Friday 19 December 2014

रौशनी

घुटन हो रही है....
जलन हो रही है.....उस वाक़ये के घटने से पहले से ही चुभन सी हो रही है...
ना पता था कि इतना कुछ यूँ ही घट जायेगा....कि एक पल में मुझे उस घुटन का अंजाम नज़र आयेगा....
बुरे ख़्वाब से भी बुरी है ये हकीक़त......जैसे उजड़ ही गई है दुनिया-ए-अक़ीदत...
कभी ये भी ख़्याल नहीं आता कि बुरे ख़्वाब में भी ऐसा मंज़र नज़र आये....
कि नन्हें इन्सानी फ़रिश्तों का लहू , हैवान बहाये......
अगर सच में तुमने अपनी नन्हीं जानों के दर्द को जिया होता.....
तो तुम आज बदले की शमाँ न जलाते....लहू के बदले लहू न बहाते..... 
बहाना ही था तो अपनी हैवानियत को गहरे दरिया में बहाते...
अमन की रौशनी की एक लौ तुम ही जलाते....... 
तुम्हारे किए की सज़ा तुम्हारे मासूमों को मिली थी ऐ तालिबान...
क्यों अपने मासूमों को बना रहे थे तुम आने वाले कल का शैतान.......
मानते हैं कि दर्द तुमने भी जिया होगा....
पर तुमने कौन सा अपने उन मासूमों की क़िस्मत में उजले कल की रौशनी लिखी थी......
तुम उन्हें भी हैवान ही बनाते...अपने झूठे मक़सद की बलि उनको भी चढ़ाते......
उनके मन में हैवानियत का ज़हर भरते......उनके लिए आने वाले कल में भी एक बुरी मौत मुक़र्रर करते.........
अगर उन मासूमों के दर्द की इतनी ही परवाह होती तो तुम तालिबान ही क्यों बनाते ? 
न अपने लिए, ना ही औरों के लिए क्यूँ शमशान बनाते........ 
तुम्हारे करम ऐसे भी नहीं थे कि तुम्हारे मासूमों के ज़नाज़े पर रोई हो दुनिया.......
देखो जिन्हें तुमने उजाड़ा है, उस पर कैसा सहमा,उबला, ख़ौला है ये जहाँ......
बस करो, बंद करो यूँ बंदूकों के पटाखे जलाना....यूँ लहू के रंग बहाना......
इस ज़िन्दगी में तो तुम्हारे मन के अंधियारों में कोई दिया जल ना पायेगा.......

तड़पती रूहों की बद्दुआ का ज़हर तुम्हें निगल ही जायेगा.....
इससे अच्छा है कि तुम लानत से ख़ुद ही मिट जाओ....
कम से कम एहसास-ए-ग़ुनाह से तुम्हारी रूह को सुकूँ तो मिले........
शायद इसी एहसास से आने वाले कल में रौशनी की एक शमाँ तो जले.......


Saturday 8 November 2014

युगमानव


मिसाल क़ायम करने के लिए कुछ दर्द उठाने पड़ते हैं,
नई राह औरों को देने के लिए , पग अपने जलाने पड़ते हैं,
नये पंख किसी को देने के लिए, पर अपने फैलाने पड़ते हैं....
दांव पर लगाने पड़ते हैं , करने होते हैं कई विरोध,
सहने पड़ते हैं अनेकों प्रतिरोध,
पर हिम्मत, ग़र यूँ तुम हार गये , तो सिर्फ़ नहीं हो तुम हारे...
तुम जैसे कई नवोदित पंक्षी, रूक जायेंगे राहों में.....
पर तुमने अपनी बाधाओं पर , ग़र विजय पताका लहरा दी ,
तो विजय तुम्हारी नहीं , कोटि-कोटि आशाओं की होगी,
नये प्रयासों की होगी, जो रच देगी एक नया इतिहास..
इसलिए कहती हूँ, बन युग-मानव (पुरूष,स्त्री अथवा अन्य अर्थात सभी मनुष्य),
अश्रु तेरे यूँ व्यर्थ नहीं......भावुक होना तो उचित सही, पर रूक जाने का अर्थ नहीं....
दु:ख तो तेरे क्षण भर के हैं, पर जीवन का उद्देश्य नहीं,
चल उठ,तज दे तेरे मन का ये अंतरद्वंद....फिर से कर प्रयास और जीत ले अपने भय अनंत..
ना बेड़ी तुझको बाँध सके,ना पिंजरे में होना तू बंद......देख सलाखें उन क़ैदों की....जिनमें है आज़ादी की चाभी......कर प्रयास और खोल के पिंजरा....तू उड़ जा.....फिर तेरा है सारा आकाश......तब तू कहलायेगा हे युग-मानव.....इस सृष्टि का नवप्रकाश ।। - सुन्दरम
(@Copyright reserved)

