अमूमन ऐसा ही होता है।

इस दिन एक अलग तरह की ऊर्जा का अनुभव होता था क्योंकि ये रोज़मर्रा के ढर्रे से हटकर कुछ नयापन लिए कक्षायें होती थीं। शैतान से शैतान बच्चा भी अतिरिक्त कक्षा में दिख जाता था क्योंकि वहाँ नियमित रूटीन से अलग चीजे होती थीं लेकिन आज के समय में हमने पर्यावरण और बच्चों की मंशा दोनों को ही इतना प्रदूषित कर दिया है कि बच्चे छुट्टी के लिए विन्टर वैकैशन या रैनी डे का इन्तज़ार नहीं करते। उनकी डायरी में मर्डर डे , पॉल्यूशन डे, स्मॉग डे जैसे शब्द तेज़ी से पुरानी छुट्टियों वाले शब्दों को विस्थापित कर रहे हैं। इसके लिए हम सब ज़िम्मेदार हैं। स्कूल ऐसा क्या कर रहे हैं कि बच्चे स्कूल जाने के डर से इतना डर रहे हैं? मां-बाप ऐसा क्या कर रहे हैं कि बच्चे उन्हें अपनी परेशानी नहीं बता पा रहे हैं? शिक्षक ऐसा क्या कर रहे हैं कि बच्चों के दिमाग़ में ऐसा ज़हर भर रहा है? क्यों बच्चों को प्रतिस्पर्द्धा में इस क़दर झोंक देना ज़रूरी है? हर बच्चा एक सा नहीं होता, हर बच्चे की ज़रूरतें अलग हैं, पसन्द अलग है। हम उनकी पसन्द, नापसन्द को पहचान कर उनके उसी कौशल को विकसित करने में योगदान क्यों नहीं देते?
सरकारों पर उंगली उठाते-उठाते हम थक क्यों नहीं रहे? क्यों टू-व्हीलर की जगह साईकिल और फ़ॉर-व्हीलर से टू-व्हीलर या पब्लिक ट्रांसपोर्ट पर नहीं आ जाते? क्या हम अपनी थोड़ी-थोड़ी लक़्ज़री भी बेहतर पर्यावरण के लिए कुर्बान नहीं कर सकते? क्या पटाखों को बिना साम्प्रदायिक रंग दिये कुछ हद तक न नहीं कह सकते? क्या हम सरकारों के पास मदद और सुझाव लेकर नहीं जा सकते? अपना योगदान लेकर नहीं जा सकते? करने को बहुत कुछ है। हर व्यक्ति अपने स्तर पर सम्भव योगदान कर सकता है लेकिन तब, जब अपने मन के प्रदूषण को हमने साफ कर लिया हो। 

जिन दो मुख्य मुद्दों पर मैंने बात की है-
1.       बाल मनोविज्ञान
2.       पर्यावरण सुरक्षा

यदि इन दोनों ही मुद्दों पर आपके पास कुछ अच्छे सुझाव हों तो आप इनबॉक्स कर सकते हैं या कमेंट कर सकते हैं। कुछ सुझाव मेरे पास भी हैं जिन पर मंथन कर रही हूँ। आपके सुझावों से कुछ और सार्थक हो सकेगा सम्भवतः। मैं न सही, आप सही, आप न सही, कोई और सही पर कोई तो करे कुछ सहीवरना न तो बच्चे मन के सच्चे रह जायेंगे न ही स्वस्थ साँसें।