अभी बात बाकी है......(भाग-1)

बेटी- माँ, ये कैसी खिचड़ी बनाई है ... जमी हुई, अजीब सी । थोड़ी पतली होनी थी ना ।
माँ- (नाराज़ होते हुए ) तो तुम ख़ुद क्यों नहीं बना लेतीं ? 
बेटी- माँ आप पिछले 26-27 सालों से सुबह-शाम, दोनों वक़्त खाना बनाती हैं फ़िर भी आप खिचड़ी ढंग से नहीं बना पातीं , तो मुझसे कैसे उम्मीद कर सकती हैं कि मैं सब सही बना लूँगी ।
माँ-(और भड़कते हुए) तो खाने में कमी क्यों निकालती हो ?
बेटी- अगर मेरी जगह भाई ने आपसे कहा होता कि खाना ठीक नहीं बना तो आप चुपचाप सुन लेती , उसे जवाब न देतीं तो मुझे क्यों डाँट रही हैं ?
माँ – (ज़ोर से चिल्लाते हुए)- जहाँ जाओगी, लात खाओगी, क्या ससुराल में भी ऐसे ही जुबाँ लड़ाओगी ? जाओ मैं तुम्हारी शादी ही नहीं करूँगी...या तो तुम घर से भाग जाओगी या मर जाना ऐसे ही ।
बेटी- क्यों माँ अगर किसी लड़की की रूचि खाना बनाने में नहीं है तो उसे मजबूर क्यों किया जाता है , लड़के को तो कोई मजबूर नहीं करता ।
माँ- लड़के तो सड़क पे खड़े होकर मूत सकते हैं, क्या तुम ऐसा कर सकती हो ? बड़ी आई लड़कों की बराबरी करने वाली, जाओ लड़ो दुनिया से, जो-जो लड़के करेंगे, वो कर सकती हो , तो जाओ जा के सड़क पे मूतो .....।
बेटी-(बराबर स्वर में) माँ, लड़के भी तो बच्चे पैदा नहीं कर सकते ।
माँ-(झल्लाते हुए) तो , तुम क्यों उनकी बराबरी करने पर तुली हो ?
बेटी- माँ लड़के ऐसा करके कोई मर्दानगी का काम नहीं करते और उन्हें सड़क पर इस तरह खुले आम मूतने का अधिकार इस समाज ने ही दिया है । जब आप औरत होकर औरत की गरिमा को इस तरह के तर्कों से दबायेंगी तो पुरूष हमेशा सड़कों पर ऐसा करते पाये जायेंगे , क्योंकि उन्हें ये अधिकार हमारी सहनशीलता ने दिया है, हमारे सर झुका कर निकल जाने की आदत ने दिया है ।
माँ- तो तुम समाज बदलोगी ।
बेटी- हाँ , बदल भले ना सकूँ, पर सोच में बदलाव की शुरूआत ज़रूर करूँगी । जानती हूँ वक्त लगेगा, पर एक दिन दोनों (स्त्री –पुरूष) समपट अवश्य आयेंगे ।
(माँ चुप रहकर , झल्लाहट में बरतन समेटती हुई चली जाती है और बेटी फिर अपनी पढ़ाई में जुट जाती है।)
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(शिक्षा- यदि आप स्त्री हैं और इस ब्लॉग पोस्ट को पढ़ रही हैं तो भविष्य में अपने बच्चों (लड़का हो या लड़की) को लज्जा जैसे आभूषण की सीख बराबर मात्रा में दीजिए , सड़क पर लघु शंका करने का अधिकार पुरूषों ने ख़ुद ही ले लिया था, उन्हें किसी ने दिया नहीं था । महिला होकर महिला अस्मिता के साथ न खेंले ।
यदि आप पुरूष हैं और आपके मन में सड़क पर कहीं भी पैंट की चेन खोलकर खड़े होने का विचार आये तो एक बार शर्मिन्दगी ज़रूर महसूस कीजियेगा ताकि आपकी इस करतूत की वजह से कोई माँ , अपनी बेटी के सामने आपकी इस मर्दानगी का बखान न करे । पुरूषत्व महिलाओं को हराकर सिद्ध नहीं किया जा सकता।
सबसे अहम बात स्त्री हो या पुरूष , एक दूसरे का बराबर सम्मान करना सीखीए । )

Sunday 20 July 2014

हमारा नेता कैसा हो...(भाग-3)


(एक संस्मरण)

कुछ पुरानी यादें ताज़ा हो आई हैं- बारहवीं कक्षा में पहली बार मुझे किसी वाद-विवाद प्रतियोगिता में भाग लेने का अवसर मिला था । मंच बड़ा था- लख़नऊ का औद्योगिक विषविज्ञान अनुसंधान केन्द्र (ITRC- Formerly known as CDRI)  जहां लख़नऊ के मंहगे और नामी विद्यालयों को निमंत्रण मिला था और सौभाग्यवश हमारे विद्यालय को भी । शहर के उन बड़े विद्यालयों के सामने ना तो हम कभी खड़े हुए थे, न ही अवसर मिला था । प्रतियोगिता में विषय-वस्तु की समयावधि भी कम न थी – पूरे 10 मिनट और विषय था – वैज्ञानिक शोध में जन्तुओं का प्रयोग उचित अथवा अनुचित और तो और निमंत्रण इतनी देरी से मिला कि तैयारी के लिए हमारे पास दो दिन का समय था । 
                 
                हमारी एक शिक्षिका महोदया थीं जो बारहवीं में अंग्रेज़ी पढ़ाती थीं...बहुत ही गुणी और ज्ञानवान थीं, कॉन्वेंट एजुकेटे थीं, हाई क्लास भी थीं और व्यवहार से काफी सह्रय भी थीं । उन्हें अपने विद्यालय में देखकर यही महसूस होता था कि हम किसी बहुत मंहगे स्कूल में तो हैं नहीं तो ये मैडम ग़लती से यहां आ गई होंगी । बहरहाल जब उन्हें इस प्रतियोगिता के विषय में पता चला तो उन्होंने यही कहा कि तुम लोग बैक आउट कर लो, बड़े-बड़े स्कूल वहां आयेंगे और तुम लोगों की कोई तैयारी नहीं है तो मैंने उनसे कहा – कोई बात नहीं मैम, बिना सामना किये मैं हार नहीं मानना चाहती, पहली बार मौक़ा मिला है , कुछ नहीं तो तजुर्बा ही होगा कि आख़िर उसमें होता क्या है । ये कहकर हम अपनी तैयारियों में लग गए । 


हमें इतिहास और संस्कृत पढ़ाने वाली हमारी शिक्षिका महोदया ने कुछ आधारभूत जानकारियों से अवगत कराया कि एक साथी को पक्ष और दूसरे को विपक्ष में अपने मत रखने होंगे । फिर क्या था,  विषय का विपक्ष जो अधिक कठिन प्रतीत हो रहा था वो मैंने लिया और अपनी साथी मित्र को पक्ष में बोलने का प्रस्ताव देकर हम अपनी  तैयारियों में जुट गये....अगले दिन रविवार था जब मैं सुबह 10 बजे से शाम 5 बजे तक पेपर छांटती रही, विषय-वस्तु तलाशती रही। ऊकरू बैठे-बैठे पैर झिनझिना चुके थे लेकिन इतना वक्त हो जाने के बाद भी पक्ष में तो विषय-वस्तु और सामग्री मिली किन्तु विपक्ष के लिए काफी कम । ऐसे में मन का डगमगाना स्वाभाविक था कि मैं अपना पाला बदल दूँ पर मन ये स्वीकृति नहीं दे रहा था । अगले ही दिन जब अपनी शिक्षिका महोदया को ये बात बताई – मैम पक्ष में तो इतना सारा कंटेट मिला है मुझे पर विपक्ष में उससे काफी कम है । तब उन संस्कृत और इतिहास पढ़ाने वाली शिक्षिका महोदया ने मुझे वो विषय-सामग्री मेरी दूसरी साथी को देने को कहा जो मुझे विषय के पक्ष में मिली थी और तब तो और भी बुरा लगा कि मेहनत मेरी और फल किसी और को लेकिन मैं ऋणी हूँ उन शिक्षिका महोदया की क्योंकि उन्होंने मेरे कम विषय-वस्तु और सामग्री को अपनी भाषा से इतनी अच्छी तरह संवारा,सजाया कि मन में फिर से एक विश्वास भर गया ।

                     शायद उन्हें पता था कि उनके किस बच्चे में कम विषय-वस्तु होते हुये भी प्रस्तुति के साथ खेलने का गुण था और किसे ज़्यादा विषय-वस्तु की ज़रूरत थी । उन्होंने ये भी कहा – बेटा क्या पता तुम दोनों हीं पुरस्कार जीत जाओ और विद्यालय का नाम हो, बेटा टीम की तरह जाओ उनकी वो बात दिल को छू गई और पता नहीं था कि उनके शब्द सत्य सिद्ध हो जायेंगे । मैं और मेरी मित्र दोनों ने ही पुरस्कार जीता । द्वितीय पुरस्कार मुझे विपक्ष के लिए और तृतीय पुरस्कार मेरी मित्र को पक्ष के लिए । भले ही हमने प्रथम पुरस्कार नहीं जीता था लेकिन अधिक पुरस्कार जीत कर विद्यालय को ज़रूर उस दिन आगे खड़ा कर दिया था । यहां तक कि जूरी के एक सदस्य ने मुझसे आकर ये भी कहा – बहुत अच्छा बोला , अगर सिर्फ मेरे हाथ में होता तो तुम्हें प्रथम पुरस्कार मिलता, टक्कर कांटे की थी

       इस कहानी से सिर्फ यही बताना चाहती हूँ कि दो शिक्षिकाओं का अलग नज़रिया – एक ने पहले ही हारने को कह दिया था वो उन नेताओं का प्रतीक हैं जिन्हें स्वयं में विश्वास नहीं है और वो कोशिश ही नहीं करना चाहते कि आख़िर ये पड़ी लकड़ी कौन उठाये लेकिन वो दूसरी शिक्षिका जिन्होंने न केवल हमें टीम भावना से प्रोत्साहित किया बल्कि ख़ुद बैठकर हमारी जुटाई चीजों को अपने प्रयासों से सजाया-संवारा,उसे व्यवस्थित किया और ज़िन्दगी भर के लिए ये सीख दे दी कि जब कई लोग साथ हों तो टीम के बारे में किस तरह सोचा जा सकता है । किस तरह ख़ुद आगे आकर अपने सदस्यों का हाथ बंटाया जा सकता है , सिर्फ आदेश नहीं दिया जाता । इसलिए अच्छे नेता का कर्मठ होना असंभव को भी संभव बना सकता है ।


(और अनुभवों की कहानी.........अगले भाग में....)

हमारा नेता कैसा हो .. .(भाग-2)


हमारी फौजों में नेता के लिए एक शब्द प्रयुक्त होता है – ऑफिसर लाइक क्वालिटीज़” (OLQ) यानि इन गुणों का एक खांचा तैयार किया गया है और जिसके तहत ऐसा माना जाता है कि ऑफिसर अपने आदेशों के ज़रिए काम कराए और अपने आदेशों को विभाजित करे और सिपाहियों के पास यस सर कह कर उन आदेशों का पालन करने के सिवाय और कोई चारा नहीं होता किन्तु ये पूरा का पूरा खांचा तब से अपनाया और पालित किया जा रहा है जब ब्रिटिश आर्मी हमारे देश में हुआ करती थी । फौज़ के मामलों में ये सही भी है क्योंकि सीमा पर युद्ध के समय ये आवश्यक हो जाता है कि सभी सिपाही और पूरा दल सिर्फ़ अपने अगुआ के आदेश का पालन करें क्योंकि उनका नेता उसी कठिन परीक्षा और ट्रेनिंग से गुज़र कर वहाँ तक पहुँचता है जिससे उसके दल के सिपाही गुज़रे होते हैं । सभी ने शारीरिक रूप से उतनी ही मेहनत की होती है बस फ़र्क उनके मानसिक स्तर में होता है जो उनकी शिक्षा के स्तर के कारण होता है किन्तु समय पड़ने पर ये नेता अपनी जान की बाज़ी लगाने से भी नहीं चूकते ।

 कहने का आशय ये है कि फ़ौजी दुनिया में तो आदेश देने की बात समझ आती है क्योंकि वहां कोई आलसी व्यक्ति शायद ही पहुँच पाये किन्तु बात अगर आम नागरिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों की हो तो नेता को अपने दल से मिलने वाली विभिन्न सलाहों के लिये खुला होना भी आवश्यक है, साथ ही उसका स्वयं मेहनती होना भी आवश्यक है । यदि कोई नेता अपने दल के उन्हीं दो- चार सदस्यों से काम कराता रहे जो बिना उसके कहे भी अपना काम ख़ुशी से कर देते हैं तो ये कोई नेतृत्व क्षमता का परिचय नहीं है । यदि ऐसा नेता अपने इन सदस्यों के मुँह पर इनकी तारीफ़ करे और पीठ पीछे इन्हें गधा समझे तो ये उसकी मूर्खता होगी क्योंकि उस नेता को ये भान नहीं होता कि ये उसके दल के वो सच्चे लोग हैं जिन्हें वास्तव में अपनी ज़िम्मेदारियों का एहसास है । नेताओं को चाहिए कि वो अपनी टीम के आलसी से आलसी व्यक्ति से भी प्यार से काम करवा सके लेकिन ऐसा तभी होगा जब वो स्वयं मेहनती और उत्तरदायी होगा । एक ऊर्जावान और मेहनती नेता की लोग इज़्जत भी करते हैं और उसका अनुसरण भी करते हैं ।
 
मशहूर शायर और लेखक शहऱयार जी कहते थे- किसी बेतरतीब चीज़ को देखकर अग़र आपके दिल में ख़लल पैदा न हो, उसे ठीक करने की बेचैनी ना हो, तो आप कलाकार नहीं हो सकते

और मैं नेता के लिए भी यही बात कहूंगी कि उसे दिल और आत्मा से कलाकार होने की ज़रूरत है, रचनात्मक होने की ज़रूरत है क्योंकि उस पर एक कलाकार से भी बड़ी ज़िम्मेदारी होती है । विभिन्न कलाओं को समेट कर चलने की,सबका सम्मान करने की,सबको ऊर्जा देने की, सही और ग़लत की पहचान करने की । इसलिए एक नेता में विश्नास का होना बेहद आवश्यक है ।   


हमारा नेता कैसा हो.......(भाग-1)

अजीब सवाल है....हमारा नेता कैसा हो ? सबसे पहली बात ये कि आख़िर नेता होता कौन है ? मुझे तो इस शब्द का यही अर्थ पता है कि नेता वो होता है जो नीति का पालन करे, जो नीति से चले वही नेता है । पर क्या हमारे नेता इस शब्द के अर्थ में स्वयं को समाहित कर रहे हैं ? मैं राजनैतिक नेताओं की नहीं वरन् जीवन के हर एक क्षेत्र में नेतृत्व करने वाले व्यक्तियों की बात कर रही हूँ , फिर चाहे वो किसी स्कूल के प्रधानाध्यापक हों , किसी विश्वविद्यालय के कुलपति हों, किसी छात्र संगठन का प्रणेता हो ,किसी सरकारी अथवा ग़ैर-सरकारी महक़मे के अध्यक्ष हों या फिर किसी निजी संस्थान के किसी भी विभाग के उच्च पद पर आसीन लोग.....ये सभी इस नेता शब्द में समाहित होते हैं । जीवन के कुछ क्षेत्रों में तो सर्वसम्मति और लोगों का प्रेम ऐसे लोगों को निर्विरोध अपना अगुआ चुन लेता है जो इस पद के वास्तव में लायक होते हैं किन्तु आज के समय में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो या तो जुगाड़ से या सो कॉल्ड सेटिंग से इस पद को पा लेते हैं और नतीजा ये होता है कि ऐसे नेता किसी भी बात की ज़िम्मेदारी स्वयं नहीं लेते, दूसरों के कंधे पर बंदूक रख कर निशाना साधते हैं । उनके पद और रूतबे के कारण लोग उनका विरोध नहीं कर पाते और अपना गुस्सा अपने सहकर्मियों पर निकाल देते हैं ।

    नेता वो नहीं होता जो अपनी टीम के सदस्यों से ये अपेक्षा करता रहे कि वो उनके समक्ष कोई सुझाव या प्रस्ताव रखें और नेता उन्हें स्वीकार अथवा अस्वीकार करने मात्र के लिए बैठा रहे । एक सही और अच्छा नेता वो है जो ख़ुद इनिशियेटिवले और अपनी टीम से एक क़दम आगे बढ़कर नये विचारों को साझा करे, यदि वो आगे बढ़ कर सामने नहीं आ सकता और पीछे बैठ कर खेल का मज़ा लेना चाहता है तो वो इस पद के बिल्कुल भी लायक नहीं है । नेता वो होता है जो पड़ी लकड़ी उठाता है , नेता वो होता है जिसे अपनी टीम के किसी भी सदस्य के दुख पर दुख होता है, नेता वो होता है जो संज्ञान लेकर क़दम उठाता है और बात को आगे पहुँचाता है, नेता वो होता है जो दूरदर्शी होता है । नेता वो नहीं होता जो ये सोचता हो कि कैसे भी कर के काम होने से मतलब है बल्कि सही नेता ये सोचता है कि काम सही तरीके से, नीति से , नियमों से और स्वच्छ वातावरण में हो जहाँ कोई किसी के लिए द्वेष ना रखे । नेता वो होता है जो अपनी संस्था के कामों में उतनी ही रूचि दिखाये जितनी कि उसके दल में काम करने वाले लोग दिखाते हैं ताकि उसके दल को ये महसूस हो कि उनका नेता काम को लेकर कितना गंभीर है अन्यथा उसका आलसी रवैया पूरे दल को हतोत्साहित और निरूत्साहित कर सकता है । एक अच्छा नेता ख़राब से ख़राब टीम के साथ भी जुझारू प्रदर्शन करने की क़ाबिलियत रखता है और एक आलसी और ग़ैर-ज़िम्मेदार नेता अच्छी से अच्छी टीम को ले डूबता है । 

नेता भी अपनी टीम के सामने आंसू बहा सकता है क्योंकि यदि वो अपने दल के किसी भी सदस्य की किसी परेशानी के लिए ख़ुद को दोषी पाता है तो इसका तात्पर्य यही है कि उसे दूसरों की ख़ुशियों का भी ख़्याल है और वो दिल से दुखी होता है । ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि एक भावनात्मक व्यक्ति में नेतृत्व क्षमता नहीं हो सकती । यदि वो नीयत से नेक है तो हाथ में शक्ति होने पर भी अपने दल की प्रगति के विषय में ही सोचता है ।

         
जारी है...........(भाग-2)....

Sunday 4 May 2014

“थकन”

 दिख जाऊं जब मैं इठलाती, बलखाती, मधमाती,
उठ दौड़ चहक कर इतराती,
करती फिरूँ हंसी-ठिठोली और नई नित क्रीडायें
चेहरे पर तैर रही हो मुसकान,
जैसे हो एक नया विहान,
न शिकन कोई हो आंखों में,
न बदन में थोड़ी भी थकन,

           तब भी ये न समझ लेना कि पीड़ाओं का अंत हुआ....
           और क्रीड़ाओं से हुआ मिलन......

कभी गांधी के आदर्श जियूँ
कभी आग भगत की जलन लगे....
कभी लगे देश से प्रेम में हूँ
और मन धूँ-धूँ कर जलन लगे.......

आज़ाद हूँ मैं फिर भी परतंत्र..
छोड़ा मुझे किसने है स्वतंत्र ?
न लहर चाहिए झूठी कोई..
न चाहिए झूठा ही विकास....
पर अब भी उम्मीदों के दामन को मैं थाम चली..
गुमनाम चली......
               तू देख संभल जा आज अभी,
               वरना तरूणाई जागेगी...
               है ज़हर अगर सत्ता अपनी,
               तो त्याग इसे और भाग अभी,
               कोई खाये न झूठी सौगंधें इस मिट्टी के आंगन की..

तुलसी अब भी यहाँ पूजी जाती है,
मंदिर के घंटे आज भी मस्ज़िद की अजां से टकराते हैं,
ईदी से झोलियां भरती हैं,होली पर गले लगाते हैं,
बिस्मिल की शहादत भूल न तू, अब्दुल हमीद की याद तो कर..
जब भगत – राजगुरू साथ मरे,  तो आज ज़हर तुम बोते क्यों ?

क्रांतिबीज है पनप रहा,
इसे खाद पानी से न सींचो तुम,
ये पौध नई उग आयेगी,तो तुम्हें जड़ से हिला बढ़ जायेगी,

जीवन मेरा अब मेरा नहीं,
कर दिया इसे है नाम तेरे,
ग़र तूने इसे ठुकराया तो जौहर कर के मर जाऊंगी,
यदि रक्त – बलि भी मांगोगे, तो शीश चढ़ा कर जाऊंगी,
तेरे प्रेम में मैं मर जाऊंगी,एक बीज छोड़कर जाऊंगी,
जो सत्ता को उपभोग नहीं, जनता का उपयोगी बना सके,

न पूंजीवाद, न समाजवाद, चाहिए बस मानवतावाद,
हो लाख पूंजी किसी पूंजीपति के पास तो क्या,
वो बांध उसे अंटे में न रखे, नीयत में जिसकी खोट न हो,
न मानवता पर चोट करे,

न ठगा जाये कोई सर्वहारा,न बने कोई भी बेचारा,
न कोई थ्योरी न कोई मॉडल,
बस देश-प्रेम की हो हलचल,
न आग लगे , न हो दंगे,
न लाशों पर कोई महोत्सव हो,

जो इन पेड़ों को उपजा सकें ,
ऐसे बीजों का है आह्वाहन,

जब मृत्यु शैय्या पर होंगे पड़े,
और चेहरे पर न दिखती होगी शिकन,
क्योंकि मन शून्य में होगा मगन,
कि दिया देश-हित ये जीवन,
चेहरे पर हो एक ऐसी थकन,
चेहरे पर हो एक ऐसी थकन ।।
-          संघर्ष सुन्दरम्




Wednesday 5 March 2014

पन्त जी की आत्मा


जय हे- जय हे- जय हे
शांति अधिष्ठाता
जय -जन भारत...

"प्रथम सभ्यता ज्ञाता
साम ध्वनित गुण गाता
जय नव मानवता निर्माता
सत्य अहिंसा दाता

जय हे- जय हे- जय हे
शांति अधिष्ठाता
जय -जन भारत...


सुमित्रा नंदन पन्त जी कि ये कविता कल  आठवीं में पढ़ने वाली मेरी छोटी बहन जैसी बढ़ती बच्ची को पढ़ाते वक़्त एक घटना घटी - वो पूरी कविता कि व्याख्या समझती रही और जैसे ही मैंने अंतिम दो पंक्तियों के व्याख्या की- जो मुझसे करते नहीं बन रही थी, क्यूंकि अंदर से मुझे भी वही सवाल कचोट रहा था जो अगले ही पल बच्चों ने पूछ ही डाला- हुआ कुछ यूँ कि जैसे ही मैंने कहा नव-मानवता के निर्माता भारत की जय हो,सत्य- अहिंसा का पाठ दुनिया को पढ़ाने वाले, विश्व में शांति की स्थापना करने वाले भारत की जय हो- बच्ची ने कहा- दीदी मानवता मतलब  "Humanity" ना..., मैंने इस सवाल का जवाब हां में दिया ही था कि वहीं पीछे बैठ कर बारहवीं की बोर्ड परीक्षा की तैयारी कर रहे उसके बड़े भाई ने कटाक्ष मारते हुए कहा- दीदी, भारत मानवता-निर्माता ?, ये किस ज़माने की बात है ? " इतना कह कर वो हंस दिया, वो छोटी बच्ची भी ज़ोरों से हंसने लगी। मैंने कहा- "शायद जब भारत सोने की चिड़िया हुआ करता था, तब की बात है ",और इसके बाद मुस्कुरा कर उन बच्चों के साथ आगे तो बढ़ गई पर इस घटना ने बहुत कुछ कह दिया । जो बच्चे रोज़ अख़बारों में डॉक्टरों की हड़ताल से मरने वालों की बड़ती संख्या की ख़बरें पढ़ रहे हैं, जो बच्चे कुर्सी के लिए नोचा-खसोटी में चले जा रहे सियासी दाव-पेंचों को देख रहे हैं, जो विधायकों को अपनी झूठी शान के लिए सभ्यता की धज्जियां उड़ाते देख रहे हैं, वो इन कविताओं पर हँसेगें नहीं तो और क्या करेंगे ? आख़िर ये कवितायें तो इन सब लोगों ने पढ़ी होंगी जब आज तक किताबों से हटाई नहीं गईं हैं तो....... ख़ैर बच्चों की इस हंसी में भी उम्मीद की एक किरन नज़र आती है क्योंकि ये बच्चे - वो सब समझ रहे हैं, जो शायद हम और आप भी समझ रहे हैं । कुछ लोग बदलाव की कोशिश भी कर रहे हैं लेकिन ख़बरदार मैं किसी आम आदमी की बात नहीं कर रही हूँ । वो कुछ लोग हमारे और आपके बीच के कुछ आमो- ख़ास लोग हैं । आप भी अपने अंदर के ख़ास इंसान की तलाश कीजिेए और पन्त जी की आत्मा को शर्मिन्दा होने से बचा लीजिए ताकि वो ये ना सोचते रह जायें कि हाए मैंने ये क्या लिख दिया !